व्यक्तिवाद की बहस नरेंद्र मोदी की वजह से बीजेपी के बारे में वापस शुरू हो चुकी है। वापस कहने से मेरा मतलब और मकसद साफ है कि ये बहस कोई नई नहीं है। किसी भी दूसरे सियासी दल की तरह भारतीय जनता पार्टी ने भी कई चुनाव अपने शीर्ष नेता या चेहरे को ही सामने रखकर लड़े।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं अटल बिहारी वाजपेयी। 1995 में अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय जनता पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार बनाने में असफल साबित हुए और बीजेपी ने पहली बार सत्ता की सूरत देखी भी, तो सिर्फ 13 दिनों के लिए। लेकिन इन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी ने बीजेपी को 6 साल से ज्यादा की सरकार दी और एनडीए का एक सफल गठबंधन दिया।
वाजपेयी का कद और व्यक्तित्व इतना बड़ा हो गया कि लगातार यह कहा जाने लगा कि एक अछूत बीजेपी से 27 पार्टियों तक का यह जो गठबंधन बना यह सिर्फ वाजपेयी के नाम पर ही संभव था। आज समय की सूई घुमाकर अगर हम पलट कर देखें, तो क्या यह व्यक्तिवाद नहीं था।
इस एनडीए के राज में वाजपेयी और आडवाणी तो अपने शीर्ष पर रहे, लेकिन बीजेपी का संगठन चलानेवाले पार्टी के अध्यक्ष बदलते रहे। इस समय में पार्टी और सरकार दोनों पर वाजपेयी और आडवाणी की छाया और प्रभाव दोनों बहुत प्रबल थे। 13 अक्टूबर 1999 को लालकृष्ण आडवाणी को उप−प्रधानमंत्री पद दे दिया गया, जबकि सरकार की शुरुआत में वह गृहमंत्री बनाए गए थे। क्या वह व्यक्तिवाद नहीं था? गुजरात में पिछली तीन सरकारों में नरेंद्र मोदी की जो स्थिति रही है, उसे लेकर हमेशा यह कहा जाता रहा है कि गुजरात में बीजेपी नहीं बल्कि मोदी हैं। क्या ये व्यक्तिवाद नहीं?
इसलिए विचारधारा की बात करके संघ का यह कहना कि हम व्यक्तिवाद की तरफ नहीं झुकते, बीजेपी की सियासत के दायरे से बहुत अटपटा लगता है। मैं यह भी साफ कर देना चाहता हूं कि संघ पहली बार यह बात नहीं कह रहा, बल्कि बहुत पहले से कहता आया है। लेकिन दिक्कत यह है कि बीजेपी के फैसलों में इसकी झलक बहुत कम नजर आती है।
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