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This Article is From Mar 30, 2017

झारखंड : पेट भरने को चूहे-गिलहरी का शिकार करने के लिए मजबूर नौ साल की बच्ची

झारखंड : पेट भरने को चूहे-गिलहरी का शिकार करने के लिए मजबूर नौ साल की बच्ची
नौ साल की पिंकी पहाड़िन पेट भरने के लिए चूहों, गिलहरियों का शिकार करने के लिए मजबूर है.
Quick Reads
Summary is AI generated, newsroom reviewed.
भ्रष्टाचार, चोरी और निगरानी की कमी के चलते भूखे रह जाते हैं कई बच्चे
मिड-डे मिल का चावल गांव की बैठक के दौरान मिल बांटकर खा लिया जाता है
गांव के स्कूल में न तो शिक्षक जाते हैं, न भोजन पकता है, न पढ़ाई होती है
नई दिल्ली: नौ साल की पिंकी पहाड़िन झारखंड के साहेबगंज जिले के राजमहल पहाड़ियों की चोटी पर बसे चुआ पहाड़ में रहती है. उसके गांव में एक प्राइमरी स्कूल है जहां पांच साल की उम्र में उसका नाम दर्ज कराया गया था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उसे मिड डे मील उपलब्ध कराने के लिए उसके नाम से नियमित तौर पर पैसे निकाले जाते हैं. मिड-डे मील में चावल, हरी सब्जियां और दाल शामिल होते हैं. हकीकत में पिंकी को यह खाना नहीं मिलता. खाने के लिए उस चूहों, गिलहरियों और खरगोश का शिकार करना पड़ता है.

इस साल के बजट में देशभर के 11.5 लाख सरकारी स्कूलों के 10.03 करोड़ बच्चों के लिए 10,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा प्रति बच्चा प्रति दिन के हिसाब से मिड-डे मील के लिए 4 से 6 रुपये खर्च किए जाते हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर पिंकी को खाने के लिए जानवरों का शिकार क्यों करना पड़ रहा है?

साल 1995 में शुरू हुई मिड-डे मील योजना के दो लक्ष्य थे- बच्चों को स्कूल तक पहुंचाना और उन्हें पोषण युक्त आहार देना. प्राइमरी और मिडिल स्कूल के बच्चों को पोषित करने के समर्पित लक्ष्य (450-700 कैलोरी और 12-20 ग्राम प्रोटीन) को देखते हुए इस योजना का खुले दिल से स्वागत किया गया. जब केंद्र और राज्य सरकारों ने इस योजना के लिए फंडिंग शुरू की तो इस योजना से उम्मीदें और अधिक बढ़ गईं. केंद्र और राज्य सरकारों के बीच इस योजना की फंडिंग 60 और 40 प्रतिशत के अनुपात में विभाजित होती है. इस योजना के लिए देश के आठ नॉर्थ ईस्ट राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा) और तीन हिमालयी राज्यों (जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड) में यह अनुपात 90 और 10 प्रतिशत का है, वहीं केंद्र शासित प्रदेशों में अप्रैल 2015 से केंद्र 100 प्रतिशत फंड देता है. पर जमीनी हकीकत काफी अलग नजर आती है.

एनडीटीवी और वीडियो वॉलंटियर्स की टीम ने स्थिति का जायजा लेने के लिए साहेबगंज जिले के पहाड़ी इलाके में स्थित इस स्कूल का दौरा किया. यहां कक्षाएं खाली मिलीं. ग्रामीणों ने शिकायत की कि गांव को शहर से जोड़ने के लिए ढंग की सड़क नहीं है इस वजह से शिक्षक स्कूल आने से इनकार करते हैं. राजमहल की पहाड़ियों पर मुख्यतः सौरिया पहाड़िया आदिवासी समुदाय निवास करता है. यह इलाका पत्थर की खदानों से घिरा हुआ है. यहां तक पैदल पहुंचने में एक घंटे से ज्यादा वक्त लगता है.

पिछले साल सरकार द्वारा एसएमएस आधारित मॉनिटरिंग सिस्टम शुरू किया गया था ताकि इससे जुड़ी कमियों को दूर किया जा सके और योजना के संचालन में पारदर्शिता लाई जा सके. इसके तहत स्कूल में खाने के स्टॉक का हिसाब रखना, स्कूल द्वारा सरकार को अपडेट उपलब्ध कराना जैसे कि स्टॉक में कितना सामान है, कितना चावल आया, खाना बनवाने के लिए कितनी राशि आई आदि. यह अपडेट मिड-डे मील की वेबसाइट पर अपलोड किया जाना था.

