पाकिस्तान दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में कश्मीरी अलगाववादी नेताओं की शिरकत पर बवाल मचा हुआ है। मुफ़्ती मोहम्मद सईद की सरकार आने के बाद जिस अलगाववादी नेता मसर्रत आलम की रिहाई पर हंगामा मचा, उसे भी न्योते जाने की ख़बर ने मानो आग में और घी का काम किया है। यह अलग बात है कि वह व्यक्तिगत वजहों से दिल्ली नहीं आ रहे और इसलिए शाम के जलसे में शामिल नहीं हो रहे।
ऐसा नहीं है कि कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को कोई पहली बार निमंत्रित किया गया हो। उन्हें हर बार इस मौक़े पर निमंत्रित किया जाता है। यहां तक की मसर्रत आलम को भी हर साल निमंत्रण भेजा जाता रहा है। पाकिस्तान हाई कमीशन के एक राजनयिक के मुताबिक, मसर्रत आलम को जब 2010 में जेल हुई उसके बाद उन्हें निमंत्रण कार्ड जेल में ही भेजा जाता था। तब मसर्रत आलम को इतना कोई नहीं जानता था जितना उनकी रिहाई के बाद लोगों ने जाना है।
इस बार हुर्रियत नेताओं के निमंत्रण को लेकर इतना बवाल इसलिए है, क्योकिं मोदी सरकार बनने के बाद जब विदेश सचिव स्तर की पहली बातचीत इस्लामाबाद में होनी थी, उसके ठीक पहले पाकिस्तान उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने हुर्रियत नेताओं से दिल्ली में मुलाक़ात और बात की।
विदेश मंत्रालय ने इस पर गहरी आपत्ति जताते हुए विदेश सचिव स्तर की बातचीत रद्द कर दी। भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की प्रक्रिया एक बार फिर पटरी से उतर गई। क्रिकेट वर्ल्ड कप शुरू होने के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश सचिव को सार्क यात्रा पर भेजा और इस सिलसिले में एस जयशंकर ने इस्लामाबाद का भी दौरा किया। इससे बातचीत फिर पटरी लौटने की उम्मीद बंधी है।
पाकिस्तान उच्चायुक्त और कश्मीरी अलगाववादी नेताओं की मुलाक़ात पर मोदी सरकार की पिछली आपत्ति के बाद ही मीडिया ऐसी हर मुलाक़ात को ख़ुर्दबीन लेकर देख रहा है। जबकि पिछली किसी भी सरकार ने इस मुलाक़ातों पर कभी कोई औपचारिक आपत्ति नहीं जताई।
यह अलग बात है कि इस तरह की मुलाक़ात भारत को अच्छा नहीं लगता, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाला देश इसमें कभी अड़ंगा नहीं डालता है। जब भी पाकिस्तान से वहां के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या किसी दूसरे राजनेताओं का भारत दौरा होता है, वो कश्मीरी अलगाववादियों से भी मिल कर जाते हैं।
आज भी प्रतिक्रिया देते हुए विदेश मंत्रालय ने इस मुलाक़ात पर कोई सीधा सवाल नहीं उठाया है, बल्कि यह कहा कि कश्मीर समस्या के समाधान में हुर्रियत या कोई तीसरा पक्ष नहीं यह भारत और पाकिस्तान के बीच का मसला है। इसे शिमला और आगरा समझौते के तहत ही निपटाया जा सकता है, जिसमें यूएन समेत किसी तीसरे पक्ष के दख़ल को पूरी तरह नकार दिया गया था।
विपक्षी पार्टी के तौर पर बीजेपी यूपीए सरकार को पाकिस्तान, आतंकवाद और अलगाववाद के मुद्दे पर ख़ूब घेरती रही है। अब उसकी ख़ुद की सरकार है। ऐसे में बेशक मोदी सरकार ने पाक उच्चायुक्त-हुर्रियत की पिछले साल हुई मुलाक़ात पर आपत्ति जता कर कठोर संदेश देने की कोशिश की हो, लेकिन इसका कोई फायदा या नतीजा निकलता नज़र नहीं आया। ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि आज के जलसे में हुर्रियत के शामिल होने से बातचीत की आगामी संभावनाओं पर कोई रोड़ा नहीं अटकेगा।
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