
बीजेपी लोकसभा में 272+ की तर्ज पर जम्मू और कश्मीर विधानसभा में 44+ का लक्ष्य लेकर चल रही है तो क्यों और कैसे, इसे थोड़ा बीजेपी के नज़रिए से देखना होगा।
जम्मू संभाग में 37 सीटें हैं। इनमें डोडा, भदरवाह, किस्तवाड़ और राजौरी-पुंछ की कई सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं का वोट निर्णायक होता है। यहां कांग्रेस, पीडीपी और एनसी तीनों मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की कोशिश करेंगी। वोट बंटेगा और फायदा बीजेपी को होगा।
वोट बांटने के लिए बीजेपी अपनी तरफ से कुछ सीटों पर डमी मुस्लिम उम्मीदवारी को भी हवा दे सकती है। हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू में मोदी ने जम्मू संभाग के हिन्दुओं में अपनी पूछ और पहचान बनाई है। बीजेपी ज्यादातर ख़ानाबदोश गूज्जर-बकरवाल और शियाओं को भी अपनी तरफ़ करने की कोशिश में जुटी है। कुल मिला कर वह जम्मू इलाके की 37 में से 25-30 सीट निकालने की रणनीति पर चलती नजर आ रही है।
बौद्ध बहुल लद्दाख-ज़ांस्कार के अलावा शिया बहुल कारगिल की चार सीटों को बीजेपी अपना मान कर चल रही है क्योंकि लद्दाख संसदीय क्षेत्र से बीजेपी का सांसद ही चुनकर आया है। यहां एक पेंच ये है कि बीजेपी ने लद्दाख को वादा किया था कि कैलाश मानसरोवर जाने का रास्ता यहां से खोला जाएगा लेकिन उसे अरुणाचल प्रदेश से खोल दिया गया है। इससे लद्दाख के टूरिज़्म और बिज़नेस से जुड़े लोगों में नाराज़गी है। पर वह विधानसभा चुनाव में बीजेपी को इसके लिए सबक सिखाएंगे इसकी संभावना कम है। खासतौर पर जब केन्द्र की सरकार की लंबी उम्र और उससे मदद की आस बाकी हो।
तो इस तरह से बीजेपी की सीटों का आकलन 29 से 34 तक का बैठता है। बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती कश्मीर वादी और यहां की 46 सीटों पर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हाल की बाढ़ ने उमर अब्दुल्ला सरकार के चेहरे को और ज़्यादा धो-पोंछ दिया है। राज्य की मौजूदा सरकार को लेकर लोगों में जबरदस्त गुस्सा है। उमर सरकार को कांग्रेस का समर्थन है इसलिए वह भी निशाने पर है। मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी मेहबूबा मुफ्ती ने यहां अपने तेवर के साथ अपनी पार्टी की पैठ को लगातार बढ़ाया है। पीडीपी के अपेक्षाकृत 'हार्डलाइनर अप्रोच' जो कि अमरनाथ यात्रा विवाद के वक्त देखने को मिला था, ने भी घाटी में उसे विकल्प के तौर पर उभारा है। वो 46 में से 30-35 सीट ले जाने में कामयाब हो जाए तो हैरानी नहीं। कुल मिलाकर ये कहना मुनासिब होगा कि कश्मीर वादी में पीडीपी चुनावी कामयाबी का वैसा ही चैप्टर लिखने जा रही है जैसा बीजेपी जम्मू में लिखने की सोच रही है। फिर सवाल है कि बीजेपी के 44+ मिशन का क्या?
तो उसके लिए बीजेपी तीन-चार मोर्चों पर काम कर रही है। वो वोटर लिस्ट में शामिल उन कश्मीरी पंडितों से भी जो बाहर रहते हैं, अधिकतम वोट करवाना चाहेगी। यानी जो पंडित घाटी आकर ईवीएम इस्तेमाल नहीं कर सकते वे बैलेट पेपर से ही सही वोट करें, ये बीजेपी सुनिश्चित करना चाह रही है। करीब दो दशक से घर से दूर और होमलैंड की मांग करने वाले पंडित चुनाव के इस मौके को गोल्डन चांस के रूप में लेगी। इसके अलावा वादी के सिखों पर भी बीजेपी की नजर है। तमाम मुश्किलातों और चिट्टीसिंहपोरा जैसे नरसंहारों के बावजूद अपने मादरेवतन (मातृभूमि) को न छोड़ने वाले सिख के लिए मोदी एक बड़े विकल्प हो सकते हैं। और क़ामयाबी के लिए बीजेपी को वादी का एक-एक वोट चाहिए। वो शियाओं के उस डर को भी पनपाने-बढ़ाने-भुनाने की कोशिश करेगी जो आईएसआईएस (ISIS) की बर्बरता और हथकंडों से फैली है। वादी में शिया-सुन्नी के बीच की रेखा मोटी हुई है।
बीजेपी उस वर्ग विशेष को भी अपने प्रभाव-वादों में लेने की कोशिश करेगी जो चाहे शियाओं का हो या सुन्नी का, लेकिन जिसका 'बिज़नेस इंटेरेस्ट' जे एंड के राज्य के बाहर और देश के दूसरे हिस्सों में है। चाहे वे सेब व्यापारी हों या खुमानी या कश्मीरी कपड़ों के निर्माता-कारोबारी हों उनके लिए बिज़नेस में बढ़ोत्तरी धर्म के नाम पर लामबंद होकर कमाए गए 'पुण्य' से ज़्यादा होता है। बीजेपी का किसी भी तरह वादी में खाता भी खुल जाए तो उसके लिए हाथी चढ़ने जैसा होगा। 46 में से 3-4 सीट निकल आए तो मोदी के करिश्मे की एक नई इबारत लिखी जाएगी।
लेकिन वादी में बीजेपी को बड़ी चुनावी क़ामयाबी की गुंजाइश कम ही दिखती है। वादी की बाधा से पार पाने के लिए बीजेपी की नज़र जीत सकने की क्षमता रखने वाले आज़ाद उम्मीदवारों पर होगी। वे उन्हें पुरज़ोर तरीक़े से 'प्रोत्साहन' भी देगी। कोशिश 5-7 ऐसे उम्मीदवारों को जिताने की होगी जो उसे 44+ के क़रीब ले जा सकें। बीजेपी अपनी उम्मीद और आकलन से बहुत पीछे छूट सकती है। लेकिन वो भौंचक भी कर सकती है। अंत में बस इतना कि अगर एनसी का हाल महाराष्ट्र की कांग्रेस की तरह का होता है तो वो तो कश्मीर की एनसीपी की तरह बिहेव कर सकती है। बीजेपी को सपोर्ट ऑफर कर सकती है। जैसा कि बेटे उमर के विपरीत फारुख अब्दुल्ला 2008 चुनाव में बीजेपी की तरफ़ हाथ बढ़ाने को आतुर थे। कहा भी जाता है कि फारुख अब्दुलाह या तो सत्ता में रहते हैं या लंदन में।
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