पत्रकारिता पर सनसनीखेज़ होने का आरोप लगता रहा है, खासकर टीवी पत्रकारिता के संदर्भ में उसके बढ़ते दायरे के बाद इस पर असंख्य विमर्श हुए हैं, लेकिन क्या राजनीति भी अब उसी दिशा में आगे बढ़ती दिखाई दे रही है...! नेताओें के बयान ख़बर बनते हैं, कई बार जुबान फिसलती है और बयान को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाकर खुद को पाक-साफ भी बता ही दिया जाता है, ऐसा भी होता रहा है कि ऐसे बयानों के कुछ खांटी किस्म के चेहरे ही हुआ करते थे, जिनसे उम्मीद इसी तरह के बयानों की हुआ करती थी, लेकिन इधर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव ने इस सनसनीखेज़ राजनीति का जो सूत्रपात किया है, वह रोके नहीं रुक रहा.
चुनाव से पहले के चार-पांच महीने तो यूपी चुनाव में परिवार की राजनीति और फूट ने दूसरे दलों को ख़बर में आने का मौका ही नहीं दिया, और जब इससे मामला सुलझा भी, तो ऐसे मुद्दे सामने आए, जो भाषायी और वैचारिक दृष्टि से राजनैतिक सनसनी ही साबित हुए. न उनमें विकास का प्रतिबिंब उभरा और विपक्ष भी उसे तथ्यात्मक नज़रिये से नहीं घेर पाया. राजनीति जनकेंद्रित की बजाय आत्मकेंद्रित दिखाई दे रही है. सवाल यही है कि क्या अब राजनीति को भी सनसनी ही चाहिए.
थोड़ी लिखा-पढ़ी की जाती और आंकड़ों को खंगाला जाता तो उत्तर प्रदेश का वह चेहरा सामने आता है, जहां अभी सरकार को बहुत काम करना था. इस चुनाव के कुछ महीने पहले ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए गए थे, जिसे कोई और नहीं, स्वयं भारत सरकार का परिवार एवं स्वास्थ्य मंत्रालय आयोजित करता है. सर्वेक्षण बताता है कि देश में बच्चों के बदतर स्वास्थ्य हालात में जो देश के सबसे ज्यादा खराब 100 जिले हैं, उनमें सबसे ज्यादा जिले (46) इसी उत्तर प्रदेश से पाए गए हैं. भगवान बुद्ध की तपोस्थली श्रावस्ती इस मामले में टॉप पर है.
सोचने की बात यह है कि ऐसे चुनावी समय में, जबकि ऐसे संवेदनशील विषय विपक्षी पार्टियों के लिए सरकार को घेरने के मौके तथ्यात्मक और गंभीर तरीके से दे सकते थे, उस वक्त भी यह बहस गधे-घोड़ों में उलझकर रह गई. ऐसे भयावह आंकड़े, जो किसी भी दल की सरकार को असफल साबित करने के काम आ सकते है, उसे सामने लाना किसी दल ने अपने काम का न समझा. यदि असल मुद्दों को पकड़ा होता तो इस बात पर भी तूफ़ान मच जाना चाहिए था कि पांच साल तक के बच्चों की मौत, एक साल तक के बच्चों की मौत और नवजात शिशुओं की मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है.
ऐसे बच्चे, जो जन्म लेने के सात दिन के अंदर ज़िन्दा नहीं रह पाते, जिसे हम तकनीकी भाषा में नवजात शिशु मृत्यु दर कहते हैं, इसमें शीर्ष 100 जिलों में 46 उत्तर प्रदेश के खाते में आते हैं. हमने उनसे बड़े बच्चों, यानी शिशु मृत्यु दर, यानी जो बच्चे जो अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते, पर नज़र डाली, तो उसमें भी शीर्ष 100 जिलों में सबसे ज्यादा जिले उत्तर प्रदेश के हैं. और जब हमने उससे भी बड़े, यानी पांच साल तक के बच्चों, यानी बाल मृत्यु दर को देखा तो उसमें भी उत्तर प्रदेश ही आगे खड़ा हुआ है.
तो क्या इन तथ्यों से अखिलेश की सरकार को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता था. विकास का चेहरा उस समाज के बच्चों के हालात को देखकर समझा जा सकता है, लेकिन बच्चे राजनीतिक दलों के एजेंडों से गायब हैं. बच्चे ही क्यों, पलायन जैसे हालात पर भी तो बात की जा सकती थी. कौन नहीं जानता कि यूपी से मुंबई या दूसरे शहरों की तरफ जाने वाली रेलगाड़ियां क्यों सालभर ठसाठस भरी रहती हैं.
जनगणना, 2011 के आंकड़े भी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश से 37 लाख 42 हजार लोग काम या रोजगार के लिए पलायन पर हैं. उत्तर प्रदेश देश में चौथा सबसे ज्यादा पलायन करने वाला राज्य है. पिछले साल उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड सहित एक बड़ा इलाका सूखे की चपेट में रहा, इस सूखे की स्थिति की तकलीफों को दूर कर पाने में सरकार कितनी कामयाब रही, यह सभी को मालूम है. मनरेगा का काम ज़मीनी स्तर पर कितना क्रियान्वित हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है, लेकिन अब की राजनीति लोकहित के इन विषयों को गंभीरता से छूती है, ऐसा नहीं लगता.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Feb 27, 2017
क्या यह सनसनीखेज़ राजनीति का दौर है...
Rakesh Kumar Malviya
- चुनावी ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 27, 2017 15:37 pm IST
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Published On फ़रवरी 27, 2017 15:37 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 27, 2017 15:37 pm IST
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