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This Article is From Mar 08, 2015

आम आदमी पार्टी में क्या हो रहा है?

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    मार्च 08, 2015 12:25 pm IST
    • Published On मार्च 08, 2015 12:13 pm IST
    • Last Updated On मार्च 08, 2015 12:25 pm IST

आम आदमी पार्टी में क्या हो रहा है। क्या ये पार्टी भी बाकी पार्टियों जैसी हो गई है। पिछले एक हफ्ते से यह सबसे ज़्यादा पूछा जाने वाला सवाल बन गया है। आम आदमी पार्टी के समर्थक, वोटर तो पूछ ही रहे हैं, दूसरे दल के नेता और समर्थकों की भी दिलचस्पी बनी हुई है। यह सवाल पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र के प्रति काफी आशान्वित करता है। चुनावों के बीच-बीच में ऐसे सवाल मुखर होते रहने चाहिए।

लोकतंत्र की रसोई सिर्फ सरकार में नहीं बनती है, पार्टियों के भीतर और घरों में भी बनती है। इस पूरे विवाद का एक सकारात्मक हासिल यही है कि लोग पूछ रहे हैं कि आम आदमी पार्टी में क्या हो रहा है। यह तो दावा नहीं कर सकता कि पहली बार हो रहा है मगर बहुत ज़माने के बाद सुनने को तो मिल ही रहा है। अरविंद केजरीवाल सही हैं या योगेंद्र यादव इस खेमेबाज़ी से निकल कर पार्टी कैसे चलती है का सवाल फिर से नया नया सा हो गया है।

क्या आप जानते हैं कि किसी पार्टी का संसदीय बोर्ड कब राष्ट्रीय कार्यकारिणी से ताकतवर बन जाता है और कब राष्ट्रीय कार्यकारिणी मज़बूत अध्यक्ष के सामने काग़ज़ी संस्था बनकर रह जाती है। क्या आपको पता है कि कांग्रेस की कार्यसमिति में सदस्य मनोनित ही क्यों होते हैं। वे चुनकर क्यों नहीं आते हैं। क्या आपको पता है कि बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी अपने समय पर होती है या नहीं। होती है तो इसमें बातों को रखने की प्रक्रिया क्या होती है। कैसे कोई सामान्य कार्यकर्ता इन प्रक्रियाओं का लाभ उठाते हुए अध्यक्ष या नेता की मर्ज़ी के बग़ैर पार्टी के शीर्ष पदों तक पहुंच सकता है। क्या हमारे राजनीतिक दल बंद दरवाज़े की तरह काम करने लगे हैं। इस सवाल का जवाब तो हम दशकों से जानते हैं कि पार्टियां बड़े नेता की जेबी संगठन में तब्दील हो गई हैं।

अक्सर हम इन सवालों को वर्चस्व की लड़ाई के चश्मे से ही देखते हैं। पार्टी में दो तरह की राय हो सकती है इसे स्वीकार करने की बजाय हम नेता से अदावत की तरह पेश करने लगते हैं। नेता भी ऐसे लोगों को निकालकर या हाशिये पर डालकर अपनी मज़बूती या पकड़ का प्रमाण देने लगते हैं। संसदीय दल या विधायक दलों की बैठकें मुहर लगाने से ज्यादा किसी काम की नहीं रह गईं हैं। विचारों की विविधता ऐसी बैठकों में समाप्त हो चुकी है। पार्टियों में संस्थाएं वर्चस्व की लड़ाई का हथियार बन कर रह गई हैं।

आम आदमी पार्टी के इस विवाद से दो साल पहले बीजेपी की भी ऐसी संस्थाओं की खूब चर्चा हुई थी जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी कर रहे थे। रोज़ाना ख़बरें आ रही थीं कि उन्हें संसदीय दल का सदस्य बनाया जाएगा या नहीं। कभी ये खबर आती थी कि उन्हें चुनाव अभियान समिति का प्रभार सौंपा जाएगा। अगर अभियान समिति के अध्यक्ष के नाते मोदी बहुमत ले भी आते हैं तो भी प्रधानमंत्री कौन होगा इसका फैसला संसदीय बोर्ड करेगा। पार्टी के भीतर की संस्थाएं नेतृत्व की लड़ाई के समय दांवपेंच चलने के लिए जागृत की जाती हैं, बाकी समय में कैसे काम करती हैं हम ध्यान ही नहीं देते।

