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This Article is From May 17, 2023

जलवायु परिवर्तन की वजह से अप्रैल में 30 गुना बढ़ गई थी उमस भरी गर्मी की संभावना : रिपोर्ट

यह स्टडी वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन पहल के तहत 22 शोधकर्ताओं द्वारा किया गया, जिनमें भारत, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, केन्या, नीदरलैंड, UK और USA के विश्वविद्यालयों और मौसम संबंधी एजेंसियों के विज्ञानी शामिल थे.

जलवायु परिवर्तन की वजह से अप्रैल में 30 गुना बढ़ गई थी उमस भरी गर्मी की संभावना : रिपोर्ट
विश्लेषण के तहत अप्रैल में लगातार चार दिन तक दो क्षेत्रों में औसत अधिकतम तापमान और हीट इन्डेक्स के अधिकतम मूल्यों को देखा गया.
नई दिल्ली:

मानव-जनित जलवायु परिवर्तन (Climate change)के चलते बांग्लादेश, भारत, लाओस और थाईलैंड में अप्रैल में दर्ज हुई उमस भरी गर्मी यानी ह्यूमिड हीटवेव (Humid Heatwave) की संभावना कम से कम 30 गुना बढ़ गई थी. वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन ग्रुप के तहत प्रमुख जलवायु वैज्ञानिको की अंतरराष्ट्रीय टीम द्वारा किए गए रैपिड एट्रिब्यूशन एनालिसिस के अनुसार, दुनियाभर के हीटवेव हॉटस्पॉट्स में शुमार होने वाले इस क्षेत्र की हाई वल्नरेबिलिटी ने मौसम के असर को बढ़ा दिया.

अप्रैल में दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ हिस्सों में रिकॉर्डतोड़ तापमान - लाओस में 42 डिग्री सेल्सियस और थाईलैंड में 45 डिग्री सेल्सियस - के साथ तीखी लू चली. गर्मी के चलते बड़ी तादाद में लोग अस्पताल में भर्ती हुए. सड़कें टूट-फूट गईं. कई जगह आग लगने की घटनाएं हुईं. स्कूलों को बंद करना पड़ा. हालांकि, इससे हुई मौतों की तादाद की फिलहाल कोई जानकारी नहीं है.

जलवायु परिवर्तन ने हीटवेव पर डाला असर
दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन ने हीटवेव को ज़्यादा सामान्य, लम्बा और बेहद गर्म बना दिया है. एशियाई हीटवेव पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को मापने की खातिर वैज्ञानिकों ने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से अब तक हुई 1.2 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) को ध्यान में रखते हुए आज के मौसम की तुलना पुराने मौसम से की है.

हीट इन्डेक्स में तापमान और उमस भी जोड़े गए
विश्लेषण के तहत अप्रैल में लगातार चार दिन तक दो क्षेत्रों में औसत अधिकतम तापमान और हीट इन्डेक्स के अधिकतम मूल्यों को देखा गया. इनमें से एक क्षेत्र में दक्षिण व पूर्वी भारत और बांग्लादेश को कवर किया गया, और दूसरे क्षेत्र के तहत लाओस और समूचे थाईलैंड को देखा गया. हीट इन्डेक्स में तापमान और उमस को जोड़ा जाता है, और यह मानव शरीर पर हीटवेव के प्रभाव को अधिक सटीक रूप से दर्शाता है.

वैश्विक तापमान में वृद्धि जारी रहेगी
शोधकर्ताओं ने पाया कि दोनों क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन ने उमसभरी गर्मी की लहर को कम से कम 30 गुना अधिक संभावित बनाया. जलवायु परिवर्तन नहीं होने की स्थिति में जितना तापमान होता, उसकी तुलना में तापमान कम से कम 2 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा गर्म हुआ. जब तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पूरी तरह नहीं रुक जाता, वैश्विक तापमान में वृद्धि जारी रहेगी और इस तरह की घटनाएं लगातार और गंभीर होती रहेंगी.

कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की जरूरत
बांग्लादेश और भारत में हाल ही में उमसभरी गर्मी जैसी घटनाएं सदी में औसतन एक बार से भी कम घटित होती थीं, लेकिन अब इनके हर पांच साल में एक बार होने की उम्मीद की जा सकती है, और अगर तापमान में बढ़ोतरी 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाती है - अगर उत्सर्जन में तेज़ी से कमी नहीं लाई जाती, तो लगभग 30 वर्ष में ऐसा ही होगा - तो इस तरह की घटनाएं औसतन हर दो साल में कम से कम एक बार होंगी.

लगभग 20 वर्ष में एक बार आएगी ऐसी गर्मी
लाओस और थाईलैंड में वैज्ञानिकों ने पाया कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बिना हाल ही में दर्ज उमसभरी गर्मी की लहर जैसी घटना लगभग असंभव थी, और यह अब भी बेहद असामान्य घटना है, जिसकी मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के असर के बावजूद 200 वर्ष में केवल एक बार उम्मीद की जा सकती है. लेकिन अगर तापमान में बढ़ोतरी 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाती है, तो यह बहुत सामान्य हो जाएगा, और लगभग 20 वर्ष में एक बार होगा.

समावेशी होना चाहिए हीट एक्शन प्लान 
हालांकि, उच्च तापमान दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में सामान्य बात है, लेकिन यहां भी इस तरह की समयपूर्व हीटवेव काफी नुकसानदायक होती है. जो लोग सूरज की तपिश सबसे ज़्यादा झेलते हैं, और जोखिम-भरी आबादी सबसे बुरी तरह प्रभावित होती है. वैज्ञानिकों ने कहा कि असमानताओं और मौजूदा कमज़ोरियों को ध्यान में रखते हुए हीटवेव समाधानों के मौजूदा पैचवर्क में सुधार किया जाना चाहिए.वैज्ञानिकों ने यह भी कहा कि हीट एक्शन प्लान समावेशी और व्यापक होना चाहिए, और पानी, बिजली और स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए.

यह स्टडी वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन पहल के तहत 22 शोधकर्ताओं द्वारा किया गया, जिनमें भारत, थाईलैंड, ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, केन्या, नीदरलैंड, UK और USA के विश्वविद्यालयों और मौसम संबंधी एजेंसियों के विज्ञानी शामिल थे.
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