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This Article is From Feb 27, 2017

क्या इस बार नेताओं को गलतफहमी का शिकार बना रहे हैं मतदाता...?

Ratan Mani Lal
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 27, 2017 12:59 pm IST
    • Published On फ़रवरी 27, 2017 12:57 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 27, 2017 12:59 pm IST
जहां लखनऊ में सरकार बनाने की लड़ाई में पांचवें चरण का मतदान हो रहा है, वहीं बड़ी तेज़ी से स्पष्ट होता जा रहा है कि अब बातें विकास और भविष्य जैसे मुद्दों से हटकर और निजी चिंताओं तक सीमित होती जा रही हैं. यही नहीं, यदि विकास (मूल रूप से बिजली, पानी, सड़क) की बात होती भी है, तो उसमे में भी निजी प्रसंगों को ही उठाकर राजनीतिक रूप दिया जा रहा है.

उदाहरण के तौर पर, यदि बिजली मुद्दा बन भी रही है, तो इसलिए कि किन्हीं मोहल्लों और विशेष वर्ग के लोगों को बिजली मिलती है और अन्य को नहीं, किन्हीं विशेष अवसरों पर बिजली नहीं मिलती और कुछ अवसरों पर मिलती है. ख़ास बात तो यह है कि ये सब बातें उत्तर प्रदेश के शहरों और गांवों में कई सालों से होती आ रही हैं, लेकिन इन्हें मुद्दा नहीं बनाया गया, बल्कि केवल छोटे समूहों में इस बारे में बातें की जाती थीं.

इसी तरह यदि सार्वजनिक स्थानों के विकास को यदि मुद्दा बनाया भी गया तो उसमे भी वर्गों के आधार पर भेदभाव को ही उजागर किया गया, भले ही वह सार्वजनिक स्थान अंतिम क्रिया से जुडे हुए क्यों न हों.

क्या यह सच है कि उत्तर प्रदेश में ऐसे निजी, संकीर्ण आधारों पर विकास के निर्णय लिए जाते हैं...? क्या कोई एक राजनीतिक दल अपने जनाधार को बनाए रखने के लिए एकतरफा निर्णय ही लेता रहता है? क्या ऐसी बातों को चुनाव के समय पर उठाना इनसे फायदा उठाने के लिए किया जाता है...?

लेकिन उससे भी ज़रूरी यह है कि क्या तथाकथित विकास के बारे में बात करने में भी आधे-अधूरे सच और छिपाए तथ्य ज्यादा मायने रखते हैं...? उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी पर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी आरोप लगाती आ रही है कि आधी-अधूरी योजनाओं का लोकार्पण करके लोकप्रियता बटोरना चाहती है, और जब-जब ऐसे आरोप लगे हैं, तब-तब सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से बजाय इसका स्पष्ट जवाब देने के, सवाल को ही उलझा दिया गया है. चाहे वह हाईवे हो या मेट्रो ट्रेन, ऐसी तमाम परियोजनाओं पर अभी काम हो रहा है, लेकिन उनके शुरू होने और कुछ सीमा तक काम हो जाने का श्रेय तो सत्ता में बैठी राजनीतिक पार्टी को ही जाएगा. लेकिन ऐसी साफ़ बातों से सच्चाई बताने के बजाय इनका मज़ाक उड़ाकर उन्हें हवा में उड़ा देना सभी राजनीतिक दलों के लिए लाभदायक रहा है.

इसी तरह, नेताओं की तल्ख़ टिप्पणियां, बेतुके बयान, संप्रदाय और धर्म के मुद्दों को बेवजह उठाना ऐसे ही प्रयासों के उदाहारण हैं, जिनसे असली मुद्दों के बजाय लोगों को निजी और विवादास्पद बातों में उलझा दिया जाए. सत्ताधारी पार्टी और विपक्षी पार्टी के नेता भी यह सच जानते हैं कि सत्ता में आने के बाद मुद्दे भी बदलते हैं और प्राथमिकताएं भी. और इसीलिए, नतीजा आने से पहले ही मुद्दे ही बदल डालो, बाद में इसका फायदा मिलेगा.

चूंकि अभी तक हुए मतदान में किसी भी जगह सांप्रदायिक तनाव या गंभीर हिंसा की खबरें नहीं आई हैं, इससे ऐसा लगता है कि लोगों ने अपने मन की बात बड़े धैर्य और शांति से ईवीएम मशीन में दर्ज कर दी है, और नतीजा निकलने पर वे बड़े आत्म-संतुष्ट होकर देखेंगे कि वही हुआ, जो वे चाहते थे. लेकिन अभी तक हुए शान्तिपूर्ण चुनाव का यह भी मतलब नहीं निकाला जा सकता कि मतदाताओं के मन में ध्रुवीकरण या किसी पार्टी के खिलाफ शिकायत नहीं है. बल्कि इसका यह भी मतलब हो सकता है कि सब कुछ देखकर लोगों ने तय कर रखा है कि अब उन्हें करना क्या है.

अब हो रहे प्रचार और प्रतिक्रियाओं को देख-सुनकर लगता है कि जो शिकायतें अब उठाई जा रहीं हैं, वे तो न जाने कब से लोगों के बीच मौजूद थीं, लेकिन इनके बावजूद पिछले चुनाव के बाद जीती पार्टी से लोगों ने इन शिकायतों को दूर करने के लिए कोई मांग या आंदोलन नहीं किया. इसका मतलब कहीं यह तो नहीं कि लोग भी जानते हैं कि चुनावी वादों और आरोपों का असली मतलब कुछ है नहीं...? बल्कि यह है कि इन वादों के पूरे न होने को लोग खुद ही अगले चुनाव में मुद्दा बनाकर मतदान करें...?

यह भी एक दिलचस्प संभावना है – जहां राजनेता समझ रहे हैं कि चुनाव प्रचार के दिनों में वे जनता को बहका रहे हैं, वहीं लोग वास्तव में मतदान के दिन और उसके बाद सरकार बनने की पूरी अवधि के दौरान में नेताओं को इस ग़लतफ़हमी में रखते हैं कि वे उन राजनेताओं से बहुत खुश हैं...?

अब कुछ ही दिन बाकी हैं, और लोगों के मन की बात जल्द ही दुनिया के सामने होगी. देखना है कि वादों और इरादों के बीच लोगों ने तय किया क्या है.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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