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This Article is From May 12, 2015

ग्राउंड रिपोर्ट : नए भूमि अधिग्रहण बिल में अपने अधिकारों की सुरक्षा चाहते हैं किसान

ग्राउंड रिपोर्ट : नए भूमि अधिग्रहण बिल में अपने अधिकारों की सुरक्षा चाहते हैं किसान
ग्रेटर नोएडा: संसद से लेकर सियासत के गलियारों तक भूमि अधिग्रहण बिल पर बहस जारी है, लेकिन इस बीच उस किसान की आवाज़ सबसे कम सुनी जा रही है, जिसकी ज़मीन का सवाल है।

ज़मीन अधिग्रहण पर आम किसानों की राय समझने हम पहुंचे दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर दूर ग्रेटर नोएडा इलाके में। निलोनी शाहपुर गांव में रहने वाले 92 साल के रामेश्वर दयाल एक समय यमुना एक्सप्रेस-वे के करीब कपास और गेहूं की खेती किया करते थे। रामेश्वर कहते हैं, प्रशासन ने यमुना एक्सप्रेस-वे से सटी उनकी 13 बीघा ज़मीन वर्ष 2009 में ज़बरन ले ली और कोई मुआवज़ा भी नहीं दिया। अब जब वह मुआवज़ा मांगने जाते हैं तो स्थानीय अधिकारी घूस मांगते हैं।

रामेश्वर दयाल ने एनडीटीवी से कहा, '2009 में मेरी ज़मीन बंदूक दिखाकर ज़बरन ले ली। मुआवज़े के लिए फाइल लगाने पर कहते हैं 4,000 रुपये-6,000 रुपये दो, हम कहां से लाएं पैसे? हमारे पास पैसे नहीं हैं। ज़मीन अधिग्रहण का खौफ इतना ज़्यादा है कि ज़मीन अधिग्रहण कानून को आसान बनाने की पहल के खिलाफ हैं। रामेश्वर कहते हैं, 'मोदी जी जो संशोधन लाए हैं, वह ठीक नहीं है।'

पास ही के गांव मिर्ज़ापुर के किसान प्रेमराज सिंह भाटी की आठ बीघा ज़मीन भी पांच साल पहले यमुना उद्योग विकास प्राधिकरण ने विरोध के बावजूद  ले ली। फिलहाल इलाहाबाद हाइकोर्ट से स्टे ले आए हैं, लेकिन कानूनी लड़ाई जारी है।

प्रेमराज कहते हैं कि नए ज़मीन अधिग्रहण बिल में किसानों की ज़मीन ज़बरन कोई न ले सके, इसके लिए विशेष प्रावधान होना चाहिए। उन्होंने एनडीटीवी से कहा, 'किसानों की इच्छा से ही उनकी ज़मीन ली जाए, ज़बरन नहीं, किसानों की स्वेच्छा से ही उनकी ज़मीन का अधिग्रहण होना चाहिए।'

दरअसल किसानों की ज़मीन कौन ले, किस तरह ली जाए - यह सवाल पेचीदा है और इस मसले पर चल रही राजनीतिक बहस पर इस इलाके के किसान कड़ी नज़र रख रहे हैं। किसान चाहते हैं कि यह सुनिश्चित किया जाए कि उनकी ज़मीन ज़बरन उनसे न छीनी जाए और इसके लिए कानून में विशेष प्रावधान किए जाएं।

यमुना एक्सप्रेस-वे के चारों तरफ बसे किसानों के लिए यह एक बड़ा मसला है। वे चाहते हैं कि ज़मीन अधिग्रहण कानून का दुरुपयोग रोका जाए। सरकार अगर अधिग्रहण करे भी तो वह सार्वजनिक हित को ध्यान में रखकर किया जाए।

सरकार किसानों से ज़मीन लेकर प्राइवेट बिल्डरों या किसी और को न दे। इन किसानों को इस बात पर ऐतराज़ नहीं कि बिजली परियोजना जैसी योजनाओं के लिए किसानों की सहमति लेना कानूनी रूप से अनिवार्य न रखा जाए, लेकिन वे इस बात का आश्वासन चाहते हैं कि उनकी ज़मीन का आगे चलकर किसी दूसरे प्रोजेक्ट में इस्तेमाल न किया जाए। वे गरीब ज़रूरतमंदों के लिए घर बनाने के लिए ज़मीन देने को तैयार हैं, बशर्ते उन घरों में उन्हें हटाकर बाहरी लोगों को न बसाया जाए।

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