
फाइल फोटो
नई दिल्ली:
जिन परिस्थितियों में सुकमा में सीआरपीएफ जवानों पर माओवादी हमला हुआ उसको लेकर कई सवाल उठ रहे हैं. सबसे बड़ा सवाल ये है कि आख़िर माओवादियों को गांववालों का ऐसा समर्थन कैसे मिल गया कि वो इतनी बड़ी तादाद में छुप कर इकट्ठा हो सके. इस सवाल का जवाब नीति आयोग के एक बड़े अफ़सर के पास है. "सुकमा जैसे नक्सल-प्रभावित इलाकों में स्थानीय ट्राइबल्स को कृषि और जंगल की ज़मीन से बड़े स्तर पर बेदखल किया गया है, जिसकी वजह से नक्सलियों को वहां पनाह मिल रही है." नीति आयोग के स्पेशल सेल ऑन लैंड पॉलिसी के चेयरमैन टी हक ने एनडीटीवी से बातचीत में ये बात कही. सुकमा की समस्या काफी हद तक इलाके के किसानों की बेदखली से जुड़ी है. टी हक़ का मानना है कि इसी वजह से माओवादी यहां अपनी पकड़ बनाने में कामयाब रहे.
हक एनडीटीवी से कहते हैं, "नक्सली लोगों को बहकाते हैं कि सरकार ने उनकी ज़मीन छीन ली है. स्थानीय लोगों की हमदर्दी नक्सलियों को मिलती है. जब तक स्थानीय लोगों का लिंक नक्सलियों से खत्म नहीं होगा, इलाके में विकास संभव नहीं होगा." दरअसल दशकों से सुकमा की अनदेखी की ये दास्तान आंकड़े ख़ुद बयान करते हैं. दशकों की अनदेखी का नतीजा सेहत और शिक्षा जैसे हलकों में बुरी तरह दिखाई पड़ता है.
सुकमा ज़िला प्रशासन के पास मौजूद आंकड़ों के मुताबिक ज़िले के 373 गांवों में बस दो कॉलेज हैं और सिर्फ 19 हाई स्कूल हैं. यहां भी शिक्षकों की तादाद कम है, जो नियुक्त होते हैं, वो भी नहीं आते. सरकार मानती है कि सड़क बनेगी तो माओवादियों पर काबू पाना आसान होगा. लेकिन सड़क बनने का काम इतना धीमा है कि मज़दूरों की हिफ़ाज़त में लगी सीआरपीएफ की टीमें परेशान हैं और हमले झेल रही हैं.
नीति आयोग के हक़ साहब कहते हैं कि सुरक्षा का सवाल जितना अहम है, विकास का सवाल भी उतना ही ज़रूरी है. सुकमा की असली चुनौती यही है. नक्सली जिस विकास को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, सरकार उसमें कैसे गांववालों को साझेदार बनाए.
हक एनडीटीवी से कहते हैं, "नक्सली लोगों को बहकाते हैं कि सरकार ने उनकी ज़मीन छीन ली है. स्थानीय लोगों की हमदर्दी नक्सलियों को मिलती है. जब तक स्थानीय लोगों का लिंक नक्सलियों से खत्म नहीं होगा, इलाके में विकास संभव नहीं होगा." दरअसल दशकों से सुकमा की अनदेखी की ये दास्तान आंकड़े ख़ुद बयान करते हैं. दशकों की अनदेखी का नतीजा सेहत और शिक्षा जैसे हलकों में बुरी तरह दिखाई पड़ता है.
सुकमा ज़िला प्रशासन के पास मौजूद आंकड़ों के मुताबिक ज़िले के 373 गांवों में बस दो कॉलेज हैं और सिर्फ 19 हाई स्कूल हैं. यहां भी शिक्षकों की तादाद कम है, जो नियुक्त होते हैं, वो भी नहीं आते. सरकार मानती है कि सड़क बनेगी तो माओवादियों पर काबू पाना आसान होगा. लेकिन सड़क बनने का काम इतना धीमा है कि मज़दूरों की हिफ़ाज़त में लगी सीआरपीएफ की टीमें परेशान हैं और हमले झेल रही हैं.
नीति आयोग के हक़ साहब कहते हैं कि सुरक्षा का सवाल जितना अहम है, विकास का सवाल भी उतना ही ज़रूरी है. सुकमा की असली चुनौती यही है. नक्सली जिस विकास को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, सरकार उसमें कैसे गांववालों को साझेदार बनाए.
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