वाराणसी : वाराणसी के अस्सी घाट पर एक कथाकार इन दिनों कौतूहल का विषय बने हुए हैं। इस कौतूहल का विषय है उनका मुस्लिम होना क्योंकि वो पूरे हिन्दू संतों के लिबास में रामनामी ओढ़ कर गाय की महत्ता और उसकी रक्षा के लिये गो कथा कर रहे हैं।
उनकी संस्कृत निष्ठ शुद्ध हिन्दी भाषा और हिन्दू धार्मिक वैदिक ग्रंथों पर उनकी गहराई के साथ पकड़ लोगों को अचम्भित कर रही है। गेरुआ वस्त्र, माथे पर रोली का टीका, सामने नारियल, चुनरी, गुरु को भगवान समझकर आरती और गो कशी के विरोध में शास्त्रीय परम्परा के अनुसार कथा करते ये शख्स एक नज़र में कोई हिन्दू महात्मा नज़र आते हैं।
पर ये फैज़ खान हैं जो हिन्दू और मुस्लिम ग्रंथों के हिसाब से गाय की महत्ता और उसकी उपयोगिता पर गऊ कथा कर रहे हैं। कथाकार मो. फैज़ खान कहते हैं कि इस्लाम में गाय के दूध को शिफ़ा कहा गया है, गऊ मांस को बिमारी कहा गया है। शूराय हज़ कुरआन शरीफ़ में आयत 37 में कहा गया है कि नहीं पहुंचता अल्लाह के पास रक्त और मांस, खुदा के पास पहुंचता है तुम्हारा त्याग। इस्लाम ये भी बताता है कि जिस देश में रहो उस देश की तहजीब का सम्मान करो और गाय का सम्मान करना ही हिन्दुस्तान की तहजीब का सम्मान करना है।
मो. फैज़ खान कथा शुरू करने से पहले गाय का पूजन करते हैं, फिर गंगा का पूजन कर कथा करने बैठ जाते हैं। अपनी वेषभूषा से वो ये भी बताते हैं कि गेरुवा वस्त्र, माथे पर टीका और रामनामी हमें हिन्दू बना देता है और जैसे ही मैं इस पर टोपी पहन लेता हूं तो मुस्लिम नज़र आने लगता हूं, यानी पहनावे से हमारा नज़रिया बदल जाता है। इसीलिए खुदा ने हमें बिना कपड़े के भेजा। कहने का मतलब ये कि हम सब एक हैं और अपनी समझ के हिसाब से अपने अपने खुदा को अपने तरीके से याद करते हैं।
पर समाज के ठेकेदार हमें अपने फायदे के लिये आपस में बांटते हैं। वो कहते हैं कि राजनेता धर्म के आधार पर छुद्र राजनीति करते हैं, छोटी राजनीति करते हैं वो कभी नहीं चाहते कि गऊ आंदोलन सर्वसमाज के बीच सर्व धर्मों के बीच व्यापक हो, प्रचारित हो। क्योंकि वो भी उनकी वोट बैंक की राजनीति का एक हिस्सा है कि गाय के नाम पर लोग लड़ते रहे कोई गऊ रक्षा के नाम पर वोट हासिल करता रहे, कोई गऊ ह्त्या कर तथाकथित धर्म निरपेक्षता पर राजनीती करता रहे।
मो. फैज़ खान छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के रहने वाले हैं। पीएचडी करने के बाद शासकीय महाविद्यालय सूरजपुर छत्तीसगढ़ में राजनीती विभाग में अध्यापक हो गए। वहीं उन्होंने लेखक गिरीश पंकज के एक उपन्यास एक गाय की आत्म कथा पढ़ी और ढाई साल पहले नौकरी छोड़कर देश में गऊ कथा करने निकल पड़े। वो अब तक सभी धर्मों के मानाने वालों के बीच कथा कर चुके हैं।
कई जगह इन्हें विरोध भी झेलना पड़ा पर ये रुके नहीं। जिसका असर भी दिखाई पड़ रहा है। कथा सुनने वाले चेतन उपाध्याय की मानें तो फैज़ खान जी जिस तरह कोशिश कर रहे हैं और जिस तरह से अन्य लोगों को प्रेरित कर रहे हैं, तो रोशनी से रोशनी जलती जाएगी और बहुत बड़ी क्रान्ति गऊ रक्षा हेतु इस देश में आएगी।
गाय धर्म या मज़हब देख कर दूध नहीं देती हम और आप धर्म और मज़हब की निगाह से उसे देखते हैं जिसके विवाद में बेचारी गाय फंसती है, लेकिन फैज़ खान के इस तरह का प्रयास ऐसे विवाद को रोकने में एक बड़ा क़दम हो सकता है।
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