मुंबई:
एक छोटे-से कस्बे की संकरी सड़कों पर धोखे, बेरहम राजनीति और खून-खराबे के कैसे गड्ढे हो सकते हैं, गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 2 इसकी मिसाल है।
धनबाद जिले के वासेपुर में सरदार खान की हत्या के साथ बदले की आग तीसरी पीढ़ी को भी अपनी चपेट में ले लेती है। गैंगवार की सत्ता फैज़ल खान के हाथ में आ जाती है, लेकिन बदले की आग चौबीसों घंटे गांजा पीने वाले फैज़ल के नशे को भुला देती है और वह चुन-चुनकर अपने पिता और भाई के हत्यारों को मारना शुरू कर देता है... और, यहीं आते हैं खून-खराबे के बेहद खौफनाक सीन्स, जिन्हें कमज़ोर दिल वाले न देखें, तो बेहतर होगा।
बेहतरीन एक्टर्स, रीयलिस्टिक लोकेशन्स और अनुराग कश्यप के सटीक डायरेक्शन के साथ पर्दे पर रीयलिज़्म बरकरार है। एक ही इंसान में मासूम प्रेमी और बेदर्द हत्यारे को देखना है तो फैज़ल के रोल में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को देख लीजिए। बूढ़ी दबंग मां के रोल में ऋचा चड्ढा हों, सुल्तान बने पंकज त्रिपाठी, डेफिनेट के रोल में ज़ीशान कादरी या परपेंडीकुलर, सभी बढ़िया हैं, हालांकि हुमा कुरैशी ज़रूर शोपीस बनकर रह गईं।
दरअसल गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 1 और पार्ट 2 इन जुड़वां भाइयों की तरह हैं, जिनकी अच्छाई-बुराई भी एक-सी हैं, लेकिन जब अनुराग कश्यप रीयलिज़्म से भटकने लगते हैं तो अफसोस होता है। क्यों जवान मौत पर उदास फिल्मी गाने गाए जा रहे हैं, क्यों किरदारों के नाम परपेंडीकुलर और टेनजेंट रखे गए... क्या ट्रिग्नोमैट्री पढ़कर लोगों ने बच्चों के नाम रखे।
गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 2 का फर्स्ट हाफ इतना अच्छा है कि पहली फिल्म फीकी लगने लगती है, लेकिन सेकंड हाफ में कई जगह बेवजह खींची गई महसूस होती है। मोबाइल पर हत्यारों को आर्डर देते क्रिमिनल्स के सीन्स, क्राइम के बीच ह्यूमर दिखाने की कोशिश है, लेकिन बोरिंग है।
फैज़ल अपने पिता के हत्यारे से समझौता कर लेता है, लेकिन क्यों... यह जवाब उतना ही मुश्किल है, जितना यह सवाल कि फर्स्ट पार्ट में सिर मुंडाने के बाद भी सरदार खान अपने पिता के हत्यारे को क्यों नहीं मारता।
हिन्दी और अंग्रेज़ी लिरिक्स के घालमेल वाले म्यूज़िक में दम नहीं है। पार्ट 1 के मुकाबले गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 2 बेहतर फिल्म है, लेकिन हम इसे 3 स्टार ही देना चाहेंगे... आखिर फिल्म के लंबे होने की भी कोई लिमिट होती है।
धनबाद जिले के वासेपुर में सरदार खान की हत्या के साथ बदले की आग तीसरी पीढ़ी को भी अपनी चपेट में ले लेती है। गैंगवार की सत्ता फैज़ल खान के हाथ में आ जाती है, लेकिन बदले की आग चौबीसों घंटे गांजा पीने वाले फैज़ल के नशे को भुला देती है और वह चुन-चुनकर अपने पिता और भाई के हत्यारों को मारना शुरू कर देता है... और, यहीं आते हैं खून-खराबे के बेहद खौफनाक सीन्स, जिन्हें कमज़ोर दिल वाले न देखें, तो बेहतर होगा।
बेहतरीन एक्टर्स, रीयलिस्टिक लोकेशन्स और अनुराग कश्यप के सटीक डायरेक्शन के साथ पर्दे पर रीयलिज़्म बरकरार है। एक ही इंसान में मासूम प्रेमी और बेदर्द हत्यारे को देखना है तो फैज़ल के रोल में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को देख लीजिए। बूढ़ी दबंग मां के रोल में ऋचा चड्ढा हों, सुल्तान बने पंकज त्रिपाठी, डेफिनेट के रोल में ज़ीशान कादरी या परपेंडीकुलर, सभी बढ़िया हैं, हालांकि हुमा कुरैशी ज़रूर शोपीस बनकर रह गईं।
दरअसल गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 1 और पार्ट 2 इन जुड़वां भाइयों की तरह हैं, जिनकी अच्छाई-बुराई भी एक-सी हैं, लेकिन जब अनुराग कश्यप रीयलिज़्म से भटकने लगते हैं तो अफसोस होता है। क्यों जवान मौत पर उदास फिल्मी गाने गाए जा रहे हैं, क्यों किरदारों के नाम परपेंडीकुलर और टेनजेंट रखे गए... क्या ट्रिग्नोमैट्री पढ़कर लोगों ने बच्चों के नाम रखे।
गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 2 का फर्स्ट हाफ इतना अच्छा है कि पहली फिल्म फीकी लगने लगती है, लेकिन सेकंड हाफ में कई जगह बेवजह खींची गई महसूस होती है। मोबाइल पर हत्यारों को आर्डर देते क्रिमिनल्स के सीन्स, क्राइम के बीच ह्यूमर दिखाने की कोशिश है, लेकिन बोरिंग है।
फैज़ल अपने पिता के हत्यारे से समझौता कर लेता है, लेकिन क्यों... यह जवाब उतना ही मुश्किल है, जितना यह सवाल कि फर्स्ट पार्ट में सिर मुंडाने के बाद भी सरदार खान अपने पिता के हत्यारे को क्यों नहीं मारता।
हिन्दी और अंग्रेज़ी लिरिक्स के घालमेल वाले म्यूज़िक में दम नहीं है। पार्ट 1 के मुकाबले गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट 2 बेहतर फिल्म है, लेकिन हम इसे 3 स्टार ही देना चाहेंगे... आखिर फिल्म के लंबे होने की भी कोई लिमिट होती है।
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