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This Article is From Sep 09, 2015

मैं बिहार हूं, मेरे लिए किसकी झोली में क्‍या?

Reported By Ravish Kumar
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 21, 2015 17:48 pm IST
    • Published On सितंबर 09, 2015 21:22 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 21, 2015 17:48 pm IST
मैं बिहार हूं......हूं तो हूं.... मैं जो था वही हूं जो हूं वही रहूंगा। बिहार क्या है, कौन है बिहार? दरअसल ये सवाल ही क्यों है कि किसका है बिहार। ऐलान ही तो हुआ है कि पांच चरणों में मुझे लेकर चुनाव होंगे। इन तमाम चेहरों के बीच मुझे लेकर लड़ाई है, चेहरों का चेहरों से गठबंधन हुआ है, नीयत का नीयत से कोई बंधन नहीं हुआ है, नीति का नीति से कोई नाता नहीं हुआ है।

हर चेहरे के पीछे एक नाम है, हर नाम का एक जात है। शर्मा, पांडे, मिश्रा, झा, तिवारी, सिन्हा, मंडल, राम, पासवान, मांझी, यादव, कुमार, कुशवाहा, राय, ख़ान, हुसैन, श्रीवास्तव। हज़ारों जातियों को मिलाकर सब मेरी लस्सी बनाने वाले हैं, जोड़ जोड़ कर घोट घोट कर पी जाने वाले हैं। मैं अपर कास्ट हूं, मैं दलित हूं, मैं महा दलित हूं, मैं ओबीसी हूं, मैं ईबीसी हूं, मैं मुसलमान हूं, मैं पसमांदा मुसलमान हूं।

किसी का इतिहास देख लीजिए, किसी का वर्तमान देख लीजिए, सबने सबका ख़ून पीया है, सबने सबका ख़ून चूसा है, लड़ा है सबने सबसे, मिले हैं सब सबसे। तभी तो कहा कि मैं अशोक के मिट जाने के बाद भी बचा हुआ हूं, मैं चाणक्य के बिना भी बचा हुआ हूं, मैं बुद्ध से लेकर गांधी के बाद भी बचा हुआ हूं, मैं यहां हूं पटना के डाकबंगला चौराहे पर। हर दिशा यहां आकर अटक जाती है, हर दशा यहां आकर बिगड़ जाती है।

मैंने सबको यहां से गुज़रते देखा है। हर दौर में हर पार्टी के नेता को यहां से जाते देखा है। पान की दुकान पर कौन पान खाकर नेता नहीं बना, यहां की लस्सी पी कर कौन पटना से नहीं गुज़रा। मेरी हर सोच का नमूना डाकबंगला चौराहे पर मिलेगा आपको, हॉर्न बजाने की यहां प्रतियोगिता चलती रहती है, जो जोर से चिल्लाएगा वो ट्रैफिक जाम पार कर जाएगा। किस शहर में नहीं है ट्रैफिक जाम, जब दिल्ली जाम है, अहमदाबाद जाम है, मुंबई जाम है तो डाकबंगला क्यों न जाम रहे। नेताओं ने भी अपने भाषणों से मुझे डाकबंगला की तरह जाम कर दिया है। हर तरफ से वादे हो रहे हैं हर तरफ से दावे चले आ रहे हैं।

हज हज, बज बज, कच कच, गज बज....रे साइड दे...देखता नहीं है रे...न लौकते हउ...बोले ओकरा...अरे सुन रे छोकरा...। वाकई मेरे बदलने के लिए विकास नाम से इतने चेहरे मैदान में हैं, मैं जो हूं वो अब न रहूंगा। डॉक्टर फीस कम कर देंगे, मास्टर कोचिंग में नहीं स्कूल में पढ़ायेंगे, मेरी ग़रीबी दूर हो जाएगी, टाटा बिड़ला अंबानी अदानी बिहारी हो जाएंगे। कुछ होने से पहले कुछ कर देने वालों से एक सवाल है मेरा, मुझे छोड़ कर जो बाहर गए उन्हीं का क्या हो गया?

सूरत, लुधियाना, मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, हरियाणा मज़दूरों की बस्तियों में पखाना पेशाब के लिए मैं रोज़ लाइन में लगता हूं, मकान मालिकों का गुलाम हूं और कंपनियों के लिए कच्चा आम। जिन उद्योगों के आने से मेरी किस्मत चमकेगी उन उद्योगों के पास जाकर मैं अंधेरे में क्यों हूं। इन चेहरों से ज़रा पूछियेगा क्या कभी गए हैं मज़दूरों की बस्तियों में जहां बिहार रहता है, जहां बिहार लात खाता है, गाली खाता है और जब जिसका मन करता है उठा कर रेहड़ी पटरी से फेंक देता है।

अशोक चाणक्य बुद्ध महावीर की धरती नाम की है, राजनीति के भीतर देखिये इनकी बातों का एक तिनका नहीं दिखेगा। अशोक का बिहार है तो बिहार से बाहर गए ग़रीब मज़दूरों के लिए अशोक का क्या काम है। मगध उसका तकिया है या कांटे का ताज है। अपने बोगस इतिहास को सर पर लादे ये बिहारी फिर शौचालय की कतार में क्यों खड़ा है? इनके मकानों में रोशनी नहीं है, खाने की जगह पर सफाई नहीं है।

हर साल छठ में घर जाने के लिए रेल गाड़ियों में यह बोरियों की तरह ठूंस दिया जाता है। पखाने के भीतर बैठकर बिहार क्यों सफर करता है? मुझे क्या बना देने जा रहे हैं ये लोग, जहां से हमें लौटा कर ये बिहार लायेंगे। क्या वहां कोई स्वर्ग बसा चुके हैं जो यहां बसायेंगे? फिर भी मैं उत्साहित हूं कि मुझे बदलने के लिए कुछ प्रोत्साहित हैं, हंगामा है, रैलियां हैं, घमासान है, हम अच्छे हैं दूसरा ख़राब है। मंच और मचान सजा दिए गए हैं हर तरफ दुकान और मकान के बीच पोस्टर और बैनर लगा दिये गए हैं। खर्चा और पर्चा से भर गया हूं.... बदलने वाले जब बदलेंगे, फिलहाल मैं बिहार हूं....हूं तो हूं....।

बिहार में चुनाव का ऐलान हो गया है। 12 अक्टूबर को पहले चरण का मतदान होगा और 16, 28 और 1 नवबर के बाद पांच नवंबर को पांचवे चरण का मतदान होगा। 8 नवंबर को नतीजे आ जायेंगे। इतना लंबा चुनाव कि चुनाव कवर करने वाले भी लंबे हो जाएंगे। बिहारी ज़बान में लमर जाएंगे। तो सवाल वही है जो कहीं नहीं है। ये चुनाव किस लिए हो रहा है। दिल्ली के लिए हो रहा है या बिहार के लिए। क्या ये सच है कि जाति का चुनाव है, क्या ये सच है कि विकास का चुनाव है, क्या ये सच नहीं है कि जाति में विकास है और विकास में जाति है। हर चुनाव पिछले चुनाव से अलग होता है। ये विकास क्या है। कभी पैकेज की शक्ल में विकास आता है तो कभी पैकेट की शक्ल में विकास खो जाता है। क्या बिहार का चुनाव हमारी राजनीति में कोई नया आदर्श कायम करने वाला है, कोई नई दिशा देने वाला है या हर तरफ से जुटान है। कहीं से भी टूटते चले आए, किसी से भी जुड़ते चले जाओ।

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