पांच सौ से अधिक नए दफ्तर क्यों बना रही है बीजेपी...

पांच सौ से अधिक नए दफ्तर क्यों बना रही है बीजेपी...

भारतीय जनता पार्टी के नए मुख्यालय के भूमिपूजन की बात सामान्य खबर से ज्यादा की हैसियत नहीं पा सकी. इसकी वजह अन्य महत्वपूर्ण खबरें जरूर रही होंगी लेकिन एक वजह यह भी हो सकती है कि पत्रकार और पाठक किसी पार्टी की कार्यप्रणाली में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखते हैं. कोई पार्टी यह ऐलान करे कि दिल्ली में अत्याधुनिक मुख्यालय के साथ साथ 525 जिला मुख्यालयों में आधुनिक सुविधाओं से लैस दफ्तर बनाने जा रही हैं, तो निश्चित रूप से कोई सामान्य घटना नहीं है. दिल्ली से लेकर मंडल स्तर तक के कार्यकर्ताओं से लेकर घटनाओं तक का दस्तावेज तैयार करना रोजमर्रा की कवायद नहीं लगती है.

राखी के दिन दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर नए मुख्यालय का भूमिपूजन हुआ है. नई इमारत के बारे में जो जानकारियां छपी हैं वे बताती हैं कि बीजेपी की कार्यप्रणाली में काफी कुछ बदलाव आ रहा है. दो साल में जब यह मुख्यालय बनकर तैयार हो जाएगा तब इसमें 70 कमरे होंगे. वाई फाई से लैस इमारत में सेमिनार रूप, कॉन्फ्रेंस हॉल, लाइब्रेरी, पढ़ने का कमरा, कॉफी और कैंटीन के अलावा स्क्रीनिंग रूम होगा, प्रवक्ताओं के लिए स्टूडियो बने होंगे जहां से वे तमाम टीवी चैनलों में होने वाली बहसों में हिस्सा ले सकेंगे. इस मौके पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी की कार्यपद्धति के आधुनिकीकरण पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि संगठन और व्यापक विस्तार, कार्यकर्ताओं और देश की जनता के साथ सीधे जुड़ाव के लिए भारतीय जनता पार्टी ने निर्णय लिया है कि देश के सभी 525 संगठनात्मक जिलों में पार्टी का अपना सभी सुविधाओं से सुसज्जित एक अत्याधुनिक कार्यालय होना चाहिए. बीजेपी की तरफ से जारी प्रेस रीलीज में कहा गया है.

बीजेपी ने इसके लिए 200 से अधिक जगहों पर जमीन भी खरीद ली है. एक साथ दिल्ली से लेकर जिला स्तर तक इतनी बड़ी संख्या में दफ्तरों का निर्माण मुझे चकित करता है. जाहिर है कई जगहों पर बीजेपी का दफ्तर पहले से भी होगा और वह भी काफी ठीक ठाक ही होगा. पिछले दो-तीन दशकों से बीजेपी एक साधन संपन्न पार्टी मानी जाती रही है. राजनीतिक दलों को कार्यकर्ताओं के साथ-साथ पार्टी को फंड करने वाले दानवीरों का भी आभार जताना चाहिए भले ही आधुनिक होने के बाद वे इस मामले में कभी पारदर्शी नहीं हो पाएंगे. कई लोगों ने अपनी जमीन और मकान बीजेपी के दफ्तर के लिए दान में दिए होंगे. लेकिन अब पार्टी वहां से निकलकर अपनी खरीदी हुई जमीन पर दफ्तर बनाना चाहती है.

अतीत के मोह से निकलने की ऐसी निष्ठुरता उन्हीं में होती है जिनके पास लक्ष्य साफ होता है कि करना क्या है. किसी भी पार्टी के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से यह एक बड़ा बदलाव है. दो साल के भीतर बीजेपी के लाखों कार्यकर्ता नए और सुसज्जित दफ्तरों में जाने लगेंगे. एक बड़े राजनीतिक दल का एक झटके में कार्पोरेटीकरण कोई सामान्य घटना नहीं है. यह काम बीजेपी तब कर रही है जब उसका श्रेष्ठ दौर चल रहा है. इस दौर में भी वह अपनी भूख तेज करना चाहती है कि हमें इससे भी श्रेष्ठ दौर की तरफ जाना है.

