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This Article is From Jun 23, 2014

प्राइम टाइम इंट्रो : डीयू के एफवाईयूपी पर विवाद

प्राइम टाइम इंट्रो : डीयू के एफवाईयूपी पर विवाद
नई दिल्ली:

नमस्कार... मैं रवीश कुमार! अक्सर कार कंपनियां अपने किसी मॉडल का हेड लाइट खराब निकलने पर बेची गईं तमाम कारें वापस मंगा लेती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए इंतजार कर रहे करीब पौने तीन लाख छात्रों को पता ही नहीं है कि अगले 24 घंटे में वे किस कोर्स में एडमिशन लेने वाले हैं। जो इस वक्त पढ़ रहे हैं उनकी भी यही हालत है। रातों रात कोर्स बदल लेने का करिश्मा हज़ारों साल से दुनिया में ज्ञान का दीपक जलाने वाला भारत नहीं करेगा तो कौन करेगा?

इस साल यूपीए टू नाम की जिस भारत सरकार ने डीयू के वाइस चांसलर दिनेश सिंह को शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय लेवल का योगदान देने के एवज में पद्म श्री दिया उसके चंद महीने बाद जब उसी भारत सरकार का राजनीतिक नाम एनडीए सरकार हुआ तो उसने दिनेश सिंह के अनेक उल्लेखनीय योगदानों में से एक डीयू के नए पाठक्रम के लागू करने के तौर तरीके को गैर कानूनी बता दिया है। इस कोर्स को आप एफवाईयूपी के संक्षिप्त नाम से पुकारते हैं।

तकनीकि रूप से यह निर्देश यूजीसी ने जारी किया है। मगर राजनीतिक रूप से यह बीजेपी के दिल्ली घोषणा पत्र का हिस्सा भी है कि सत्ता में आते ही एफवाईयूपी समाप्त कर दिया जाएगा। तो यूजीसी ने रविवार के दिन भी काम करते हुए डीयू के प्रिंसिपलों को चिट्ठी भेजी कि इस कोर्स को समाप्त कीजिए और चार साल की जगह तीन साल के पाठक्रम में एडमिशन लीजिए।

यूजीसी ने दिल्ली के अखबारों में भी नोटिस छाप दिया, ताकि आम जनता भी बाखबर हो सके। यूजीसी को अब जाकर पता चला है कि एफवाईयूपी नामक कोर्स राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुकूल नहीं है। साल 2013 में इसे लागू करने के लिए दिल्ली युनिवर्सिटी एक्ट 1922 का अनुकरण नहीं किया। जिसके तहत कोर्स के अध्यादेश को विजिटर यानी राष्ट्रपति की अनुमति अनिवार्य है। वहीं डीयू की दलील है कि राष्ट्रपति की अनुमति के लिए फाइल मानव संसाधन मंत्रालय को भेजी गई थी और नियम के अनुसार एक महीने तक राष्ट्रपति का जवाब नहीं आता है तो इसे अनुमति के रूप में मान लिया जाता है।

यूजीसी ने अपने आदेश में कहा है कि जो कॉलेज इसका पालन नहीं करेगा, उसे यूजीसी एक्ट 1956 के खिलाफ माना जाएगा। चार साल से तीन साल के पाठक्रम में जाने का क्या तौर तरीका होगा, इसके लिए यूजीसी ने एक स्टैंडिंग कमेटी बना दी है।

फैसला यही है कि मंगलवार को कट ऑफ लिस्ट नहीं आएगी। सोमवार को खालसा कालेज में दिल्ली विश्वविद्यालय के 66 कॉलेज के प्रिंसिपलों की बैठक हुई जिसमें यह फैसला किया गया। प्रिंसिपल बिरादरी का कहना है कि उनके सामने डीयू और यूजीसी के अलग-अलग आदेश हैं। आज मानव संसाधन मंत्रालय में यूजीसी के अधिकारियों के साथ बैठक हुई। मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार मानव संसाधन मंत्रालय दखल नहीं देगा। ये यूजीसी और डीयू के बीच का मामला है। इतनी तटस्थता और निर्विकार भाव से भारत में ही संस्थाएं काम कर सकती हैं।

