पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट का सूपड़ा साफ होने के बीच गठबंधन को अप्रत्याशित तौर पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से सहानुभूति मिली है. लेफ्ट के शून्य पर रहने को लेकर ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने कहा, मैं राजनीतिक तौर पर उनका विरोध करती हूं, लेकिन उन्हें शून्य पर नहीं देखना चाहती. यह बयान ममता बनर्जी की ओर से आना हैरानी भरा है, क्योंकि ममता बनर्जी ने ही 2011 में लेफ्ट फ्रंट का 34 साल पुराना दुर्ग बंगाल में ढहा दिया था. ममता बनर्जी ने कहा कि अगर BJPकी जगह लेफ्ट फ्रंट (Left Front) ने सीटें जीती होतीं तो बेहतर होता.
ममता ने साफ संकेत दिया कि वे विधानसभा में विपक्षी बेंचों पर बीजेपी की जगह लेफ्ट को देखना ज्यादा पसंद करेंगी. मुख्यमंत्री ने कटाक्ष मारते हुए कहा, बीजेपी को समर्थन देने के अतिउत्साह में उन्होंने अपने आपको बेच दिया और साइनबोर्ड बन गए. उन्हें इस बारे में सोचना पड़ेगा. आजादी के बाद यह पहली बार है कि बंगाल विधानसभा (Bengal assembly) की 294 सीटों में लेफ्ट या कांग्रेस को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली है. लेफ्ट और कांग्रेस की जगह बीजेपी ने ले ली है और वह तेजी से उभर रही है. रविवार रात को घोषित नतीजों में ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस ने 213 सीटें जीती हैं, जबकि 2016 में उसकी 211 सीटें थीं. बीजेपी को 77 सीटें मिली हैं, जबकि पिछले चुनाव में उसके पास महज 3 सीटें ही थीं.
लेफ्ट के नेताओं ने पार्टी के प्रदर्शन को विनाशनकारी बताया है. कई नेताओं ने माना है कि इस्लामिक धर्मगुरु अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन पार्टी की बड़ी भूल थी. बंगाल में बीजेपी की जीत की संभावना को देखते हुए मु्स्लिमों ने एकतरफा तरीके से ममता बनर्जी की पार्टी के पक्ष में वोट किया. यहां तक कि मालदा और मुर्शिदाबाद में भी उन्हें समर्थन नहीं मिला जो कांग्रेस (Congress) का गढ़ माना जाता है. कई लेफ्ट नेताओं ने माना है कि बंगाल में एंटी बीजेपी वोट एकमुश्त तौर पर तृणमूल कांग्रेस (Trinamool Congress) के पक्ष में जाता दिखाई दिया.
लेफ्ट नेताओं का कहना है कि बीजेपी ने यह पेश किया कि तृणमूल का विकल्प वही बन सकती है और उसने इसका फायदा उठाया. लिहाजा टीएमसी ने भी इसका फायदा उठाया और ऐसा प्रोजेक्ट किया कि वो ही बीजेपी को रोक सकती है. रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के नेता मनोज भट्टाचार्य ने कहा कि एक तानाशाह ने दूसरे तानाशाह पर जीत दर्ज की. आम जनता बीजेपी को रोकना चाह रही थी और उसे सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ही विकल्प के तौर पर दिखाई दिया.
अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन का कोई वांछित परिणाम नहीं निकला. हालांकि पार्टी के एक धड़े का कहना है कि 2016 में किया गया कांग्रेस के साथ गठबंधन भी एक वजह है, क्योंकि दोनों पार्टियों का केंद्रीय नेतृत्व इसके खिलाफ था. दोनों पार्टियां लंबे समय से एक-दूसरे का पुरजोर विरोध करती रही हैं और केरल में भी ऐसा ही है.
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