रिपोर्टिंग टीम को पूर्व सूचना मिली थी कि शिक्षक केवल राष्ट्रीय त्योहारों पर स्कूल आते हैं- राष्ट्रगान गाते हैं, बच्चों को मिठाई खिलाते हैं, सबूत के लिए फोटो खिंचवाते हैं और उसे शिक्षा विभाग में जमा कर देते हैं. इसे ध्यान में रखते हुए टीम ने गणतंत्र दिवस के दिन स्कूल का निरीक्षण किया. जब शिक्षक से इस बारे में पूछा गया कि उनकी अटेंडेंस कम क्यों है तो उन्होंने दूरी, अपनी तनख्वाह और स्थानीय भाषा में बात करने में अपनी असमर्थता का हवाला दिया.

स्कूल के शिक्षक मोहम्मद फासी-उद-जमा ने कहा, “मैं हिंदी में बात करता हूं और वे पहाड़िया में बात करते हैं. मैं जो भी पढ़ाता हूं उसका बहुत ही कम वे समझ पाते हैं.” जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने इस बारे में अधिकारियों से बात की, तो वह कोई जवाब नहीं दे पाए. उन्होंने बताया कि मिड-डे मील के लिए नियमित रूप से पैसा आता है, जिसे वह राशन सामग्री के साथ ग्राम प्रधान को दे देते हैं. ग्राम प्रधान मेसा पहाड़िया ने कहा कि जब राशन आया था तब उन्हें इसकी जानकारी दी गई थी लेकिन न ही मिड-डे मील बनता है और न ही शिक्षक स्कूल आते हैं. उन्होंने कहा, “हमें चावल मिलता है, हम खिचड़ी खिला सकते हैं, पर बच्चे नहीं आते. अगर शिक्षक आएंगे तो बच्चे भी स्कूल आएंगे और खाएंगे.”

उन्होंने यह भी बताया कि वे चावल ग्रामीणों में बांटने के बजाए उसे गांव की बैठक के दौरान मिल बांटकर खा लेते हैं.  उन्होंने कहा, “ग्राम सेवक अपना काम करते हैं, अधिकारी भी करते हैं. पर गांव के शिक्षक अपना काम नहीं करते.”

टीम को पता चला कि भ्रष्टाचार, चोरी और निगरानी की कमी के चलते पिंकी पहाड़िन की तरह ही कई बच्चे भूखे रह जाते हैं. वे गंभीर कुपोषण और संक्रमण के शिकार हो जाते हैं. हालांकि साल 2015-16 का झारखंड का आर्थिक सर्वेक्षण इससे एकदम उलट है. इसके अनुसार राष्ट्रीय आंकड़ों की तुलना में राज्य के प्राथमिक और मिडिल स्कूलों के बच्चों को मुफ्त शिक्षा और मिड-डे मील की बेहतर सुविधाएं प्राप्त हैं.

सरकार ने घोषणा की है कि जुलाई से उन्हीं बच्चों को मिड-डे मील दिया जाएगा जिनके पास वैध आधार कार्ड है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि हो सकता है कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लग सके लेकिन इससे पिंकी जैसे बच्चों को कोई मदद नहीं मिलेगी.

ऐसी घटनाओं को देखते हुए सवाल उठते हैंः क्यों सरकार उन 10,000 करोड़ रुपयों का हिसाब नहीं रख रही जो वह इस महत्वाकांक्षी योजना पर खर्च कर रही है? और पिंकी पहाड़िन के लिए कौन जवाबदेह है जिसे वह पोषण नहीं मिल रहा जिसका वादा किया गया था?

नोटः एनडीटीवी और वीडियो वॉलंटियर्स की टीम ने एनडीटीवी के 'हर जिंदगी है जरूरी' अभियान के लिए झारखंड के साहेबगंज जिले का दौरा किया. सभी आंकड़े स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और 'सेव द चिल्ड्रन' से लिए गए हैं. वीडियो वालंटियर्स एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है जो पिछड़े समुदायों को अपनी समस्याएं रिपोर्ट करने के लिए सशक्त करती है.

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