प्रतीकात्मक फोटो
हैदराबाद:
दक्षिण भारत में इस्लामी विद्वानों के एक समूह ने मुसलमानों से गाय और बैल की कुर्बानी से बचने की अपील की है। उन्होंने कहा है कि समुदाय के व्यापक हित में इससे बचा जाना चाहिए। आने वाले ईद-उल-अजहा त्योहार के मद्देनजर यह अपील काफी महत्वपूर्ण है।
विद्वानों ने कहा है कि मुसलमानों को आज के माहौल को देखते हुए व्यावहारिकता दिखानी चाहिए। उन्हें गाय-बैल की जगह उन जानवरों की कुर्बानी देनी चाहिए जिनकी शरीयत ने इजाजत दी है। उन्होंने कहा कि इससे शांति बनाए रखने में मदद मिलेगी और इस्लाम का संदेश गैर मुस्लिमों तक पहुंचाने में कोई बाधा भी नहीं आएगी।
इस्लाम के सभी मतों से संबंध रखने वाले उलेमा के इस समूह ने अपने इस पैगाम को दक्षिण भारत के लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया, बैठकों, पर्चों और जुमे की नमाज के समय दिए जाने वाले संदेशों का सहारा लिया है।
उत्तम नहीं होती गाय की कुर्बानी
इस अभियान की अगुआई करने वाले इस्लामी विद्वान सैयद हुसैन मदनी ने कहा, 'हमारा संदेश है कि मुसलमानों को कानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। शांति बनाए रखने के लिए गाय और बैल की कुर्बानी से बचना चाहिए। इससे इस्लाम का संदेश दूसरों तक पहुंचाने में भी आसानी होगी।' उन्होंने याद दिलाया कि ईद उल अजहा पर पैगंबर हजरत मोहम्मद ने दो भेड़ों की कुर्बानी दी थी। उन्होंने कहा, 'पैगंबर हमारे सर्वश्रेष्ठ आदर्श हैं। हमें उनका अनुसरण करना चाहिए। गाय की कुर्बानी की इजाजत है, लेकिन यह 'अफजल' (उत्तम) नहीं है।'
हर साल ईद पर हजारों भैंस-बैल शहर में कुर्बानी के लिए खरीदे जाते हैं। एक बड़े जानवर को कुर्बान करने में सात लोग हिस्सा ले सकते हैं। इस तरह से यह सस्ता पड़ता है। सभी के हिस्से दो, ढाई या तीन हजार रुपये का खर्च आता है। यही अगर बकरा या भेड़ हो तो कम से कम छह हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं।
विद्वानों का कहना है कि कुर्बानी अपने आप में फर्ज (अनिवार्य) नहीं है। यह सुन्नत (पैगंबर द्वारा किया जाने वाला काम) है। मदनी ने कहा, 'अल्लाह किसी पर उसकी हैसियत से ज्यादा बोझ नहीं डालता। इससे (गाय की कुर्बानी से) बचने की पूरी गुंजाइश मौजूद है। खासकर आज के माहौल में जब इस पर कानूनी रोक भी है और सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने का खतरा भी है।'
थोड़े फायदे को छोड़कर फसाद से बचना ज्यादा फायदेमंद
कुर्बानी के गोश्त का हिस्सा गरीबों में बांटना अनिवार्य होता है। इस पर मदनी ने कहा कि गरीबों की मदद करने के कई और तरीके भी हैं। उलेमा ने माना कि गाय-बैल के मांस की बिक्री से कई लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है, लेकिन उन्होंने साथ ही जोड़ा कि समुदाय के व्यापक हित इससे कहीं अधिक मायने रखते हैं। मदनी ने कहा, 'फसाद से बचने के उपाय उससे कहीं बेहतर होते हैं, जिससे हमें थोड़ा बहुत फायदा होता हो।'
नेताओं और कानून के जानकारों का भी समर्थन
इस अभियान का समर्थन करने वालों में मजलिस-ए-तामीर-ए-मिल्लत के अध्यक्ष और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सहायक सचिव मोहम्मद अब्दुल रहीम कुरैशी, मौलाना खालिद सैफुल्ला रहमानी, मौलाना अनीसुर्रहमान आजमी, मौलाना मुफ्ती नसीम अहमद अशरफी और मौलाना मुफ्ती महबूब शरीफ निजामी शामिल हैं। इस अभियान को मुस्लिम राजनेताओं और कानून के जानकारों का भी समर्थन हासिल है।
