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This Article is From Dec 18, 2018

1984 का सिख दंगाः कौन था वो शख्स, जिसने 'बांध' दिए थे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के हाथ, बोले- मैं मजबूर हूं

1984 के सिख दंगे में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को उम्रकैद की सजा हुई है. दंगे के वक्त राष्ट्रपति की कुर्सी पर भी एक सिख ज्ञानी जैल सिंह ही बैठे थे. जानिए, उन्होंने दंगा रोकने में खुद को क्यों असहाय पाया था ?

1984 का सिख दंगाः कौन था वो शख्स, जिसने 'बांध' दिए थे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के हाथ, बोले- मैं  मजबूर हूं
31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में हुए थे सिख विरोधी दंगे.
नई दिल्ली: 31 अक्टूबर को जब सिख सुरक्षाकर्मियों के हाथों इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो उस वक्त राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह  (President Gyani Zail Singh) उत्तरी यमन की यात्रा पर थे. यात्रा अधूरी छोड़कर वह वतन वापसी को मजबूर हुए. दिल्ली एयरपोर्ट से उनका काफिला एम्स रवाना हुआ, जहां इंदिरा गांधी की लाश रखी हुई थी. यहीं पर श्रद्धांजलि लोग दे रहे थे. राष्ट्रपति का काफिला जैसे ही आरकेपुरम से गुजरा उग्र भीड़ (1984 anti-Sikh riots) सामने आ गई. भीड़ ने जलती हुई मशालें वाहनों के आगे फेंकीं. ड्राइवर की सूझ-बूझ से किसी तरह वहां से काफिला सुरक्षित एम्स तक पहुंचा. स्थितियां यहां भी खराब थीं. अस्पताल के बाहर जुटी भीड़ ने गाड़ी से उतरते ही राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को घेर लिया और उनके वाहन पर पत्थर भी बरसाए. सुरक्षाकर्मी किसी तरह राष्ट्रपति को सुरक्षित निकालने में सफल रहे. उधर, इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुनकर भारत आने से पहले राष्ट्रपति जैल सिंह ने अधीनस्थों से पूछा था, "मैं देश का राष्ट्रपति हूं, क्या मेरे कंट्रोल में कुछ है?" यह जानकारी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के प्रेस सचिव रहे तरलोचन सिंह के 1984 के दंगों की जांच के लिए बने नानावती आयोग में दर्ज कराए बयान से मिलती है. तरलोचन सिंह बाद में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन बने थे. 
 
जब राष्ट्रपति के अनुरोध पर भी पुलिस ने खड़े कर दिए हाथ

उसी दिन सिंध बैंक के चेयरमैन एनएस बसंत के दामाद करतार सिंह को पटेल नगर में भीड़  (1984 anti-Sikh riots) ने जिंदा जला दिया था. बसंत अपने दामाद का सम्मानजनक रूप से अंतिम संस्कार करना चाहते थे, मगर दिल्ली में हालात बेहद भयावह थे. इसलिए वह देश के राष्ट्रपति और अपने परिचित ज्ञानी जैल सिंह से मदद चाहते थे. फोन पर राष्ट्रपति जैल सिंह ने इसे बहुत कठिन बताया. उन्होंने गृह मंत्रालय को फोन करने के बाद भाजपा नेता मदन लाल खुराना से भी मदद मांगी. तब, मदन लाल खुराना पटेल नगर जाकर सहायक पुलिस आयुक्त राममूर्ति से मिले. पुलिस अधिकारी राममूर्ति ने कहा कि शव सुपुर्द करना संभव नहीं है. यहां तक कि जब उनसे राष्ट्रपति के अनुरोध के बारे में भी बताया गया, तब भी उन्होंने शव देने से हाथ खड़े कर दिए, सिर्फ इतना कहा कि वह परिवार को अंतिम संस्कार के स्थान और समय के बारे में जरूर सूचना दे सकते हैं, मगर शव सुपुर्द नहीं कर सकते. पत्रकार जरनैल सिंह ने अपनी किताब I Accuse.. The Anti-Sikh Violence of 1984 में लिखा है कि खुद इस वाकये की पुष्टि पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस आरएस नरुला और बीजेपी नेता मदन लाल खुराना ने की थी. 

