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This Article is From Jan 26, 2022

यहां से कांग्रेस कहां जाएगी? खिलेगी या ख़त्म हो जाएगी?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 26, 2022 19:22 pm IST
    • Published On जनवरी 26, 2022 19:20 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 26, 2022 19:22 pm IST

भारतीय राजनीति में- या संसदीय लोकतंत्र में- बहुत सारी चीज़ें बदल चुकी है. राजनीति में असंभव को साधने का खेल इतनी बार किया जा चुका है कि बस अब असंभव ही संभव लगता है. एक सिद्धांत के नाम पर नीतीश लालू यादव के साथ आकर सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं और दूसरे सिद्धांत के नाम पर मोदी के साथ आकर जातिवाद के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं. जम्मू-कश्मीर बचाने के नाम पर बीजेपी एक बार महबूबा मुफ़्ती को मुख्यमंत्री बनाती है और दूसरी बार गिरफ़्तार करके जेल में डाल देती है. जिस शिवसेना को कांग्रेस हिंदूवादी बताती है, उसके साथ अगले दिन सरकार बनाती है. बंगाल में कांग्रेस सीपीएम के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है और केरल में उसके विरुद्ध.

इसलिए यह नहीं कह सकते कि कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल होकर आरपीएन सिंह ने कोई वैचारिक विश्वासघात किया है या अवसरवाद का प्रदर्शन किया है. उन्होंने बस इतना किया कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद की तरह राहुल गांधी की कोर टीम से बाहर आकर एक तरह से उसके खोखलेपन की कलई खोल दी. आज जिन कांग्रेसियों को याद आ रहा है कि आरपीएन सिंह एक राजघराने से आए नेता हैं और कांग्रेस की जनवादी राजनीति से घबरा कर वे पार्टी छोड़ गए हैं, वे यह नहीं बता पा रहे कि ऐसे राजघराने वाले नेताओं को राहुल गांधी ने अपने कोर ग्रुप का नवरत्न क्यों बना रखा था. लेकिन ऐसा नहीं कि आरपीएन सिंह के पालाबदल से हम कोई राजनीतिक नतीजा निकाल नहीं सकते.

पहली बात तो यह कि राजनीति का चरित्र अब बदल गया है. पहले वह सेवा या राष्ट्र निर्माण का अवसर होती थी, अब वह करिअर है. हर नेता यह देखता है कि किस पार्टी में उसका भविष्य सुरक्षित है और कहां से उसको टिकट मिल रहा है. यह अनायास नहीं है कि सबसे ज़्यादा भगदड़ चुनाव के समय और टिकट बंटवारे के वक़्त मचती है. 2017 में सपा से बीजेपी में आने वालों का रेला था, इस बार बीजेपी से सपा में आने वालों का तांता है. कल तक जिन लोगों को सांप्रदायिकता डरा रही थी, आज उन्हें राजनीति का दाग़ी चरित्र डरा रहा है. स्वामी प्रसाद मौर्य कल तक सांप्रदायिक थे लेकिन आज वे धर्मनिरपेक्ष हैं. कल तक जो लड़की प्रियंका गांधी के 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' अभियान का चेहरा थी, वह टिकट न मिलने पर कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो जाती है. कल तक मोदी और योगी आरपीएन सिंह को फासिस्ट लग रहे थे, अब वे उनके मार्गदर्शन में राष्ट्र निर्माण में योगदान देना चाहते हैं. शायद उन्हें यह एहसास हो रहा है कि कांग्रेस में रहते उनका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है, नए आसमान की नई कुर्सियों पर बैठने के लिए उन्हें बीजेपी के शामियाने में जाना होगा.

राजनीति शास्त्र में व्यवहारवाद का अध्ययन बहुत पुराना नहीं है. बमुश्किल इसके भी सत्तर साल हो रहे हैं. लेकिन भारतीय राजनीति में यह जिन बेशर्म परिणतियों तक पहुंच गया है, उसके बाद इसके नए सिरे से अध्ययन की ज़रूरत महसूस होती है. बेशक, इसमें कांग्रेस का भी बड़ा योगदान है जिसने एक दौर में जातिवाद का कार्ड भी खेला, सांप्रदायिकता का भी, जिसने अवसरवाद का भी इस्तेमाल किया, दलबदल का भी- और इससे भी ज़्यादा- राजनैतिक भ्रष्टाचार को लगभग स्वीकृत तथ्य बना डाला.

लेकिन कांग्रेस के यही पाप रहे जिनकी वजह से उसे जाना पड़ा. दुर्भाग्य से देश को कांग्रेसमुक्त बनाने का नारा देने वाली बीजेपी लगभग वही धत्तकरम कर रही है और ख़ुद कांग्रेसयुक्त हुई जा रही है. बस इसलिए नहीं कि कांग्रेस के नेता कांग्रेस छोड़-छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो रहे हैं, बल्कि इसलिए भी कि बीजेपी ने विचारधारा की केंचुल किनारे रख दी है और सत्ता में बने रहने के लिए वे सारे प्रपंच कर रही है जो कांग्रेस करती रही थी.

