26 नवंबर 1949 को हमारी संविधानसभा ने भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया था. इसलिए हम यह दिन संविधान दिवस के रूप में मनाते हैं. तब से लेकर आजतक यह संविधान हमारे देश की राजनीति को तौलने का अतुल्य मापदंड रहा है. 70 सालों बाद भी यह संविधान प्रासंगिक रहेगा, 1949 में इसकी कल्पना कोई अति-आशावादी ही शायद कर पाया होगा. आख़िरकार, अमेरिकी प्रोफेसर गिन्सबर्ग, एल्किन्स और मेल्टन ने विश्वव्यापी संविधानों के सर्वेक्षण में पाया कि एक संविधान की औसतन उम्र केवल 19 साल होती है. उनकी रिसर्च ने यह भी पाया की उम्रदार संविधान संवैधानिक मूल्यों (जैसे कि लोकतंत्र और मौलिकाधिकार) की सुरक्षा नए संविधानों के मुकाबले बेहतर करते हैं. संविधानों के विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि संवैधानिक स्थिरता का सीधा सम्बन्ध सामाजिक स्थिरता से है- संवैधानिक क्रांति अक्सर राजनीतिक उथल-पुथल और व्यापक सामाजिक हिंसा प्रोत्साहित करती है. इस संदर्भ में भारतीय संविधान का बुज़ुर्गपन एक अपवाद है.
संविधान तो सिर्फ कागज़ के पन्नों पर लिखे हुए कुछ शब्दों के संग्रह होते हैं. इनको लिखने वाले भी कब के गुज़र चुके. फिर दबंग राजनेता, बंदूकों और टैकों वाली मिलिट्री, रईस उद्योगपति, अग्रिम सामाजिक वर्ग आदि ताकतवर होने के बावजूद क्यों एक किताब के सामने घुटने टेकते है (चाहे उनकी श्रद्धा दिखावटी ही क्यों न हो)? एक किताब से कैसा डर? गीता-कुरान-बाइबल तो फिर भी दैविक वैद्यता का दावा कर सकते हैं, एक संविधान तो पूर्णतः इंसानी कृति है. फिर क्यों भारत में संविधानवाद पनपा? कुछ लोगों, खासकर दलितों, की संवैधानिक आस्था का ताल्लुक बाबा साहेब अम्बेडकर की भूमिका से हो सकता है. उनकी व्यवहारिक दूरदर्शिता निश्चित तौर पर हमारे संविधान में दिखाई पड़ती है. पर जिन लोगों में यह व्यक्तिगत आस्था नहीं, वे क्यों इस संविधान को माने? इस बात को समझने के लिए हमें संविधानवाद के मायने समझने होंगे.
एक विविध समाज में जब नाना प्रकार के लोग एक साथ रहते हों, तो सामाजिक मतभेद निश्चित तौर पर उभरेंगे. जब मत भिन्न हों, तो सामाजिक फैसले कैसे लिए जाएं? मूलतः ऐसे समाज के सामने केवल दो विकल्प हैं- हिंसा या राजनीति. या तो हम एक दूसरे से लड़कर यह देखें कि कौन जीतता है और उसी की बात माने, या हम एक दूसरे के मत को राजनीतिक बहस के द्वारा समझने की कोशिश करके कोई समझौते की कामना करें. समझौतों की यह विशेषता है कि उनसे हर कोई नाखुश होता है- किसी को भी सब कुछ खुद के मन-मुताबिक नहीं मिलता, पर कोई खाली हाथ भी नहीं जाता. संविधानवाद का बुनियादी उसूल है हिंसा पर राजनीति की प्राथमिकता. एक सफल संविधान की कोशिश यही होती है कि वह हर वर्ग को यह तसल्ली दे कि उसके पनपने की संभावना हिंसक रास्तों के मुकाबले संवैधानिक राजनीति में ज्यादा है.
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सामाजिक वर्गों को यह तसल्ली तभी मिल सकती है जब संवैधानिक मापदंड आपसी समझौतों पर आधारित हों. भारतीय संविधान की सफलता का मूल कारण है कि हमारी संविधानसभा में भारतीय समाज के हर छोटे-बड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की गयी थी. संविधान के दायरे लगभग तीन साल लम्बी बहस और सैंकड़ों छोटे-बड़े समझौतों के ज़रिये, न कि किसी निरंकुश नेता या वर्ग-विशेष की पसंद के मुताबिक, तय हुए. कांग्रेस पार्टी के पास बहुमत था, फिर भी उसने कई विपक्षी नेताओं को संविधानसभा में आमंत्रित किया. खुद बाबा अम्बेडकर दशकों से पंडित नेहरू के राजनीतिक विरोधी थें, फिर भी वे संविधानसभा की आलेखन समिति के अध्यक्ष नियुक्त हुए. देश बंटवारे के बाद हुई हिंसा का परिणाम देख चुका था. उस पीढ़ी ने यह समझ लिया था कि भारत जैसे विविधता वाले देश में हिंसा का एकमात्र विकल्प समझौते-वाली लोकतान्त्रिक राजनीति ही हो सकती है.