राष्ट्रपति बोले- मेरे संपर्क में ही नहीं हैं गृहमंत्री
पत्रकार पतवंत सिंह ने दंगों की जांच  (Anti-Sikh Riots) के लिए बने नानावती कमीशन को दिए हलफनामे में कहा था, "जब वह सिखों के प्रतिनिधिमंडल के साथ राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मिले और हिंसा रोकने की अपील की तो उन्होंने स्पष्ट कहा- मेरे पास दखल देने का कोई अधिकार नहीं." यह जवाब सुनकर चौंके प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से पूछा, "देश जल रहा है, निर्दोष सिख मारे जा रहे हैं, और आप हस्तक्षेप से इन्कार क्यों कर रहे हैं"? मगर उन्होंने कोई प्रतिउत्तर नहीं दिया. जब 1971 की लड़ाई के हीरो लैफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा ने राष्ट्रपति से पूछा - "सेना कब बुलाई जाएगी?" तो राष्ट्रपति ने कहा- "मैं गृहमंत्री पीवी. नरसिम्हा राव के संपर्क में ही नहीं हूं." राष्ट्रपति से यह जवाब सुनकर जगजीत सिंह भी आवाक् रह गए थे. बाद में यही अरोरा 1984 के दंगों की जांच के लिए बनी जस्टिस नरुला कमेटी के सदस्य भी बने. यह भरोसा करना कठिन था कि देश के राष्ट्रपति के संपर्क में गृह मंत्री ही न हों.

सेना के सवाल पर जैल सिंह ने कहा- आई एम हेल्पलेस
राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के प्रेस सचिव रहे तरलोचन सिंह ने बाद में नानावती कमीशन के सामने दर्ज कराए अपने बयान में कहा- जब राष्ट्रपति के काफिले पर हमला हुआ था,  तब उन्होंने दिल्ली के एलजी पी. जी गवई से फोन कर पूछा, "जब हालात नियंत्रण से बाहर हो गए हैं तो फिर सेना क्यों नहीं बुलाई जानी चाहिए ? " जवाब था, "अगर सेना बुलाई जाएगी तो स्थिति और खराब हो जाएगी." जब भाजपा नेता विजय कुमार मल्होत्रा ने राष्ट्रपति से यही सवाल पूछा तो उन्होंने कहा- "आई एम हेल्पलेस, आई कैन नॉट डू एनिथिंग" (मैं असहाय हूं. मैं कुछ नहीं कर सकता). यह जवाब उन्होंने शरद यादव, कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह को भी दिया था. राष्ट्रपति के बयान रंगनाथ मिश्रा, नानावती कमीशन में जमा हलफनामे में भी दर्ज हैं.  बाद में जब वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह मिले तो उन्होंने कहा- "कुलदीप, न मुझे दंगों की कोई सूचना मिली थी और न ही कोई पेपर सामने आया, सूचनाएं सिर्फ मित्रों से मिलीं." फिर उन्होंने कहा- "मुझे आइडिया नहीं कि आने वाली पीढ़ी कैसे मेरा मूल्यांकन करेगी." कुलदीप नैयर ने यह बयान नानावती कमीशन को दर्ज कराया.

सिख राष्ट्रपति के रहते ही सिखों का कत्लेआम, समुदाय रहा नाराज
1984 के दंगों के बाद ज्ञानी जैल सिंह को लेकर सिखों के बीच काफी नाराजगी रही. सिखों का मानना था कि जब  इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तब ज्ञानी जैल सिंह को देश की बागडोर अपने हाथ में ले लेनी चाहिए थी. राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की क्या जल्दी थी. कुलदीप नैयर के मुताबिक बाद में जैल सिंह ने बताया था कि इसके जरिए वह गांधी परिवार के प्रति अपनी वफादारी साबित करना चाहते थे. सिख इस बात से नाराज थे कि राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा एक सिख भी निर्दोष सिखों की हत्या को नहीं रोक सका. वे इसे कभी नहीं भूल सकते. उस दौरान जब जाने-माने वकील राम जेठ मलानी गृहमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से मिलने पहुंचे और सिख दंगों की जानकारी दी तो उन्होंने अनमने भाव से कहा था- "देखते हैं."
इससे साफ पता चलता है कि कुछ तो ऐसी बात थी कि सब कुछ आंखों के सामने होते हुए भी गृहमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक असहाय बने बैठे थे. आखिर कौन ऐसा शख्स था, जिसने उनके हाथ बांध रखे थे? रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था- "अगर एक नवंबर की सुबह सेना लगा दी गई होती तो कम से कम दो हजार निर्दोष सिखों को मरने से बचाया जा सकता था."  मगर कमीशन ने इस बात पर चुप्पी साध ली कि वह कौन सी कुर्सी थी, जिसने ऐसा नहीं करने दिया था.आखिर दो दिन सेना को बुलाने में कैसे लग गए? 

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