प्रतीकात्मक तस्वीर
नई दिल्ली:
फरवरी 2014 में एम्स में पड़े एक छापे से बात खुली की देश के सबसे बड़े मेडिकल संस्थान के सर्जरी विभाग में करोड़ों का घोटाला हो रहा है. घोटाला सर्जरी में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों की खरीद का था. उस घोटाले पर एफआईआर अब चार साल बाद हो पाई है. इस बीच सीबीआई सोई रही और सीवीसी ने तो मामले को बन्द करने की सिफारिश की. अब 10 जनवरी को जो केस दर्ज हुआ है वह दिल्ली हाइकोर्ट के दखल की वजह से मुमकिन हो पाया है. तब सतर्कता विभाग के छापे के बाद जमा की गई रिपोर्ट से पता चला कि दो निजी कंपनियों को सारे नियम कानून तोड़कर ऑर्डर दिये गये. इसके लिये फर्जी कंपनियों की ओर निविदायें यानी कोटेशन तैयार किये जाते. ताकि इन्हीं कंपनियों को आखिर में ठेका मिले या फिर फर्जी पेटेंटे दिखाकर कहा जाता कि जो सामान मंगाया जा रहा है वह यही कंपनियां सप्लाई कर सकती हैं.
मामले की जांच आगे बढ़ी तो सीबीआई के तत्कालीन डीआईजी संजीव गौतम ने एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें वित्तीय अनियमितताओं की बात तो मानी गई लेकिन जांच का जिम्मा स्वास्थ्य मंत्रालय के सीवीओ को देने की सिफारिश कर दी जिनके पास आपराधिक केस दर्ज करने के अधिकार नहीं था. खरीद कमेटी के मुखिया खुद एम्स के तत्कालीम निदेशक एमसी मिश्रा थे. मिश्रा एम्स के सर्जरी विभाग के प्रमुख भी थे और हैरानी की बात है कि मार्च 2015 में उन्होंने ही एक जांच कमेटी गठित की जो कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट का मामला था. फिर जनवरी 2017 में वकील प्रशांत ने इस मामले में अलग से एक याचिका दायर की. उसके एक साल बाद अब मुकदमा दर्ज हुआ है.
प्रशांत भूषण ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, “एम्स के सीवीओ थे संजीव चतुर्वेदी उन्होंने ये मामला उठाया था. उन्होंने कहा था कि सर्जरी विभाग में करोड़ों की खरीद हुई है. फर्जी कंपनियों से कुछ कोटेशन मंगाकर, जहां दो लाख से कम का टेंडर था वहां अपनी पसंद की कंपनी को दे देते थे. जहां दो लाख से ज्यादा होता था वहां पेटेंट और प्रोपराइटी का इस्तेमाल किया जाता और टेंडर की प्रक्रिया से बचा जाता जबकि दो लाख से अधिक में टेडर इश्यू करना होता है. इस पर इतने साल तक सीबीआई चुप बैठी रही और सीवीसी ने भी कुछ नहीं किया”.
अब 4 साल बाद फाइल हुये मुकदमे में सिर्फ एम्स के सर्जरी विभाग के एक क्लर्क और दोनों कंपनियों के अधिकारियों के ही नाम हैं. यानी बड़ी मछलियां कानून के जाल से बाहर हैं. इससे शक होता है कि ये एफआईआर कितनी दूर तक जा पाएगी.
मामले की जांच आगे बढ़ी तो सीबीआई के तत्कालीन डीआईजी संजीव गौतम ने एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें वित्तीय अनियमितताओं की बात तो मानी गई लेकिन जांच का जिम्मा स्वास्थ्य मंत्रालय के सीवीओ को देने की सिफारिश कर दी जिनके पास आपराधिक केस दर्ज करने के अधिकार नहीं था. खरीद कमेटी के मुखिया खुद एम्स के तत्कालीम निदेशक एमसी मिश्रा थे. मिश्रा एम्स के सर्जरी विभाग के प्रमुख भी थे और हैरानी की बात है कि मार्च 2015 में उन्होंने ही एक जांच कमेटी गठित की जो कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट का मामला था. फिर जनवरी 2017 में वकील प्रशांत ने इस मामले में अलग से एक याचिका दायर की. उसके एक साल बाद अब मुकदमा दर्ज हुआ है.
प्रशांत भूषण ने एनडीटीवी इंडिया से कहा, “एम्स के सीवीओ थे संजीव चतुर्वेदी उन्होंने ये मामला उठाया था. उन्होंने कहा था कि सर्जरी विभाग में करोड़ों की खरीद हुई है. फर्जी कंपनियों से कुछ कोटेशन मंगाकर, जहां दो लाख से कम का टेंडर था वहां अपनी पसंद की कंपनी को दे देते थे. जहां दो लाख से ज्यादा होता था वहां पेटेंट और प्रोपराइटी का इस्तेमाल किया जाता और टेंडर की प्रक्रिया से बचा जाता जबकि दो लाख से अधिक में टेडर इश्यू करना होता है. इस पर इतने साल तक सीबीआई चुप बैठी रही और सीवीसी ने भी कुछ नहीं किया”.
अब 4 साल बाद फाइल हुये मुकदमे में सिर्फ एम्स के सर्जरी विभाग के एक क्लर्क और दोनों कंपनियों के अधिकारियों के ही नाम हैं. यानी बड़ी मछलियां कानून के जाल से बाहर हैं. इससे शक होता है कि ये एफआईआर कितनी दूर तक जा पाएगी.
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