
नई दिल्ली:
"हफ्ते में तीन बार डायलिसिस होना है, 1 अगस्त से बंद है, मैं मर जाउंगा।" इस आवाज में दर्द, शिकायत और निराशा है। किडनी का मरीज होने के नाते रोहिणी के 51 साल के दिलीप कुमार को हफ्ते में तीन बार डायलिसिस कराना होता है, लेकिन ईएसआईसी यानी एप्लॉयज स्टेट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन ने अब यह कहते हुए डायलिसिस की सुविधा देने से इंकार कर दिया है कि मर्ज पुराना है, जबकि ईएसआईसी का कार्ड नया।
दिलीप बताते हैं कि तीन साल से वही ईएसआईसी उनका डायलिसिस करता आ रहा था, लेकिन अब 1 अगस्त से मना कर रहा है। दिलीप की पहली डायलिसिस 2012 में हुआ था जबकि बेटे का कार्ड 2010 में बना है। कर्मचारियों के कल्याण के लिए बनी ईएसआईसी भी यहां अब वकालत पर उतर गई और दलील दे रही है कि एम्स में किडनी की बीमारी 15 साल पहले ही पकड़ में आ चुकी थी और दवाएं भी चल रही थीं।
ईएसआईसी के मेडिकल कमिश्नर डॉ एसआर चौहान दलील दे रहे हैं कि जुलाई 2014 में नियम में बदलाव किया गया कि किडनी और कैंसर अगर पुराना मर्ज है और कार्ड नया तो इलाज इएसआईसी नहीं करेगी।
ईएसआईसी के नए कायदे की शिकार रोहिणी की 38 साल की सोना देवी भी हैं। पति का कार्ड अक्टूबर, 2013 का है, जबकि डायलिसिस अगले साल यानी 2014 से शुरू हुआ, वह भी हफ्ते में दो बार। सोना के पति प्रमोद फैक्ट्री में काम करते हैं और कहते हैं कि कोई चारा नहीं। इलाज नहीं करा सकते क्योंकि महीने का खर्च 30 हजार का है। अब तो पत्नी नए नियम की भेंट चढ़ जाएगी, मर जाएगी।
ईएसआईसी की एक और दलील फर्जीवाड़े को लेकर भी है। हालांकि जानकारों के मुताबिक फर्जी मामलों की आड़ में दूसरे मरीजों को सुविधा से महरूम नहीं किया जा सकता। साथ ही यह सवाल भी है कि कोई कर्मचारी कार्ड तो बनवा सकता है पर कोई बीमारी कब शुरू हुई, इसका पता कैसे लगेगा? मुद्दा सिर्फ नए नियम का नहीं, मसला सांसों की डोर से जुड़ा है और सवाल जिंदगी और मौत का है। इस छोटे से बदलाव को लेकर एक बड़ा तबका मौत के कगार पर है, जो लाचार है।
दिलीप बताते हैं कि तीन साल से वही ईएसआईसी उनका डायलिसिस करता आ रहा था, लेकिन अब 1 अगस्त से मना कर रहा है। दिलीप की पहली डायलिसिस 2012 में हुआ था जबकि बेटे का कार्ड 2010 में बना है। कर्मचारियों के कल्याण के लिए बनी ईएसआईसी भी यहां अब वकालत पर उतर गई और दलील दे रही है कि एम्स में किडनी की बीमारी 15 साल पहले ही पकड़ में आ चुकी थी और दवाएं भी चल रही थीं।
ईएसआईसी के मेडिकल कमिश्नर डॉ एसआर चौहान दलील दे रहे हैं कि जुलाई 2014 में नियम में बदलाव किया गया कि किडनी और कैंसर अगर पुराना मर्ज है और कार्ड नया तो इलाज इएसआईसी नहीं करेगी।
ईएसआईसी के नए कायदे की शिकार रोहिणी की 38 साल की सोना देवी भी हैं। पति का कार्ड अक्टूबर, 2013 का है, जबकि डायलिसिस अगले साल यानी 2014 से शुरू हुआ, वह भी हफ्ते में दो बार। सोना के पति प्रमोद फैक्ट्री में काम करते हैं और कहते हैं कि कोई चारा नहीं। इलाज नहीं करा सकते क्योंकि महीने का खर्च 30 हजार का है। अब तो पत्नी नए नियम की भेंट चढ़ जाएगी, मर जाएगी।
ईएसआईसी की एक और दलील फर्जीवाड़े को लेकर भी है। हालांकि जानकारों के मुताबिक फर्जी मामलों की आड़ में दूसरे मरीजों को सुविधा से महरूम नहीं किया जा सकता। साथ ही यह सवाल भी है कि कोई कर्मचारी कार्ड तो बनवा सकता है पर कोई बीमारी कब शुरू हुई, इसका पता कैसे लगेगा? मुद्दा सिर्फ नए नियम का नहीं, मसला सांसों की डोर से जुड़ा है और सवाल जिंदगी और मौत का है। इस छोटे से बदलाव को लेकर एक बड़ा तबका मौत के कगार पर है, जो लाचार है।