
फितूर फिल्म के दृश्य से ली गई तस्वीर
मुंबई:
कैटरीना-आदित्य की 'फितूर' को डायरेक्ट किया है, अभिषेक कपूर ने, जो इसके पहले 'रॉक ऑन' और 'काय पोचे' जैसी फिल्में बना चुके हैं। यह फिल्म चार्ल्स डेकन के नॉवेल 'द ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स' पर आधारित है। इसमें लीड रोल में हैं, तब्बू, आदित्य रॉय कपूर, कैटरीना कैफ़, लारा दत्ता, अदिति राव हैदरी, राहुल भट्ट। मेहमान भूमिका में हैं, अजय देवगन।
फिल्म की कहानी के बारे में बात करें तो कश्मीर की वादियों में बेगम हजरत का महल है जहां वह अपनी फिरदौस के साथ शान-ओ-शौकत के साथ रहती हैं। दूसरी ओर है नूर जो अपनी बहन और जीजा के साथ रहता है और जीजा के काम में उनकी मदद करता है। इसके साथ ही नूर एक कमाल का आर्टिस्ट भी है, जो फ़िरदौस को बचपन से चाहता है। बचपन का प्यार वक्त के साथ जवां होता है पर मुश्किलों के साथ। अब ये मुश्किलें कौन-कौन सी हैं, ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी।
बात फिल्म की खूबियों और खामियों की करें तो सबसे पहले लगता है लेखक सुप्रतिक सेन और निर्देशक अभिषेक कपूर नॉवेल 'द ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स' को 2 घंटे 10 मिनट की फिल्म में पूरी तरह से ढाल नहीं पाए, जिसकी वजह से फिल्म पहले भाग में ढीली पड़ती है।
कश्मीर की मुश्किलों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाने की कोशिश की गई है पर ये मुश्किलें न भी दिखती तो हर्ज़ नहीं था क्योंकि फिल्म ख़त्म होते ही शायद आपको लगे कि जिस राह पर चलना नहीं था वहां कदम रखने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
बिना गहराई को छुए किसी पहलू को दिखाने से दर्शक भटक सकते हैं। फ़िल्म एक लव स्टोरी है पर स्क्रिप्ट में इश्क़ का जुनून कम दिखाई पड़ता है। गाने अच्छे हैं पर पश्मीना गाना मुझे किसी विज्ञापन की तरह लगा।
निर्देशक अभिषेक कपूर की 'फितूर' की सबसे कमज़ोर कड़ी है इसकी उल्टी-पुल्टी स्क्रिप्ट। वादियां बेइंतहा खूबसूरत हैं पर कहानी फीकी-सी दिखाई पड़ती है। किरदारों को पूरी तरह से कैश कर पाने में कहानी नाकाम सी दिखाई पड़ती है। किरदारों के रिश्तों को लेकर असमंजस बना रहता है कुछ कड़ियां उलझी दिखती हैं।
बात खूबियों की करें तो सबसे बड़ी खूबी है अनय गोस्वामी की सिनेमेटोग्राफ़ी, जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है। हर फ्रेम कमाल का है, इमोशंस बेहतरीन तरीक़े से कैमरे में क़ैद किए गए हैं। फ़िल्म की रफ़्तार आपको धीमी लग सकती है पर मुझे इसमें ठहराव दिखता है।
फिल्म के विषय के मुताबिक, इसका पेस है। तब्बू ने एक बार फिर कमाल का अभिनय किया है। वहीं राहुल भट्ट का किरदार अपनी छाप छोड़ता है। पर्दे पर कैटरीना के बचपन का किरदार निभा रहीं तुनिशा शर्मा का आत्मविश्वास देखते बनता है। आदित्य रॉय कपूर के डायलॉग बोलने का अंदाज़ कई जगह कमाल का लगा। अगर कैटरीना के लहजे को नज़रअंदाज़ करें तो वह अपने किरदार में ठीक हैं। बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म की नज़ाकत को संभालता है। फ़िल्म में कॉस्ट्यूम और प्रोडक्शन डिजाइन भी मुझे अच्छा लगा जो फ़िल्म की शान क़ायम रखता है फिर चाहे वो बेग़म हजरत का लुक हो या फिर नूर और उसके परिवार का। मेरी ओर से फ़िल्म को 3 स्टार्स