बेशक, फिर भी बीजेपी और कांग्रेस में अंतर है. कांग्रेस ने कभी किसी एक विचारधारा की बात नहीं कही. वह एक तरह की अखिल भारतीयता की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी रही. लेकिन बीजेपी जिस जनसंघ या संघ परिवार की कोख से निकली, वह बात अखंड भारत की करता रहा, स्वप्न खंड-खंड भारत का देखता रहा. दरअसल बीजेपी अपने मूल से इतनी दूर आ चुकी है कि उसकी पुरानी बातें याद कर हैरानी होती है. यह पार्टी कभी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान की बात करती थी. लेकिन अब हिंदी या भारतीय भाषाएं इसके एजेंडे से ग़ायब हैं. कभी वह स्वदेशी की बात करती थी, लेकिन अब उदारवादी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी वकील है. बेशक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उसका स्वप्न कायम है लेकिन इसकी उथली समझ की वजह से वह अपनी सांस्कृतिकता को सांप्रदायिकता में तब्दील कर देती है और राम-कृष्ण और शिव जैसे अखिल भारतीय प्रतीकों को सिर्फ़ अपनी दावेदारी वाले देवताओं में बदल डालती है.

बहरहाल, बात बीजेपी की नहीं, कांग्रेस की हो रही है. लेकिन मुश्किल यह है कि बीजेपी कांग्रेस जैसी हुई जा रही है. अब तो वह यह पूछने की हालत में भी नहीं बचेगी कि सत्तर साल तक किन लोगों ने देश को लूटा. क्योंकि जिन लोगों पर वह इस लूट का इल्ज़ाम धरना चाहती है, उनके वंशज अब उसके घर में बैठे हैं. आख़िर सत्तर साल की लूट के आरोप से ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद जैसे नेता अपने पिता को कैसे बरी कर सकते हैं?

मगर असली सवाल यही है कि कांग्रेस का क्या होगा. कभी आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद देश की विविधवर्णी एकता का शामियाना बनी कांग्रेस तार-तार होती अब रुमाल रह गई है और लगता है कि रुमाल की भी चिंदियां हो रही हैं.

राहुल और प्रियंका की असली चुनौती यही है. कांग्रेस नाम के जर्जर भवन का पुनरुद्धार करने की कोशिश में वे पा रहे हैं कि जगह-जगह से इसका पलस्तर झर रहा है, दीवार दरक रही है और इसमें काफी टूट-फूट होनी है. सच तो यह है कि पुरानी कांग्रेस को तोड़ कर ही वे नई कांग्रेस बना सकते हैं. क्या उनके पास ऐसी वास्तुशिल्पीय दक्षता या ऐसा विश्वकर्मा बल है? इस सवाल का तात्कालिक जवाब तो नाउम्मीद करता है. ख़ास कर यह देखते हुए कि इस क़वायद में उन्हें कांग्रेस को उस बीजेपी के सामने खड़ा करना है जहां नरेंद्र मोदी जैसी अपार लोकप्रियता वाले प्रधानमंत्री के अलावा कई खुर्राट और दिग्गज नेता मौजूद हैं. यही नहीं, ख़ुद कांग्रेस के भीतर पहले से मौजूद खुर्राट नेताओं से भी उन्हें निबटना है.

इसके अलावा भारतीय राजनीति में संसदीय लोकतंत्र के सामने जो जड़ताएं हैं और जिनके निर्माण में कभी कांग्रेस का भी हाथ रहा है, वे भी ऐसे किसी पुनर्निर्माण की बाधा बनेंगी. जहां चुनाव धार्मिक पहचानों और जातिगत आधारों पर लड़े जा रहे हों, जहां जातियों और उपजातियों के हिसाब से नई-नई पार्टियां बन रही हों, वहां किसी नए रास्ते की तलाश कोई आसान काम है?

लेकिन संभव और असंभव के इस खेल में या तो आप ख़त्म हो जाने को अभिशप्त हैं या फिर राजनीति की नई गली खोज कर रास्ता निकालने को मजबूर. इस लिहाज से प्रियंका गांधी का एक दांव कम से कम ध्यान खींचने वाला है. फिलहाल उन्होंने उत्तर प्रदेश में गठजोड़ की राजनीति को ना कहते हुए 40 फीसदी टिकट महिलाओं को देने का फ़ैसला किया है. कहा जा सकता है कि लुटी-पिटी कांग्रेस ही ऐसा फ़ैसला कर सकती है और उसके उदार मूल्यांकनकर्ता ही इसे दांव बता सकते हैं. क्योंकि वैसे भी कांग्रेस को हारना ही है.

लेकिन यह बात इतनी निश्चयात्मकता के साथ न क्रिकेट में कही जा सकती है और न भारतीय राजनीति में. हमने अतीत में बहुत सारे बिल्कुल तय लगने वाले परिणामों को पलटते देखा है. 1984 में सारे जानकार राजीव गांधी की हार का दावा कर रहे थे. वे ऐसे जीते जैसे आज तक कोई नहीं जीता. 2003 में अटल-आडवाणी की अपराजेय लगती जोड़ी को तब बिल्कुल नौसिखिया नज़र आती सोनिया गांधी ने मात दी थी और उसके बाद प्रधानमंत्री पद लेने से इनकार कर उन्हें उनका बौनापन दिखाया था. 2014 में नरेंद्र मोदी की ऐसी विराट जीत की कल्पना किसी ने नहीं की थी और 2015 के दिल्ली के चुनावों में केजरीवाल की.