इसलिए ज़रूरी है कि वर्चस्व की लड़ाई के अलावा हम इसे इस रूप में भी देखें कि अलग-अलग रायों को कितनी जगह मिल रही है। पार्टी की एक राय होगी मगर उस एक राय बनने से पहले दो या तीन राय सामने आ जाए तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। ज़रूरी है कि हम सामान्य दिनों में भी आंतरिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली को महत्व दें। किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता के लिए उसकी इन संस्थाओं की पारदर्शिता महत्वपूर्ण होनी चाहिए। टिकट बंटवारे के समय कितने दलों में मारपीट की नौबत आ जाती है। अफवाहें फैलने लगती हैं कि फलां ने पैसे देकर टिकट ले लिये तो फलां ने पैसे लेकर टिकट बांटे। कई बार ये अफवाहें सच भी होती हैं। आखिर जनता को पता तो चले कि किसी नीति या फैसले पर पहुंचने से पहले किन प्रक्रियाओं के तहत बहस हुई और प्रस्ताव पारित हुआ।

67 सीटों की ऐतिहासिक जीत के बाद भी आम आदमी पार्टी की विश्वसनीयता का मूल्यांकन उसके आंतरिक लोकतंत्र के आधार पर हो रहा है। आम आदमी पार्टी इस पैमाने पर खरी उतरी है या नहीं इस पर पक्ष विपक्ष में खूब लेख लिखे जा रहे हैं। पार्टी के सदस्य और समर्थक ही पूछ रहे हैं कि हमारी पार्टी में असहमति की जगह नहीं होगी तो ये बाकी दलों से कैसे अलग है। दूसरे दल के लोग भी देख रहे थे कि इस नई पार्टी में क्या उनकी पार्टी से अलग असहमति की कोई जगह है। पोलिटिकल अफेयर्स कमेटी की बैठक असहमति के सम्मान में हुई या अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए, इस पर भी बहस चल रही है। आठ लोगों का योगेंद्र यादव के पक्ष में मतदान करना बड़ी बात है या पहले से तय फैसले का हो जाना। चुनाव के तुरंत बाद जब सारा ध्यान इस पर होता है कि सरकार कैसे चलती है, यह पूछा जाने लगा कि पार्टी कैसे चलती है, किसी के इशारे पर चलती है या किसी को चलने के लिए इशारा करती है।

पार्टियों के भीतरी संस्थाओं में दिलचस्पी के ये सवाल ताज़ा हवा की तरह हैं। इस विवाद ने यही काम किया है। हमारे एक मित्र पंकज झा ने कहा कि दिलचस्प यह रहा कि आप के समर्थकों ने नेता की लाइन नहीं ली। बहुतों ने योगेंद्र का भी साथ दिया। आम के तमाम वोलेंटियर इस वर्चस्व की लड़ाई से खुद को अलग कर पार्टी की संस्थाओं के सवाल के साथ जुड़ गए। बीजेपी के इंटरनेटी समर्थक भक्त के नाम से मशहूर हो चुके हैं। इनकी छवि ऐसी बन गई है कि इनका काम ही हर फैसले को सही ठहराना है। आम आदमी पार्टी के समर्थकों की इंटरनेटी भाषा कुछ वैसी ही बनती गई है। इन्हें भी आपटर्ड कहा जाता है यानी आम आदमी पार्टी पर सवाल करेंगे तो ये अभद्र भाषा का इस्तमाल करेंगे।

लेकिन इस विवाद से नई बात यह हुई कि पार्टी के समर्थक और शुभचिंतकों ने भी पार्टी की भक्ति छोड़ दी। ये नए तरह के समर्थक हैं। इनका राजनीति में विशेष रूप से स्वागत होना चाहिए। ये अंध भक्त नहीं हैं। अरविंद केजरीवाल के फेसबुक पेज पर आए कमेंट देख रहा था। कइयों ने एक रहने की अपील की थी तो कइयों ने उनके कदमों की आलोचना। कुछ ने बगावत के स्वर में अंतिम फैसला सुना दिया था तो कई पार्टी के समर्थक बने रहते हुए भी अपने स्तर पर आलोचना को स्वर दे रहे थे।

राजनीतिक दल संकट से गुज़र रहे हैं। कई बार इन संकटों का समाधान मज़बूत नेता को आगे कर टाल दिया जाता है। लेकिन उन नेताओं को भी आंतरिक संस्थाओं की तरफ लौटना ही पड़ता है जिन्हें लगता है कि पार्टी उनकी बपौती है। उनके बिना पार्टी कुछ नहीं है। कांग्रेस में आंतरिक चुनाव की बात करने वाले राहुल गांधी का भी खूब मज़ाक उड़ा लेकिन उन्हें भी पता है कि राजनीति को ज़िंदादिल बनाने का यही एकमात्र रास्ता है। यह मुश्किल रास्ता ज़रूर है क्योंकि इससे वैसे नेतृत्व के उभरने का खतरा पैदा हो सकता है जिससे पारंपरिक या स्थापित नेतृत्व को ही चुनौती मिल सकती है। इसलिए यह सवाल इतना आसान नहीं है लेकिन अच्छा है कि आप जिस भी पार्टी के समर्थक हैं या कार्यकर्ता हैं वहां ये सवाल करते रहिए कि हमारी पार्टी कैसे चलती है। हमारी पार्टी में क्या हो रहा है।

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