फिल्म की कहानी के बारे में बात करें तो कश्मीर की वादियों में बेगम हजरत का महल है जहां वह अपनी फिरदौस के साथ शान-ओ-शौकत के साथ रहती हैं। दूसरी ओर है नूर जो अपनी बहन और जीजा के साथ रहता है और जीजा के काम में उनकी मदद करता है। इसके साथ ही नूर एक कमाल का आर्टिस्ट भी है, जो फ़िरदौस को बचपन से चाहता है। बचपन का प्यार वक्त के साथ जवां होता है पर मुश्किलों के साथ। अब ये मुश्किलें कौन-कौन सी हैं, ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी।
बात फिल्म की खूबियों और खामियों की करें तो सबसे पहले लगता है लेखक सुप्रतिक सेन और निर्देशक अभिषेक कपूर नॉवेल 'द ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स' को 2 घंटे 10 मिनट की फिल्म में पूरी तरह से ढाल नहीं पाए, जिसकी वजह से फिल्म पहले भाग में ढीली पड़ती है।
कश्मीर की मुश्किलों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाने की कोशिश की गई है पर ये मुश्किलें न भी दिखती तो हर्ज़ नहीं था क्योंकि फिल्म ख़त्म होते ही शायद आपको लगे कि जिस राह पर चलना नहीं था वहां कदम रखने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
बिना गहराई को छुए किसी पहलू को दिखाने से दर्शक भटक सकते हैं। फ़िल्म एक लव स्टोरी है पर स्क्रिप्ट में इश्क़ का जुनून कम दिखाई पड़ता है। गाने अच्छे हैं पर पश्मीना गाना मुझे किसी विज्ञापन की तरह लगा।
निर्देशक अभिषेक कपूर की 'फितूर' की सबसे कमज़ोर कड़ी है इसकी उल्टी-पुल्टी स्क्रिप्ट। वादियां बेइंतहा खूबसूरत हैं पर कहानी फीकी-सी दिखाई पड़ती है। किरदारों को पूरी तरह से कैश कर पाने में कहानी नाकाम सी दिखाई पड़ती है। किरदारों के रिश्तों को लेकर असमंजस बना रहता है कुछ कड़ियां उलझी दिखती हैं।
बात खूबियों की करें तो सबसे बड़ी खूबी है अनय गोस्वामी की सिनेमेटोग्राफ़ी, जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है। हर फ्रेम कमाल का है, इमोशंस बेहतरीन तरीक़े से कैमरे में क़ैद किए गए हैं। फ़िल्म की रफ़्तार आपको धीमी लग सकती है पर मुझे इसमें ठहराव दिखता है।
फिल्म के विषय के मुताबिक, इसका पेस है। तब्बू ने एक बार फिर कमाल का अभिनय किया है। वहीं राहुल भट्ट का किरदार अपनी छाप छोड़ता है। पर्दे पर कैटरीना के बचपन का किरदार निभा रहीं तुनिशा शर्मा का आत्मविश्वास देखते बनता है। आदित्य रॉय कपूर के डायलॉग बोलने का अंदाज़ कई जगह कमाल का लगा। अगर कैटरीना के लहजे को नज़रअंदाज़ करें तो वह अपने किरदार में ठीक हैं। बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म की नज़ाकत को संभालता है। फ़िल्म में कॉस्ट्यूम और प्रोडक्शन डिजाइन भी मुझे अच्छा लगा जो फ़िल्म की शान क़ायम रखता है फिर चाहे वो बेग़म हजरत का लुक हो या फिर नूर और उसके परिवार का। मेरी ओर से फ़िल्म को 3 स्टार्स
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