भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल को उन लोगों के नाम बताने में क्या परेशानी है जिन्होंने 50 करोड़ से लेकर 1 लाख करोड़ तक के लोन नहीं चुकाए हैं. भारतीय रिज़र्व बैंक कौन होता है उनकी इज्ज़त या साख की चिन्ता करने वाला वो भी जो बैंक का लोन नहीं चुका रहे हैं. क्या रिज़र्व बैंक आम किसानों की सामाजिक इज़्ज़त का भी ख़्याल करता है. क्या यह अच्छा है कि सूचना आयुक्त रिज़र्व बैंक के गवर्नर को याद दिलाएं कि दाम न मिलने के कारण कर्ज़दार किसान मौत को गले लगा लेता है और आप हैं कि बड़े कर्ज़दारों के नाम तक ज़ाहिर नहीं करते हैं.
14 मार्च को भारत सरकार सभी बैंकों को निर्देश दे चुकी है कि जिन्होंने 50 करोड़ से अधिक लोन लिए हैं और नहीं चुकाएं हैं उनके नाम और अन्य जानकारियां अखबारों में छापी जाएं. उन्हें नेम और शेम किया जाए यानी शर्मिंदा किया जाए. फिर रिज़र्व बैंक क्यों नहीं नाम बता रहा है. दिसंबर 2017 तक के आंकड़े के अनुसार 9063 बकायेदारों पर करीब 11 लाख करोड़ रुपया बाकी है जिसे हम एनपीए कहते हैं. क्या गवर्नर ने सरकारी बैंकों से पूछा, या सरकार ने सरकारी बैंकों से पूछा कि हमारे आदेश के बाद भी आपकी वेबसाइट पर लोन न देने वालों की लिस्ट क्यों नहीं है.
यह आदेश तब आया था जब नीरव मोदी, मेहुल चौकसी कई हज़ार के लोन की हेराफेरी के बाद लापता हो गए यानी विदेश भाग गए. मार्च से नवंबर आ गया. अब हंगामा है कि केंदीय सूचना आयुक्त श्रीधर अचार्युलु ने भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर को नोटिस भेज कर 16 नवंबर तक जवाब देने के लिए कहा है. पूछा है कि बड़े डिफॉल्टरों के नाम न उजागर करने के कारण आप पर अधिकतम जुर्माना क्यों न लगाया जाए. आपके मातहत सूचना अधिकारी को दंडित करने का कोई मतलब नहीं क्योंकि रिज़र्व बैंक के प्रधान सूचना अधिकारी गवर्नर ही होते हैं. सूचना आयुक्त ने गवर्नर उर्जित पटेल की ही एक बात को याद दिलाते हुए फटकार लगाई है.
20 सितंबर को केंद्रीय सतर्कता आयोग के एक कार्यक्रम में बोलते हुए उर्जित पटेल ने कहा था कि सतर्कता आयोग के दिशानिर्देशों का मकसद सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता, ईमानदारी और शुचिता की संस्कृति को बढ़ावा देना है. तब सूचना आयुक्त श्रीधर अचार्युलु ने पूछा है कि आयोग का मानना है कि रिज़र्व बैंक के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर जो बात कहते हैं और जो उनकी वेबसाइट पर सूचना के अधिकार की जो नीति है, दोनों में कोई समानता नहीं है. सतर्कता रिपोर्ट को दबाया जा रहा है. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने सूचना आयोग के आदेश को सही माना है. सूचना न देने के लिए सूचना अधिकारी को दंडित करने से कुछ नहीं होगा क्योंकि वह तो शीर्ष अधिकारियों के निर्देश पर काम करता है.
गवर्नर ही नहीं प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त मंत्रालय से भी पूछा गया है कि 4 फरवरी 2015 को पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने आपको जिन बकायेदारों की लिस्ट दी थी और जिनके खिलाफ कई एजेंसियों से जांच कराने की बात कही थी, उनके नाम सार्वजनिक कीजिए. आप जानते हैं कि 6 सितंबर 2018 को रघुराम राजन ने संसद की आंकलन समिति को 17 पन्नों के एक नोट्स में यह सब बातें लिखी थीं. क्या प्रधानमंत्री कार्यालय रघुराम राजन की दी गई सूची को सार्वजनिक करेगा, जिनमें लोन न चुका कर और दस्तावेज़ों में हेराफेरी कर लोन के पैसे को एडजस्ट करने की बात लिखी है. जब सरकार का आदेश है बैंकों को तब नाम सार्वजनिक क्यों नहीं हो रहे हैं. सब निर्गुण भाव से बात क्यों कर रहे हैं, रिपोर्ट क्यों नहीं दे रहे हैं.
तो इतनी बड़ी बड़ी संस्थाएं इन हज़ार करोड़ के बकायेदारों को क्यों बचाती हैं, तो फिर ये किसानों को क्यों नहीं बचाती हैं जो मात्र एक लाख के लोन के कारण आत्महत्या कर लेते हैं. आपको नाम क्यों नहीं बताया जाता है, नाम जानने से क्या होगा, यह सवाल भी खुद से पूछना चाहिए. जब आप हज़ारों करोड़ों के बकायदारों के आधिकारिक रूप से नाम जान जाएंगे तो आप यह भी देख सकेंगे कि इतना बड़ा लोन लेकर कैसे यह बंदा मस्त है, बड़े बड़े नेताओं के साथ घूम फिर रहा है.
