मुंबई:
इस फ्राइडे को रिलीज़ हुई है फिल्म 'फ्रेडरिक' जिसके लेखक और निर्देशक हैं राजेश बुटालिया और निर्माता हैं मनीष कलारिया। फिल्म में लीड रोल में हैं अविनाश ध्यानी, प्रशांत नारायनन और तुलना बुटालिया। यह एक थ्रिलर फिल्म है जिसमें अविनाश अपनी पत्नी के साथ एक मानव तस्करी गिरोह से भिड़ जाता है।
धुंधला जाता है आर्टिकल 377 का मुद्दा
इससे ज्यादा बताने पर फिल्म का सस्पेंस खुल जाएगा इसलिए अब बात फिल्म की खामियों और खूबियों की। सबसे बड़ी खामी है फोकस की कमी, जो दर्शकों का ध्यान भटका सकती है और मुद्दे को भी। फिल्म का नैरेटिव बतौर थ्रिलर तो ठीक है मगर मुद्दे की डोर थामे रखना भी जरूरी है जो फिल्म से गायब दिखा। मसलन फिल्म आर्टिकल 377 के पहलुओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है पर कहानी के बीच में यह मुद्दा धुंधला सा मालूम पड़ता है। हर सीन का एक उरूज होता है यानी हाई प्वाइंट और अगर उस हाई प्वाइंट के बाद सीन लंबा हो तो मजा किरकिरा हो जाता है। बहुत ज्यादा तो नहीं पर कुछ सीन्स में ऐसा हुआ। फिल्म के गाने और फ्लैशबैक के अंदर फ़्लैशबैक फिल्म की रफ्तार धीमी करते हैं।
बेहतरीन स्क्रीनप्ले
खूबियों की बात करें तो फिल्म की पहली खूबी स्क्रीनप्ले है। साथ ही कहानी मुझे अच्छी लगी। फिल्म आप दर्शकों की रुचि और थ्रिल दोनों बनाए रखती है। दर्शक फिल्म के दौरान सोचते रहेंगे कि जो पर्दे पर हो रहा है उसके पीछे कौन है? निर्देशक राजेश बुटालिया ने फिल्म के शुरुआती सीन्स खूबसूरती से शूट किए हैं। प्रशांत नारायनन एक अच्छे एक्टर हैं। यहां भी आपको उनके अभिनय से कोई शिकायत नहीं होगी। वहीं फिल्म के हीरो अविनाश नए हैं पर प्रभावशाली नहीं। इनकी कद-काठी और भाव उनको अभिनय में आगे ले जा सकते हैं पर डायलॉग डिलीवरी और अभिनय पर और मेहनत करने की जरूरत है। फिल्म का संगीत अच्छा है। गाने मधुर हैं। वैसे फिल्म में पूरा का पूरा गाना रखने की जरूरत नहीं थी। कुल मिलकार 'फ़्रेडरिक' देखने लायक फिल्म है।
फिल्म को 2.5 स्टार
धुंधला जाता है आर्टिकल 377 का मुद्दा
इससे ज्यादा बताने पर फिल्म का सस्पेंस खुल जाएगा इसलिए अब बात फिल्म की खामियों और खूबियों की। सबसे बड़ी खामी है फोकस की कमी, जो दर्शकों का ध्यान भटका सकती है और मुद्दे को भी। फिल्म का नैरेटिव बतौर थ्रिलर तो ठीक है मगर मुद्दे की डोर थामे रखना भी जरूरी है जो फिल्म से गायब दिखा। मसलन फिल्म आर्टिकल 377 के पहलुओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है पर कहानी के बीच में यह मुद्दा धुंधला सा मालूम पड़ता है। हर सीन का एक उरूज होता है यानी हाई प्वाइंट और अगर उस हाई प्वाइंट के बाद सीन लंबा हो तो मजा किरकिरा हो जाता है। बहुत ज्यादा तो नहीं पर कुछ सीन्स में ऐसा हुआ। फिल्म के गाने और फ्लैशबैक के अंदर फ़्लैशबैक फिल्म की रफ्तार धीमी करते हैं।
बेहतरीन स्क्रीनप्ले
खूबियों की बात करें तो फिल्म की पहली खूबी स्क्रीनप्ले है। साथ ही कहानी मुझे अच्छी लगी। फिल्म आप दर्शकों की रुचि और थ्रिल दोनों बनाए रखती है। दर्शक फिल्म के दौरान सोचते रहेंगे कि जो पर्दे पर हो रहा है उसके पीछे कौन है? निर्देशक राजेश बुटालिया ने फिल्म के शुरुआती सीन्स खूबसूरती से शूट किए हैं। प्रशांत नारायनन एक अच्छे एक्टर हैं। यहां भी आपको उनके अभिनय से कोई शिकायत नहीं होगी। वहीं फिल्म के हीरो अविनाश नए हैं पर प्रभावशाली नहीं। इनकी कद-काठी और भाव उनको अभिनय में आगे ले जा सकते हैं पर डायलॉग डिलीवरी और अभिनय पर और मेहनत करने की जरूरत है। फिल्म का संगीत अच्छा है। गाने मधुर हैं। वैसे फिल्म में पूरा का पूरा गाना रखने की जरूरत नहीं थी। कुल मिलकार 'फ़्रेडरिक' देखने लायक फिल्म है।
फिल्म को 2.5 स्टार
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