फिल्म 'आंखों देखी' की कहानी पुरानी दिल्ली के एक परिवार की है, जो अनोखे हैं, निराले हैं। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक सोच है, इंसान की जिंदगी के रंगों के अनुभव की और अंतरात्मा की खुशी की।
बाबूजी का किरदार निभा रहे संजय मिश्रा की भी एक सोच है, जिसके मुताबिक वह जिस चीज को देखते हैं, उसी पर विश्वास करते हैं। आमतौर पर दर्शकों को हंसाने वाले संजय मिश्रा ने बाबूजी के किरदार में जान डाल दी है। उनकी पत्नी के रोल को सीमा पाहवा ने पर्दे पर जिया है। फिल्म में जितने भी छोटे-बड़े किरदार हैं, सभी अपने अपने रोल में बेहतरीन हैं।
आमतौर पर जब भी फिल्मों में दिल्ली को देखते हैं, उसमें पंजाबियों की दिल्ली नजर आती है, मगर डायरेक्टर रजत कपूर ने असली पुरानी दिल्ली को बहुत ही खूबसूरती से दर्शाया है।
दो घंटे थिएटर के अंदर मुझे ऐसा लगा कि मैं वाकई में पुरानी दिल्ली के एक परिवार के बीच मौजूद हूं। उनके झगड़े, उनकी बहस, उनके घर हुई शादी और उनके जज्बातों में मैं शामिल हुआ। हर इंसान की सोच और समझ अलग होती है, उनमें मैं भी शामिल हूं... यह मुमकिन है कि 'आंखों देखी' को देखने के बाद जो मैंने सोचा, वह दूसरों की सोच से अलग हो।
फिल्म में बार-बार बताने की कोशिश की गई है जिंदगी के अनुभवों को अपनी आंखों देखी पर यकीन करने को, मगर मेरी सोच फिल्म देखते वक्त यह सवाल पूछती रही कि कोई भी इंसान अपनी खुशी के लिए किस हद तक जा सकता है।
फिल्म के मुख्य किरदार ने जो अपनी हदें दिखाईं और जिस तरह क्लाइमैक्स गढ़ा गया, वह मुझे अटपटा लगा। लेकिन यह भी कहना जरूरी है कि फिल्म अपनी मासूमियत नहीं खोती। वैसे यह एक आर्टिस्टिक फिल्म है, जिसे रजत कपूर ने खूबसूरत पेंटिंग की तरह सजाया है। फिल्म के लिए मेरी रेटिंग है 3.5 स्टार...
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