जब देवता पृथ्वी पर आते हैं दीपावली मनाने के लिए
नई दिल्ली:
Dev Deepawali 2018: दिपावली के 15 दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा के दिन सभी देवता गंगा के किनारे दिपावली मनाने आते है. लिहाज़ा सभी घाटों और कुंड की विधिवत सफाई की जाती है. फिर दीयों से इनका श्रृंगार होता है, जिसका नज़ारा अद्भुत होता है. गंगा तट पर इस अलौकिक छटा को देखने के लिए देश-विदेश के एक लाख से भी ज़्यादा पर्यटक बनारस आते हैं.
गौरतलब है कि विश्व के सबसे प्राचीनतम नगरी काशी में 6000 वर्षों से जीवन की अटूट धारा का एक नाता रहा है. यहां पर गंगा के किनारे बने अर्धचंद्राकार मुक्तासीय मंच से नजर आने वाले बनारस के घाट के किनारे मां गंगा भी उत्तर वाहिनी होकर बहती है. यह नगर जितना धार्मिक है उतना ही अधिक अध्यात्मिक भी यहां अध्यात्म प्रतीकों के रूप में प्रयोग होता है जिसे सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों ने अलग-अलग कथन में व्यक्त किया है शैव के अनुसार त्रिपुर राक्षस को भगवान शंकर ने वध किया जिसकी खुशी के बाद शिव की नगरी काशी में देवताओं ने दिपावली मनाई जिसे देव दिपावली कहा जाता है
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एक दूसरी कथा में काशी के प्रथम राजा देवदास से जुड़ा है ब्रह्मा के आग्रह पर काशी का राजा बनना स्वीकार किया. देवदास ने एक शर्त रखी कि जब समस्त देवता काशी छोड़कर चले जाएंगे तभी वो राजा बनेंगे. देवता देवलोक चले गए उसके बाद देवदास राजा बने. लेकिन बाद में काशी में धीरे-धीरे सभी देवता अपना रूप परिवर्तित कर वापस आने लगे और जिस दिन सभी देवता यहां पर आ गए तो उन्होंने आनंदोत्सव मनाया यानी देव दिपावली मनाकर अपने खुशी का इजहार किया.
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कालांतर में यह प्रथा खत्म हो गई थी लेकिन 1986 में काशी के पंचगंगा घाट से इस प्रथा की फिर शुरुआत हुई आज यह पर्व देश और दुनिया के लिए कौतूहल का विषय है. क्योंकि बनारस के सभी 84 घाटों पर लगाए 2 दर्जन से ज्यादा कुडों में 51 लाख से ज्यादा दीयों की रोशनी से अलौकिक छटा बिखरती काशी नजर आती है और यह छटा ऐसी लगती है की मानो स्वर्ग यही है और सारे देवता भी आम मानव के रूप में दिपावाली माना रहे है.
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गौरतलब है कि विश्व के सबसे प्राचीनतम नगरी काशी में 6000 वर्षों से जीवन की अटूट धारा का एक नाता रहा है. यहां पर गंगा के किनारे बने अर्धचंद्राकार मुक्तासीय मंच से नजर आने वाले बनारस के घाट के किनारे मां गंगा भी उत्तर वाहिनी होकर बहती है. यह नगर जितना धार्मिक है उतना ही अधिक अध्यात्मिक भी यहां अध्यात्म प्रतीकों के रूप में प्रयोग होता है जिसे सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों ने अलग-अलग कथन में व्यक्त किया है शैव के अनुसार त्रिपुर राक्षस को भगवान शंकर ने वध किया जिसकी खुशी के बाद शिव की नगरी काशी में देवताओं ने दिपावली मनाई जिसे देव दिपावली कहा जाता है
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