सब की बात सुनी गयी. किसी को भी सब कुछ मनचाहा नहीं मिला- खुद प्रधानमंत्री नेहरू के कई मत संविधान में प्रतिबिंबित नहीं हुए. डॉक्टर अम्बेडकर को भी अपनी कई मांगों पर समझौता करना पड़ा. पर संविधानसभा ने किसी को भी खाली हाथ नहीं भेजा. हर किसी को एक तसल्ली दी गयी- आज नहीं तो कल, यहां नहीं तो वहां, इस व्यवस्था में आप भी सत्तारूढ़ हो सकते हो. आज का हारा कल जीत भी सकता है. हमेशा के लिए सत्ता न तो इनकी होगी न आपकी. किसी एक समय में भी, सत्ता की सारी शक्ति एक इंसान या संस्था में नहीं, बल्कि कई विभिन्न केंद्रीय और राज्य-स्तर की संस्थाओं में बांट दी गयी, ताकि कोई किसी और पर हावी न हो सके. कुछ कमज़ोर या अल्पसंख्यक वर्ग- जैसे दलित, जनजातियां, कश्मीरी, पूर्वोत्तर राज्य आदि- जिनको आनेवाली बहुमत वाली राजनीति से कुछ वाजिब बेचैनी हो रही थी- उनको संविधान के अंतर्गत लाने के लिए कुछ ख़ास वायदे दिए गए. स्वायत्त संवैधानिक संस्थाएं (उधारणतः सुप्रीम कोर्ट, ऑडिटर जनरल, इलेक्शन कमीशन आदि) स्थापित की गयीं ताकि वे संविधानवाद की चौकीदारी कर सकें. अंततः इतनी विविध संविधानसभा में भी भारत के संवैधनिक दस्तावेज़ पर सिर्फ एक सदस्य ने हस्ताक्षर करने से इंकार किया. बाकी सभी सदस्य- चाहे वे उदारवादी रहे हों या गांधीवादी, दक्षिणपंथी थे या समाजवादी, हिन्दू थे या मुसलमान, मर्द भी और औरत भी- सभी ने इस संविधान पर हस्ताक्षर कर इसके आधार पर एक नए मुल्क की रचना करने का संकल्प लिया.
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हमारा संविधान त्रुटिहीन नहीं है. हर इंसानी कृति की तरह इसमें भी सुधार के गुंजाइश निश्चित-तौर पर है. आज भी कुछ सामाजिक तबके हैं जो राजनीतिक समझौतों के बजाय हिंसा का रास्ता अपनाते हैं. इनकी कुछ मांगे वाजिब भी हो सकती हैं. इनको संविधान के दायरे में लाना ज़रूरी है. संवैधानिक संस्थाओं में भी मानवीय दोष हैं, जो कई बार संविधान की अवहेलना भी कर जाते हैं. इन खामियों के बावजूद इस अमूल्य धरोहर की सुरक्षा करना हमारा कर्त्तव्य है. इंदिरा गांधी ने जब संविधान पर हमला बोला था, तो खुल्लम खुल्ला बोला था. उनकी आपातकालीन तानाशाही में एक नंगापन था, जिसके कारण कम से कम इतना तो साफ़ था की संविधान खतरे में है. इसी स्पष्टता के कारण जब चुनाव हुए तो जनता ने उन्हें उनके अपराध के लिए पुरजोर दण्डित किया. आज हमारे संविधान के प्रति दिखावटी प्रेम तो सभी जताते हैं. इसलिए ज़्यादा ज़रूरी है कि संविधानवाद पर जो अव्यक्त और अस्पष्ट समकालीन खतरें हैं, उनपर हिंदुस्तानी जनता कड़ी निगरानी रखे. संविधानवाद का मूल उसूल हम कभी ना भूलें: एक विविध समाज में समझौतों का विकल्प केवल हिंसा है.
(लेखक तरुणाभ खेतान ऑक्सफ़ोर्ड और मेलबर्न विश्वविद्यालयों में कानून के प्रोफेसर हैं.)
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