हमारे देश में राजनीतिक दल हवा के आने और जाने के भरोसे राजनीति करते हैं. लेकिन बीजेपी इस धारणा को ध्वस्त करना चाहती है. अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी की जोड़ी सामान्य कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखना चाहती है ताकि किसी को न लगे कि सत्ता आराम की चीज होती है. अमित शाह खुद भी आराम करने वाले अध्यक्ष नहीं लगते हैं. किसी पार्टी में वर्किंग प्रेसिडेंट तो सुना है लेकिन वर्करों का प्रेसिडेंट कम देखा है जिनकी शैली से चिढ़ने वाला छोटा नेता भी कह देता है कि कभी भी फोन कर देते हैं. अमित शाह अपनी इस महत्वकांझी मुख्यालय-कार्यालय योजना के जरिए दो साल बाद कार्यकर्ताओं को 2014 के मोह से भी मुक्त कर देंगे कि कभी पार्टी इस तरह से जीती थी. नए दफ्तर में उनके पास लक्ष्य नया होगा. पीछे देखने के लिए कम, सामने और आगे देखने के लिए बहुत कुछ होगा.

वर्ष 2013 के पहले कभी किसी राजनीतिक दल की भीतरी कार्यप्रणाली को गंभीरता से नहीं देखा गया. बहुजन समाज पार्टी कवर करता था तो आज से पहले ऐसी छवि बसपा के कार्यकर्ताओं के बारे में बनी थी. राजनीतिक रिपोर्टिंग के शुरुआती दिनों में सुना था कि सबसे ज्यादा दफ्तर या दफ्तर के नाम पर संपत्ति सीपीआई के पास है. सुना था, तथ्य के आधार पर नहीं कह रहा हूं. कांग्रेस ने भी राजीव गांधी के जमाने में प्रेस क्लब के पास जवाहर भवन बनाया था. जवाहर भवन आज भी आधुनिक लगता है, तब तो लगता ही होगा मगर पार्टी का मुख्यालय यहां शिफ्ट नहीं हो सका. तब राजीव गांधी को टेक्नालजी और नए जमाने की राजनीति का चस्का लगाया जा रहा था कि कांग्रेस अब बदल रही है. कांग्रेस ने शुरुआत कर अपने कदम खींच लिए. कई साल से अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय नहीं गया हूं इसलिए अभी की स्थिति नहीं बता सकता.

मुख्यालय या कार्यालय की गतिविधि किसी भी राजनीतिक दल की कार्य संस्कृति को दर्शाती है. आम तौर पर सरकार बनने पर पार्टी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के निवास से चलने लगती है. इस लेख के लिए जब गूगल सर्च कर रहा था तो पता पड़ा कि अमित शाह पार्टी आफिस में ही बैठक करना पसंद करते हैं. प्रधानमंत्री और अध्यक्ष जिस तरह से सांसदों और मंत्रियों को तरह-तरह की यात्राओं के बहाने क्षेत्र में दौड़ा रहे हैं वैसा अगर कांग्रेस के समय होता तो यही खबर आती रहती कि फलां मंत्री ने जाने से इनकार कर दिया. यहां तो गृहमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक दूरदराज के इलाकों में दौरा कर रहे हैं. अब कोई इन यात्राओं की गिनती कर यह भी अंदाजा लगा सकता है कि जब मंत्री प्रचार के दौरे पर ही हैं तो काम कौन कर रहा है... अफसर या पीएमओ!

हो सकता है कि इसके बाद भी बीजेपी के कार्यकर्ता, नेता और सांसद अपने अध्यक्ष से चिढ़ते हों. पर कीर्ति आजाद, यशवंत सिन्हा और नवजोत सिंह सिद्धू की तरह बाकियों में अभी तक हिम्मत नहीं आई है. यह भी कोई देख सकता है कि अपने श्रेष्ठ समय में अमित शाह ने प्रधानमंत्री के दो विश्वासपात्रों को झटका दे दिया. आनंदीबेन को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया तो स्मृति ईरानी का मंत्रालय बदल गया. फैसले लेने में इतनी निष्ठुरता या पेशेवराना अंदाज आजकल के बहुत कम अध्यक्षों में मिलेगा. ऐसा नहीं है कि इसके बावजूद सब आर्दश रूप में ही हो रहा है. सांसदों के लिए आदर्श ग्राम योजना फेल हो गई. लेकिन पार्टी ने सांसदों को ट्वीट करने से लेकर क्षेत्र में जाकर प्रचार करने का निर्देश देना बंद नहीं किया. 11 करोड़ सदस्य होने का दावा भी विवादित ही है. किसी बाहरी संस्था ने आडिट तो किया नहीं है. वैसे आडिट किसी भी राजनीतिक संस्था में नहीं होता है.