खैर सोमवार को मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का इस बाबत छात्र हित में कोई बयान नहीं आया है। ट्वीटर पर भी नहीं है। एक बैठक यूजीसी की स्टैंडिंग कमेटी की भी हुई इसमे शिक्षक और छात्र संघ को भी शामिल किया गया। आरोप डीयू के वाइस चांसलर पर भी लगता रहा है कि उन्होंने जल्दबाजी में कोर्स लागू किया और दबाव में तमाम परिषदों में फैसले पर सहमति ली। लेकिन इन आरोपों का दिनेश सिंह हर स्तर पर जवाब देते रहे हैं। मगर सोमवार को पूरे दिन कुछ नहीं बोले। यह भी नहीं कहा कि वे यूजीसी के फैसले के खिलाफ अदालत में जाएंगे या विश्वविद्यालय को यूजीसी का फैसला मानना ही पड़ेगा।

गूगल के गर्त में एक पुरानी खबर पड़ी मिली है, जिससे साफ होता है कि यूजीसी पिछले साल तक इस कोर्स को लागू करने में डीयू की मदद कर रही थी।  दिनांक पांच जून और साल 2013 को द हिन्दू अखबार में संवाददाता आरती धर ने लिखा है कि यूजीसी ने डीयू में लागू हो रहे एफवाईयूपी कोर्स के लागू होने की प्रगति पर नजर रखने और सलाह देने के लिए पांच सदस्यों की एक सलाहकार समीति बनाई है, जिसके अध्यक्ष वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के पूर्व महानिदेशक एसके जोशी को बनाया गया है। समिति में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक मृणाल मिरी, इंडियन इस्टीटूट ऑफ अडवांस स्टडीज के पूर्व निदेशक एस परसुरमन जैसे लोग हैं। तब यूजीसी अध्यक्ष प्रोफेसर वेद प्रकाश ने नोटिफिकेशन जारी किया था कि यूजीसी की यह कमेटी डीयू के इस कदम को लागू करने में मदद करेगी और सलाह देगी।

इसी 16 जून को डीयू को लिखे खत में यूजीसी के निदेशक कहते हैं कि 25 फरवरी 2014 को इस सलाहकार समिति ने रिपोर्ट दी थी। इसके अनुसार डीयू ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अनुपालन नहीं किया है। 25 फरवरी को रिपोर्ट आती है और यूजीसी नाम की स्वायत्त संस्था मानव संसाधन मंत्रालय के किसी भी हस्तक्षेप से स्वतंत्र फैसला लेती है 20 जून को। साढ़े तीन महीने तक यूजीसी ने इस रिपोर्ट पर त्वरित कार्रवाई क्यों नहीं की? पर यह समिति तो कोर्स के लागू करने में मदद के लिए भी बनी थी। तो क्या जनता को यह भी पता चलेगा कि एफवाईयूपी को लागू कराने में एसके जोशी कमेटी ने क्या क्या मदद की।

एफवाईयूपी के लागू करने की प्रक्रिया को लेकर विवाद रहा है, मगर उसे हटाने का तरीका क्या नियमानुकुल है। कथित रूप से एक गलत को हटाने के लिए क्या घोषित रूप से एक और गलत का सहारा लिया जा सकता है। क्या वाकई डीयू की स्वायत्तता वाली दलील पुख्ता है। क्या यूजीसी के पास ऐसा करने का अधिकार है? 21वीं सदी के सोशल मीडिया वाले पारदर्शी भारत में कायदे से इन संस्थाओं के प्रमुखों को प्रेस के सामने आकर अपना पक्ष रखना चाहिए। यूजीसी या एसके जोशी कमेटी को यह साफ करना चाहिए कि नहीं कि एफवाईयूपी 10 प्लस टू प्लस थ्री के खिलाफ था तो पता चलने में जून 2013 से लेकर 25 फरवरी का इतना वक्त क्यों लगा? क्या तब यूजीसी सरकार के दबाव में थी या अब है। क्या छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए डीयू के विजिटर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को दखल नहीं देना चाहिए?

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