विद्वानों ने कहा है कि मुसलमानों को आज के माहौल को देखते हुए व्यावहारिकता दिखानी चाहिए। उन्हें गाय-बैल की जगह उन जानवरों की कुर्बानी देनी चाहिए जिनकी शरीयत ने इजाजत दी है। उन्होंने कहा कि इससे शांति बनाए रखने में मदद मिलेगी और इस्लाम का संदेश गैर मुस्लिमों तक पहुंचाने में कोई बाधा भी नहीं आएगी।
इस्लाम के सभी मतों से संबंध रखने वाले उलेमा के इस समूह ने अपने इस पैगाम को दक्षिण भारत के लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया, बैठकों, पर्चों और जुमे की नमाज के समय दिए जाने वाले संदेशों का सहारा लिया है।
उत्तम नहीं होती गाय की कुर्बानी
इस अभियान की अगुआई करने वाले इस्लामी विद्वान सैयद हुसैन मदनी ने कहा, 'हमारा संदेश है कि मुसलमानों को कानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। शांति बनाए रखने के लिए गाय और बैल की कुर्बानी से बचना चाहिए। इससे इस्लाम का संदेश दूसरों तक पहुंचाने में भी आसानी होगी।' उन्होंने याद दिलाया कि ईद उल अजहा पर पैगंबर हजरत मोहम्मद ने दो भेड़ों की कुर्बानी दी थी। उन्होंने कहा, 'पैगंबर हमारे सर्वश्रेष्ठ आदर्श हैं। हमें उनका अनुसरण करना चाहिए। गाय की कुर्बानी की इजाजत है, लेकिन यह 'अफजल' (उत्तम) नहीं है।'
हर साल ईद पर हजारों भैंस-बैल शहर में कुर्बानी के लिए खरीदे जाते हैं। एक बड़े जानवर को कुर्बान करने में सात लोग हिस्सा ले सकते हैं। इस तरह से यह सस्ता पड़ता है। सभी के हिस्से दो, ढाई या तीन हजार रुपये का खर्च आता है। यही अगर बकरा या भेड़ हो तो कम से कम छह हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं।
विद्वानों का कहना है कि कुर्बानी अपने आप में फर्ज (अनिवार्य) नहीं है। यह सुन्नत (पैगंबर द्वारा किया जाने वाला काम) है। मदनी ने कहा, 'अल्लाह किसी पर उसकी हैसियत से ज्यादा बोझ नहीं डालता। इससे (गाय की कुर्बानी से) बचने की पूरी गुंजाइश मौजूद है। खासकर आज के माहौल में जब इस पर कानूनी रोक भी है और सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने का खतरा भी है।'
थोड़े फायदे को छोड़कर फसाद से बचना ज्यादा फायदेमंद
कुर्बानी के गोश्त का हिस्सा गरीबों में बांटना अनिवार्य होता है। इस पर मदनी ने कहा कि गरीबों की मदद करने के कई और तरीके भी हैं। उलेमा ने माना कि गाय-बैल के मांस की बिक्री से कई लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है, लेकिन उन्होंने साथ ही जोड़ा कि समुदाय के व्यापक हित इससे कहीं अधिक मायने रखते हैं। मदनी ने कहा, 'फसाद से बचने के उपाय उससे कहीं बेहतर होते हैं, जिससे हमें थोड़ा बहुत फायदा होता हो।'
नेताओं और कानून के जानकारों का भी समर्थन
इस अभियान का समर्थन करने वालों में मजलिस-ए-तामीर-ए-मिल्लत के अध्यक्ष और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सहायक सचिव मोहम्मद अब्दुल रहीम कुरैशी, मौलाना खालिद सैफुल्ला रहमानी, मौलाना अनीसुर्रहमान आजमी, मौलाना मुफ्ती नसीम अहमद अशरफी और मौलाना मुफ्ती महबूब शरीफ निजामी शामिल हैं। इस अभियान को मुस्लिम राजनेताओं और कानून के जानकारों का भी समर्थन हासिल है।
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