इसी तरह कांग्रेस के अंत की घोषणा भी कई बार हो चुकी है. 1967 में जब नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं तो कहा गया कि कांग्रेस अब ख़त्म हो रही है. 1969 में कांग्रेस टूटी तो कहा गया कि अब तो कुछ नहीं बचा. 1977 की हार के बाद जब पहली बार केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनी तब भी कांग्रेस के ख़त्म होने की भविष्यवाणी कर दी गई. इसे अटल आडवाणी के दौर में भी दुहराया गया और अब नरेंद्र मोदी के समय भी कहा जा रहा है. लेकिन कुछ इस देश की मिट्टी का कमाल है और कुछ कांग्रेस नाम की दूब का करिश्मा कि वह अपनी राख से जैसे जी उठती है.

और बहुत मामूली लगते फ़ैसलों ने देश की राजनीति को अतीत में भी बदला है. जब 1930 में महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह की कल्पना की तो कई लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई. कहते हैं, नेहरू भी इसको लेकर दुविधा में थे. सरदार पटेल की राय भी अलग थी. स्टेट्समैन जैसे अख़बार ने लिखा कि इस पर हंसा न जाए तो क्या किया जाए. लॉर्ड इरविन ने कहा कि वे ऐसे क़दम पर अपनी नींद ख़राब नहीं करेंगे.

लेकिन इतिहास बताता है कि इस सत्याग्रह ने पूरे ब्रिटिश साम्राज्य की नींद उड़ा दी और बाक़ी दुनिया की आंख खोल दी. बेशक, न प्रियंका गांधी महात्मा गांधी हैं और न ऐसी तुलना का कोई इरादा है. लेकिन 'मैं लड़की हूं, लड़ सकती हूं' जैसे अभियान की खिल्ली उड़ाने वाले लोग इसकी संभावनाओं से पूरी तरह परिचित नहीं हैं. दरअसल सवा अरब से ज़्यादा की आबादी वाले हिंदुस्तान में यह उसकी आधी आबादी ही है जो धर्म और जाति की बेड़ियों से संख्या बल में भी बड़ी हो सकती है और उसके अलग-अलग खानों में आसानी से घुसपैठ भी कर सकती है.

हालांकि यह सब लिखने का आशय कांग्रेस की वापसी का एलान करना या प्रियंका पर भरोसा जताना नहीं है. बस यह याद दिलाना है कि आज़ाद भारत के संसदीय लोकतंत्र ने इतिहास की कई करवटें देखी हैं और हबीब जालिब का यह मशहूर शेर हमारी राजनीति पर सबसे खरा उतरता है- 'तुमसे पहले वो जो इक शख़्स यहां तख़्त-नशीं था / उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था.'

और जो लोग कहते हैं कि मोदी की जगह कौन, उनको समझना चाहिए कि सत्ताएं इसलिए नहीं बदलतीं कि उनके विकल्प होते हैं, वे इसलिए बदलती हैं कि जनता उनसे निराश हो जाती है. 2004 में सोनिया गांधी अटल-आडवाणी का विकल्प नहीं मानी जाती थीं और 2014 में मोदी मनमोहन के विकल्प नहीं लगते थे. इतिहास बड़े-बड़े सूरमाओं को कूड़ेदान में फेंक देता है और बहुत मामूली लगने वाले लोगों को सितारा बना देता है.

बात जहां से शुरू हुई थी, वहां लौटें. पार्टी बदलने वाले नेताओं ने शायद ही कभी इतिहास बदला है. कांग्रेस को चुनौती देने वाले फिर कांग्रेस में लौट कर आते रहे या फिर कांग्रेस से तालमेल करते रहे. बीजेपी से जाने वाले कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे दिग्गज नेता अंततः अपने घर लौटने को मजबूर हुए. अंततः पार्टियां नेताओं से बड़ी साबित होती हैं. कांग्रेस अभी जहां है, उससे नीचे नहीं जा सकती. इसलिए किसी भी नेता के जाने से उसको फ़र्क नहीं पड़ता. बेशक पिछले वर्षों में वह केंद्रीय सत्ता के विरोध की सबसे बड़ी धुरी रही है. यह उसका नया अर्जित वैशिष्ट्य है जिसे उसने ख़ास तौर पर प्रियंका की ज़मीनी लड़ाइयों से अर्जित किया है. फिलहाल कांग्रेस को इंतज़ार करना है- 2022 के यूपी चुनावों या 2024 के लोकसभा चुनावों तक ही नहीं, संभवतः उसके बाद भी. लेकिन एक लंबी लड़ाई के सब्र और उसकी रणनीति से ही उसका अपना रास्ता मिलेगा- जो भारतीय लोकतंत्र के लिए भी ज़रूरी होगा.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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