अप्रैल महीने में पुणे के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ बैंकिंग में बोलते हुए डिप्टी गवर्नर विश्वनाथन ने कहा था कि बैंकों के लोन का सही मूल्यांकन बैंकों को भी सूट कर रहा है और सरकार को भी सूट कर रहा है. और लोन लेकर नहीं चुकाने वालों को भी सूट कर रहा है. बैंक अपना बहीखाता साफ सुथरा कर लेते हैं और बकायेदार डिफॉल्टर का टैग लगने से बच जाते हैं. हालत यह है कि कोई सींग नहीं पकड़ रहा है सब उंगली दिखा रहे हैं कि बैल उधर है. नॉन परफॉर्मिंग एसेट यानी एनपीए पिछले आठ साल से लगातार बढ़ता जा रहा है. लोकसभा में वित्त राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ला के एनपीए और लोन फ्रॉड पर कई बयान मिलते हैं.
6 अप्रैल 2018 को लोकसभा में बताते हैं कि मार्च 2015 में बैंकों का एनपीए 2 लाख 67 हज़ार करोड़ था. 30 जून 2017 को बैंकों का एनपीए बढ़कर 6 लाख 89 हज़ार करोड़ हो गया. फिर एक और बयान है कि 31 दिसंबर 2017 तक 7 लाख 77 हज़ार करोड़ एनपीए हो गया. तो आपने देखा कि मार्च 2015 से जून 2017 के बीच एनपीए चार लाख करोड़ अधिक हो गया. जून 2017 से दिसंबर 2017 के बीच एक लाख करोड़ बढ़ गया. एक और एंगल से देखिए तो मार्च 2015 से लेकर 31 दिसंबर 2017 तक पांच लाख करोड़ एनपीए बढ़ गया.
अब बात हरेन पांड्या हत्या मामले की. गुजरात मॉडल की बात होती है. सख्त प्रशासन की बात होती है. लेकिन ऐसा कैसे हो गया कि 2003 में राज्य के गृहमंत्री हरेन पांड्या की हत्या होती है और 15 साल बाद भी किसी को सज़ा नहीं होती है. हत्यारा नहीं पकड़ा जाता है. अगर एक गृहमंत्री की हत्या का आरोपी पकड़ में नहीं आता है, इस मामले में फैसला देते हुए 2011 में गुजरात हाईकोर्ट ने जांच एजेंसी की कड़ी आलोचना की थी.
कई जगहों पर बताया कि कैसे एजेंसी ने सही तरीके से जांच नहीं की. उसके बाद भी सीबीआई ने नए सिरे से जांच नहीं की. बल्कि अपने चार्जशीट के आधार पर गुजरात हाईकोर्ट से बरी हुए 12 आरोपियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई. सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला नहीं आया है. अब इस मामले में एक नया मोड़ आया है. कथित रूप से सोहराबुद्दीन तुलसीराम प्रजापति एनकाउंटर केस में मुंबई में सुनवाई चल रही है. इस केस में गवाह नंबर 207 ने कहा है कि सोहराबुद्दीन ने आईपीएस अफसर डी जी वंजारा के कहने पर हरेन पांड्या को मरवा दिया था. हरेन पाड्या बीजेपी के विधायक थे, गृहमंत्री थे, गवाह के इस बयान पर किसे सक्रिय होना चाहिए था, बीजेपी को या दि वायर को. क्या इस बयान के बाद बीजेपी को नए सिरे से जांच की मांग नहीं करनी चाहिए थी, मंत्रियों को ट्वीट नहीं करना था, अमित शाह को आश्वासन नहीं देना था. पर क्या किसी ने बोला है.
क्या यह साधारण बयान है कि आईपीएस अफसर ने गृहमंत्री की हत्या करवा दी. गवाह नंबर 207 का कहना है कि उसने यही बात 2010 में सीबीआई के जांच अधिकारी एनएस राजू से भी कही थी तब राजू ने उसे चुप करा दिया. गवाह भी किसी मामले में सज़ायाफ्ता है. दि वायर ने इस हत्याकांड, इसकी जांच और मुकदमे की प्रक्रिया पर विस्तार से लिखते हुए बताया है कि हरेन पांड्या की हत्या के पहले उनकी सुरक्षा हटा ली गई थी. अगले दिन उनकी लाश मिली. सीबीआई मानती है कि पांड्या की हत्या मुस्लिम कट्टरपंथी के इशारे पर हुई. मुफ्ती सुफियां कथित रूप से पाकिस्तान भाग गया. 2011 में गुजरात हाई कोर्ट ने इस मामले में 12 आरोपियों को बरी कर दिया. हाईकोर्ट ने अपने आदेश में जांच एजेंसी की कड़ी आलोचना की थी. कहा कि जांच एजेंसी ने काफी घालमेल किया है. सीबीआई की जांच वाई सी मोदी कर रहे थे जिन्हें 2017 में एनआईए का निदेशक बना दिया गया.
This Article is From Nov 06, 2018
बड़े डिफॉल्टरों पर आरबीआई इतना मेहरबान क्यों?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 06, 2018 00:19 am IST
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Published On नवंबर 06, 2018 00:19 am IST
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Last Updated On नवंबर 06, 2018 00:19 am IST
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