
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब विदेशी सचिवों या प्रतिनिधियों से हिन्दी में बात किया करेंगे। हिन्दी में बात करने के लिए दुभाषिये का इस्तेमाल होगा, लेकिन इस खबर को पढ़ते ही कोई राय बनाने की बजाय थोड़ा इत्मीनान रख कर सभी पहलुओं पर नजर डाल लेनी चाहिए। शायद इसके बाद कोई राय बनाने की गुंजाइश ही ना रहे।
प्रधानमंत्री को अंग्रेजी से कोफ्त नहीं है। दिक्कत इतनी है कि वह अंग्रेजी बोलने में सहज महसूस नहीं करते। उन्हें अंग्रेजी ठीक-ठाक समझ आ जाती है। अंग्रेजी की प्रासंगिकता वह भली-भांति समझते हैं और इसलिए गुजरात में भी युवाओं को अंग्रेजी सिखाने के लिए SCOPE नामक पहल कर चुके हैं।
2007 में शुरू किया गया SCOPE अब तक 3,00,000 युवाओं को अंग्रेजी में ट्रेनिंग दे चुका है। टीम मोदी ने इसे भी गर्व से जोड़कर ही प्रचारित किया है। स्त्रोत नरेन्द्र मोदी की वेबसाइट है। गुजरात समिट में भी श्री मोदी अंग्रेजी में भाषण देते हुए दिखे और अपने मंत्रियों से भी अंग्रेजी में ही भाषण देने को कहा। हालांकि अंग्रेजी बोलते वक़्त उनमें आत्मविश्वास की कमी साफ़ झलक रही थी। 2010 में अपनी किताब के अनावरण पर अंग्रेजी में ही बात कर रहे थे। मोदी अपने ज्यादातर ट्वीट अंग्रेजी में ही करते हैं।
तो यह जाहिर है कि यह हिन्दी अस्मिता के लिए उठाया गया साहसिक कदम तो कतई नहीं है। उनका अंग्रेजी में हाथ तंग है, इसलिए उन्हें दुभाषिये की जरूरत है और इस बात को सरलता से देखा जाना चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी अंग्रेजी जानते थे और विदेशी प्रतिनिधियों से अंग्रेजी में ही बात करते थे, लेकिन देश को हिन्दी में संबोधित करते थे। कई लोगों के जेहन में श्री मोदी का करण थापर को दिया गया अधूरा साक्षात्कार अब भी होगा जहां मोदी टूटी-फूटी अंग्रेजी में ही अपने जवाब दे रहे थे। वैसे 2014 तक आते-आते शायद उन्हें अपनी इस कमी का एहसास हो गया होगा और उन्होंने अंग्रेजी मीडिया को भी हिन्दी में ही साक्षात्कार दिए। अरविंद केजरीवाल अंग्रेजी में माहिर हैं, लेकिन फिर भी वह अंग्रेजी मीडिया से हिन्दी में बात करना पसंद करते हैं। अरविंद केजरीवाल के समर्थक इसे हिन्दी प्रेम से जोड़ कर देख सकते हैं, लेकिन उनकी कमजोरी को भी उनके पक्ष में धकेलने के लिए टीम मोदी की कवायद जारी है। मुलायम सिंह यादव ने भी बिना सोचे-समझे इसका स्वागत कर दिया है।
भाषा को सम्मान से जोड़ कर क्यूं देखा जाना चाहिए? हिन्दी को अंग्रेजी से श्रेष्ठ बताना उसी तरह है जैसे उर्दू को हिन्दी से या अवधी को तमिल से। भाषा का उद्देश्य सिर्फ अपनी बात दूसरे को समझाना है फिर चाहे आप कोई भी भाषा बोलते हों, कोई भाषा हीन नहीं। नरेन्द्र मोदी अपने इस कदम से ना काबिल-ए-तारीफ़ हैं और ना ही अंग्रेजी कम आने की वजह से मज़ाक के पात्र।
देखा जाए तो भाषा अपना गर्व या अपना वर्चस्व अपने देश की अर्थव्यवस्था से हासिल करती है। अंग्रेजी का मूल यूरोप में है, पर इसे लोकप्रिय करने का श्रेय अमेरिका को जाता है। मुमकिन है अगर जापान सुपरपावर होता तो शायद जापानी अंग्रेजी की तरह लोकप्रिय होती। हिन्दुस्तान के भीतर भी यही बात देखी जा सकती है। भोजपुरी और तमिल के सम्मान में अंतर तो है ही। बीजेपी के ही सांसद मनोज तिवारी भी कह चुके हैं कि भोजपुरी को संविधान में स्थान दिलाएंगे। भाषा को इस समय संविधान में जगह मिले ना मिले, यह गैर-ज़रूरी मुद्दा है। हिन्दी जैसी भाषाएं कॉर्पोरेट दुनिया में अपनी जगह खो चुकी हैं।
16वीं लोकसभा में सुषमा स्वराज, उमा भारती और डा. हर्षवर्धन संस्कृत में शपथ लेते नजर आये। वैसे पुराने जमाने में संस्कृत मुख्य तौर पर ब्राह्मणों की भाषा मानी जाती थी।
विविधता से भरे इस देश में प्रधानमंत्री के लिए किसी एक भाषा को स्वीकार करना कठिन होगा। अंग्रेजी की जरूरत को खारिज करना भी उनके लिए मुश्किल है। तो इस वक़्त नरेन्द्र मोदी के दुभाषिये का सहारा लिए जाने को हिन्दी प्रेम या हिन्दी अस्मिता से जोड़कर उनके चाहने वाले उन्हें पसोपेश में डाल देंगे। क्या हिन्दी को कॉर्पोरेट जगत में प्रासंगिक कर पाएंगे प्रधानमंत्री?
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