सत्ताधारी दल होने के बाद भी बीजेपी के तमाम संगठन बाकी दलों से ज्यादा सक्रिय नजर आते हैं. लगता है कि एक पार्टी है जो चल रही है और जिसे कोई चला रहा है. मैंने अमित शाह को एनकांउटर की रिपोर्टिंग से जाना है. उनके दिल्ली आने से पहले दिल्ली के मीडिया में उनकी खलनायकी मौजूदगी हुआ करती थी. अब उस दौर पर चुप्पी रहती है. अमित शाह ने दिल्ली में अपनी जगह बना ली है. राना अय्यूब की किताब 'गुजरात फाइल्स' पढ़ते हुए अमित शाह कुछ और नजर आते हैं और राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में कुछ और. वे मंडल स्तर के कार्यकर्ताओं का डाक्यूमेंटेशन कराना चाहते हैं. पार्टी से जुड़ी घटनाओं, उपलब्धियों और नाकामी की जानकारी जुटाई जा रही है. यह कोई साधारण बदलाव नहीं है. बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं के बीच 24 घंटे चलने वाले जनरल स्टोर या सुपर मॉल की तरह मौजूद दिख रही है. हर वक्त दुकान खुली हुई है और इस दुकान का सेठ काउंटर पर बैठा हुआ है.  


दूसरी तरफ बीजेपी के मुकाबले ज्यादातर दल तदर्थ रूप, यानी अस्थाई संगठन के रूप में चलते दिखते हैं. मेरे इस लेख का आधार हार या जीत नहीं है बल्कि पार्टी के रूप में एक संगठन की निरंतर सक्रियता है. उसकी औपचारिकता है. इस लिहाज़ से मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पिछले दो साल में भी तय नहीं कर पाई कि उसका नेता कौन होगा. उसके संगठनों की भूमिका क्या होगी. कांग्रेस को भी बीजेपी के जितना ही दूर से देखा है. फिर भी उन दस सालों मे जब कांग्रेस सत्ता में थी और अब जब वह विपक्ष में है, दोनों ही स्थितियों में कांग्रेस संस्कृति का एक लक्षण मुझे बहुत आकर्षित करता है. वह है इस पार्टी का आलस्य. एक बार राहुल गांधी ने जाने अनजाने में ठीक कहा था कि यह पार्टी कैसे चलती है, कई बार उन्हें भी समझ नहीं आता.

अमित शाह की योजनाओं पर गौर करेंगे तो वे यही कर रहे हैं ताकि कोई कार्यकर्ता यह न कहे कि यह पार्टी चलती कैसे है, समझ नहीं आता है. राहुल गांधी भले ही सोनिया गांधी की बीमारी से जूझ रहे हैं, हो सकता है उन्होंने भी काफी कुछ बदला हो, अगर ऐसा हुआ है तो दिखता क्यों नहीं है. कांग्रेस में कोई नया नेता नहीं दिखता है. बीजेपी में पुराने नेताओं की जगह नए नेता, नए प्रवक्ताओं और कार्यकर्ताओं ने ले ली है. क्या पता इसी रास्ते बीजेपी चली तो अगले चुनाव में रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री पद के दावेदार ही न रहें. अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं में असुरक्षा की यह भावना एक पार्टी के रूप में बीजेपी की धड़कनों को बढ़ाए रखती होगी.

आम तौर पर कोई भी पार्टी विपक्ष में होते ही आक्रामक और धारदार लगती है. खासकर बीजेपी जब विपक्ष में होती है तो लगता है कि सरकार भले हो न हो, मगर विपक्ष है. कांग्रेस जब विपक्ष में होती है तो लगता है कि चारों तरफ सरकार ही सरकार है. विपक्ष सरकार बनने का इंतजार कर रहा है. यही कारण है कि वैचारिक और सांगठनिक रूप से कांग्रेस आलसी पार्टी लगती है. आलस्य के अलावा दैवी कृपा पर चलने वाली पार्टी भी लगती है. जनता अपने आप जब बीजेपी को हराएगी तो हमें जिता देगी. बीजेपी की सोच इसके ठीक उलट है. अमित शाह की बीजेपी जीत के दौर में भी बार- बार जीतने की बात करती है. बीजेपी 21 वीं सदी में भले ही कई बार किसी अज्ञात सदी की पुरातन बातें करती हो लेकिन अपने समय के हिसाब से वह सबसे तैयार पार्टी है.

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