निर्माण विहार या संसद भवन जैसे लुटियन जोन यानि वीवीआईपी इलाकों में अगर आपको कोई हाथ में गुलेल लिए और अजीब आवाज निकालता कोई इंसान दिखे तो आप समझ जाइगा कि ये लंगूरों की भाषा के जानकार प्रमोद की टीम होगी। हाल में बंदर संसद भवन में घुस गया और कई सांसदों ने बंदरों के इस उत्पात पर जब सवाल उठाया तो मंत्री जी तक को सफाई देनी पड़ी।
प्रमोद जैसे चालीस लोग कभी लंगूरों को प्रशिक्षित करके लुटियनजोन की इमारतों में दाखिल होने वाले बंदरों को भगाते थे। लेकिन लंगूरों को जब से संरक्षित जानवर घोषित किया गया है, तबसे प्रमोद जैसों को ही लंगूरों के तौर-तरीके सीखकर बंदर भगाने पड़ रहे हैं।
इसी के चलते प्रमोद बंदरों के पीछे भाग रहे हैं और इनके पीछे देशी और विदेशी मीडिया भाग रही है। रशियन चैनेल वन की तात्याना कहती है कि विदेशी अखबारों में खबरे छपने के बाद उन्होंने भी इस पर खबर बनाने की सोची। सामान्य तौर पर इस तरह का दिलचस्प तरीका शायद यहीं अपनाया जा सकता है।
बंदर आजाद, विभाग पर कानूनी गिरफ्त
लुटियन जोन के ज्यादातर इलाकों में आम लोगों का आना जाना मना है, लेकिन यहां आपको ज्यादातर जगहों पर बंदर बेखौफ टहलते, सुस्ताते और खाना झपटते मिल जाएंगे। ये इलाका नई दिल्ली नगर निगम में आता है। यहां के डिप्टी डायरेक्टर अशोक कुमार कहते हैं कि इन बंदरों के वैक्सीनेशन पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी है।
वह कहते हैं, 'एक बार नगर निगम के लोग इन बंदरों को पिंजरे में पकड़कर ले जा रहे थे। इन बंदरों को भाटी माइंस में छोड़ना था, लेकिन जानवर संरक्षण के कार्यकर्ताओं ने हमारे लोगों पर ही मामला दर्ज करवा दिया। लंगूरों के जरिए भी हम इनको नहीं भगा सकते हैं..तब आखिर क्या उपाय हमारे पास बचते हैं। नगर निगम, पर्यायवरण और फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के बीच कई बार बैठकें हो चुकी है। लेकिन जब कोई उपाय नहीं सूझा तब हमने उन्हीं 40 लोगों का सहारा लेने की कोशिश की जिनके लंगूर बंदरों के जरिए हम पहले बंदरों को भगाते थे।'
साढ़े सात हजार रुपये में बनते हैं बंदर
लुटियन जोन में करीब 3 हज़ार से ज्यादा बंदर है। इन्हें भगाने के लिए एनडीएमसी साढ़े तीन लाख रुपए महीना खर्च करता है। बंदरों को भगाने के लिए लंगूर बंदर जैसी आवाज निकालने वाले महेंद्र बताते हैं कि उन्हें हर महीना साढ़े सात हज़ार रुपये मिलते हैं। दरअसल एनडीएमसी ने बंदर भगाने का ठेका एक ग्रुप को साढ़े तीन लाख रुपए में दे रखा है।
इनके सामने दिक्कत ये भी आती है कि बंदर तो पेड़ों के जरिए आराम से किसी भी दफ्तर में घुस जाते हैं। लेकिन जब इन्हें उन बंदरों को भगाने जाना पड़ता है तो इनके पास को लेकर खासी परेशानी होती है। इसके साथ ही एक तरफ ऐसे भी लोग है जो इन बंदरों के लिए रोजाना खाने का सामान लेकर लुटियन जोन पहुंचते हैं।
अब इन जानवरों के संरक्षण के हिमायती और बंदरों से परेशान लोगों को तय करना पड़ेगा कि इंसान को जानवर बनाकर इस परेशानी से निजात पाना है या जानवरों को इनके सामान्य आवास जंगलों में छोड़कर इस परेशानी से पार पाना है।
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