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This Article is From Apr 29, 2016

भ्रष्टाचार के खुलासों के बीच इनसे निपटने के लिए बना लोकपाल आखिर है कहां...

Rakesh Tiwari
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 29, 2016 14:01 pm IST
    • Published On अप्रैल 29, 2016 12:01 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 29, 2016 14:01 pm IST
शराब कारोबारी और किंगफिशर एयरलाइंस के मालिक विजय माल्या के जनता के करोड़ों रुपए डकार कर देश से फरार होने का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि अगस्तावेस्टलैंड घोटाले ने 'आग' पकड़ ली है। और तो और इसकी आंच पूर्व सेना प्रमुख के साथ-साथ अब कथित रूप से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी तक भी जा पहुंची है। माल्या या अगस्ता जैसे अभी ऐसे कई घोटाले होंगे जो दबे हुए हैं। दरअसल माल्या या उन जैसे लोन के पैसे डकार जाने वालों का मामला भी भ्रष्टाचार से ही जुड़ा हुआ है, क्योंकि बैंकों का सैकड़ों-हजारों करोड़ का लोन नहीं चुकाने वाले इन उद्योगपतियों को फिर से लोन देना, बैंक अधिकारियों या कर्मियों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं। इन भ्रष्टाचारियों का पता लगाने और इनसे निपटने के लिए एक विशेष प्रहरी की बात कुछ सालों से चली आ रही है, जिसके लिए कानून भी बन गया है। अब आपका ध्यान सहज ही लोकपाल की ओर जाएगा, पर क्या आपने सोचा कि यह लोकपाल है कहां... आओ पता लगाएं...

अन्ना आंदोलन के दिनों को याद कीजिए, सारा देश आंदोलित था... हमारे नेता भी इस मुद्दे पर कुछ सक्रिय दिख रहे थे, भले ही वह ऐसा जनता के दबाव में कर रहे थे। जनता सोच रही थी कि लोकपाल आएगा और भ्रष्टाचारी ठीक वैसे ही बिलों से बाहर निकलना शुरू हो जाएंगे, जैसे कि 'सांपों' के बिल में पानी भर गया हो। पर आप सोच रहे होंगे कि बिल तो चूहों का होता है और 'सांप' तो उस पर कब्जा जमा लेते हैं। पर यह भ्रष्टाचारी भी तो 'सांप' के ही समान हैं, जो जनता के टैक्स के पैसे पर ऐश करके अपने ही देश को खोखला कर रहे हैं। हमें लोकपाल से ही इनके बिलों में 'पानी' डालने की उम्मीद थी, पर अभी तो लोकपाल ही बाहर नहीं आ पाया है, फिर यह है कहां...

संसद में पास होने के बाद भी अड़चनों में उलझा लोकपाल
दरअसल साल 2011 में यूपीए के शासन के दौरान लोकपाल बिल लोकसभा से पास होने के बाद राज्यसभा में अटक गया था। फिर यह फेरबदल के साथ दिसंबर, 2013 में संसद से पारित हो गया और जनवरी, 2014 में राष्ट्रपति ने भी हस्ताक्षर कर दिए। तब लगा कि अब तो 'लोकपाल का राज' कायम जाएगा, लेकिन उसकी और टीम की नियुक्ति का मामला अटक गया या यूं कहें लटका दिया गया, कई विवाद रहे। कांग्रेस सरकार के दौर में मार्च, 2014 में देश में पहले लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया के लिए बनाई गई लोकपाल खोज समिति के अध्यक्ष जस्टिस केटी थॉमस ने चयन की स्वतंत्रता का मुद्दा उठाते हुए अपना पद त्याग दिया।

फिर मोदीजी की सरकार आ गई और उनसे बड़ी उम्मीदें थी कि वह तो इसका गठन कर ही देंगे। उन्होंने कदम भी उठाया और अगस्त, 2014 में लोकपाल नियुक्ति के तरीके में बदलाव करने का फैसला कर लिया। लोकपाल विधेयक पर विचार करने वाली संसदीय समिति गठित कर दी गई। 31 सदस्यीय समिति ने दिसंबर, 2015 में लोकपाल बिल पर अपनी रिपोर्ट भी पेश कर दी, लेकिन इसके चार महीने बाद भी लोकपाल तय करने के लिए बनने वाले खोजपालों का ही अब तक पता नहीं है। फिर लोकपाल की तो बात ही छोड़ दीजिए।

इससे दुखी होकर देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के जनक समाजसेवी अन्ना हजारे ने तो कुछ महीनों पहले यहां तक कह दिया था कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार खत्म करने के प्रति गंभीर नही लगते। संसद में बिल पारित होने के एक साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी लोकपाल नहीं बन पाना सरकार की भ्रष्टाचार के प्रति रुख को स्पष्ट करता है।

भ्रष्टाचार को कोसकर केजरीवाल बने सीएम, मोदीजी पीएम
अब जरा गौर कीजिए लोकपाल भले नहीं आया, लेकिन इसका फायदा उठाकर जहां अरविंद केजरीवाल दूसरी बार भी दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए, वहीं मोदीजी लोकसभा चुनावों से पहले भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस को कोस-कोसकर और विकास के सपने दिखाकर प्रधानमंत्री बन गए। बस नहीं बना तो लोकपाल ! मोदीजी समय-समय पर भ्रष्टाचार की चर्चा करते रहते हैं, लोकपाल का कई बार जिक्र भी किया है, लेकिन सरकार बनने के बाद उतनी सक्रियता नहीं दिखाई, जैसी चाहिए थी।

पीएम मोदी को अपने इस कथन पर ध्यान देना चाहिए- 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा।' पर यह होगा कैसे। किसी को भी भ्रष्टाचार करने से रोकने के लिए एक प्रहरी तो चाहिए ही। कानून भी बन गया, लेकिन मूर्त रूप नहीं ले पाया... कहीं यह भी चुनावी जुमला न साबित हो जाए...हालांकि अभी उनके पास तीन साल तो हैं ही..हमें गलत साबित करने के लिए...

राकेश तिवारी एनडीटीवी खबर डॉट कॉम में डिप्‍टी न्‍यूज एडिटर हैं...

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