सपा प्रमुख अखिलेश यादव सोमवार को सांसद अवधेश प्रसाद का हाथ थामें संसद की सीढ़ियां चढ़ रहे थे. उनके पीछे सपा सांसदों का हुजूम था.यह अखिलेश यादव का राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ते कद का नजारा था.ऐसी और झलकियां आने वाले दिनों में दिखाई देने की संभावना है.इस चुनाव में सपा देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. उसने उत्तर प्रदेश की 80 में से 37 सीटों पर जीत दर्ज की है.
सपा की सफलता के मायने
उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के हौंसले चुनावों में लगातार मिल रही हार की वजह से पस्त हो रहे थे. ऐसे में 2024 का लोकसभा चुनाव अखिलेश यादव के लिए अस्तित्व का सवाल बन गया था. इससे पार पाने के लिए अखिलेश ने एक बार फिर गठबंधन का ही रास्ता चुना. गठबंधन की उनकी दो कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं. कांग्रेस के साथ गठबंधन कर वो 2017 का विधानसभा चुनाव और बसपा के साथ गठबंधन कर 2019 का लोकसभा चुनाव बुरी तरह से हार चुके थे. इन सबके बावजूद अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और इंडिया गठबंधन में शामिल हुए.
सपा-कांग्रेस के इस गठबंधन ने चुनाव में कमाल किया. इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश की 80 में से 43 सीटों पर कब्जा जमा लिया. इस जीत ने सपा और कांग्रेस दोनों के लिए संजीवनी का प्रवाह किया, क्योंकि 2019 के चुनाव में इन दोनों दलों को बुरी हार का सामना करना पड़ा था. सपा को जहां पांच सीटें मिली थीं, वहीं कांग्रेस केवल एक सीट ही जीत पाई थी, यहां तक की कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी को भी अमेठी में हार का सामना करना पड़ा था. वहीं इस चुनाव में सपा ने 37 सीटों और कांग्रेस ने छह सीटों पर जीत दर्ज की है.यह सपा की अब तक सबसे बड़ी जीत है. इससे पहले 2004 के चुनाव में सपा ने 36 सीटें जीती थीं. इनमें से 35 सीटें उत्तर प्रदेश और एक सीट उत्तराखंड में मिली थी.
अखिलेश यादव का वोट बैंक
इस जीत के साथ ही अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी का कद बढ़ा है.राजनीतिक दल सपा से हाथ मिलाने को आतुर हैं. इसे देखते हुए उत्तर प्रदेश में उसकी सहयोगी कांग्रेस उत्तर प्रदेश के बाहर भी उसे भाव देती हुई नजर आ रही है. इस साल तीन राज्यों के चुनाव होने हैं. इनमें हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड शामिल हैं.कांग्रेस सपा को हरियाणा और महाराष्ट्र में कुछ सीटें दे सकती है.महाराष्ट्र में सपा के दो विधायक पहले से ही हैं. वहीं हरियाणा के कुछ इलाकों में सपा प्रभावी हो सकती है, खासकर अहीरवाल के इलाके में. कांग्रेस को इस बात का भी एहसास भी है कि अगर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसका सपा से समझौता हुआ होता तो परिणाम कुछ और हो सकते थे.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव का बढ़ता हुआ कद सोमवार को लोकसभा में भी दिखाई दिया, जब वो पहली पंक्ति में राहुल गांधी के साथ बैठे नजर आए.अखिलेश ने इस लोकसभा चुनाव से पहले 'पीडीए-पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक' का नारा दिया था. उनका यह नारा काम कर गया. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गैर यादव पिछड़े और दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा जुड़ गया है. इसी वोट के सहारे बीजेपी पिछले दो चुनाव से यूपी में शानदार प्रदर्शन कर रही है.उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्यों में इस वोट बैंक का बड़ा आधार है.
किस वोट बैंक पर है अखिलेश यादव की नजर
दलित वोटरों को लुभाने के लिए ही अखिलेश यादव फैजाबाद से जीते अवधेश प्रसाद को अपने साथ हर जगह लिए दिखाई दे रहे हैं. अवधेश की जीत को अखिलेश यादव बीजेपी पर अपनी सबसे बड़ी के जीत के तौर पर पेश कर रहे हैं, क्योंकि अयोध्या इसी फैजाबाद सीट के तहत आती है, जहां बने राम मंदिर के मुद्दे पर बीजेपी चुनाव मैदान में थी.
यह कमंडल पर मंडल की जीत की भी तरह है.क्योंकि सपा ने फैजाबाद के सामान्य सीट होते हुए भी दलित समाज से आने वाले अवधेश प्रसाद को मैदान में उतारा था.सपा ने प्रदेश की 17 रिजर्व सीटों में से 14 पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. उसे सात सीटों पर सफलता मिली है.इस चुनाव में सपा ने बीजेपी के गैर यादव ओबीसी वोट बैंक में भी सेंध लगाई है.इस तरह से अखिलेश यादव अपने पिता की तरह मंडल की राजनीति की ओर मुड़ते हुए दिख रहे हैं.
अखिलेश यादव की नजर भी दूसरे राज्यों में भी पीडीए वोट बैंक पर है.इसे साधकर वो सपा को राष्ट्रीय पार्टी बनाना चाहते हैं. सपा ने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया है.
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