1990 में मैं जब पहली बार दिल्ली आया तो शिवाजी पार्क पहुंचा. वहां से 615 नंबर की बस पकड़ कर सीधे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय- यानी जेएनयू आया. रास्ते में मुझे कस्तूरबा गांधी मार्ग, जनपथ, शाहजहां रोड, पृथ्वीराज रोड, सफ़दरजंग रोड सब मिलते गए और फिर एक साथ कई नदियों के नाम मिले- गंगा, गोदावरी, कावेरी और ब्रह्मपुत्र तक. ये सब छात्रावासों के नाम थे. रास्ते में रानी लक्ष्मीबाई नगर भी मिला, महाराणा प्रताप बाग भी, सरोजिनी नगर भी और आईएनए- यानी आज़ाद हिंद फ़ौज की स्मृति भी. मैं हैरान था कि एक शहर में मुझे इतिहास-भूगोल की कितनी निशानियां मिल रही हैं. आने वाले दिनों में अशोक रोड, फिरोजशाह रोड, अकबर रोड, बाबर रोड, औरंगज़ेब रोड. दीनदयाल उपाध्याय मार्ग भी मिले, अरविंद मार्ग, ओलोफ़ पाल्मे, नेल्सन मंडेला से भी परिचय होता रहा.
दिल्ली की सड़कों पर घूमने का एक सुख ये भी है. आपकी आंखों के सामने जैसे एक इतिहास गुज़रता रहता है. दिल्ली में नाम रखने की नीति यही रही- जिन लोगों का दिल्ली से वास्ता रहा, जिन बादशाहों ने दिल्ली को बनाया, जो यहां आते-जाते रहे, उन सबको दिल्ली की सड़कों पर जगह मिली. लेकिन इतिहास से खिलवाड़ जैसे बीजेपी का शगल है. इस खिलवाड़ का ताज़ा उदाहरण दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष आदेश गुप्ता की लिखी हुई वह चिट्ठी है, जिसके मुताबिक मुगलिया दौर के शासकों के नाम दिल्ली की सड़कों से हटाए जाने चाहिए. बीजेपी के मुताबिक ये ग़ुलामी की निशानियां हैं.
दिलचस्प यह है कि यह चिट्ठी इस विचारविहीन हड़बड़ी में लिखी गई है कि आदेश गुप्ता ने गुरु तेगबहादुर के 400वें प्रकाश वर्ष को गुरु गोबिंद सिंह का 400वां प्रकाश वर्ष बता डाला और मांग की कि तुगलक रोड का नाम गुरु गोबिंद सिंह के नाम कर दिया जाए. बाद में जब ट्विटर पर ट्रोल होने लगे तो उन्होंने चिट्ठी में नाम बदला. बीजेपी की चिट्ठी में इस हड़बड़ी की निशानियां और भी हैं- वे मुगलिया काल को ग़ुलामी की निशानी बताते हैं, लेकिन ये नहीं जानते कि जिन बादशाहों के वे नाम लिख रहे हैं, उनमें तुगलक मुगलिया दौर का नहीं है. बल्कि मुगलिया शासन भारत में पुरानी मुस्लिम हुकूमत को हरा कर ही दिल्ली तक आया था.
बाबर ने राणा सांगा के न्योते पर इब्राहिम लोदी को हराया और साल 1526 में पानीपत के पहले युद्ध के साथ दिल्ली में मुगलिया सल्तनत की बुनियाद रखी. यही नहीं, बीच में मुगलिया शासन के पांव अगर उखड़ते दिखे तो उसका सेहरा शेरशाह सूरी को जाता है जो अफ़गान था और जिसने वह सड़क बनाई जिसे अंग्रेज़ों ने ग्रैंड ट्रंक रोड की तरह विकसित किया.
बीजेपी यह सब याद करने की जहमत मोल नहीं लेती. वह भारत के सबसे सुनहरे इतिहास को ख़ारिज कर देना चाहती है. वह भूल जाती है कि मुगलिया दौर में ही भक्ति काल के सबसे बड़े कवि हुए- तुलसी, कबीर, सूर, रसख़ान, रहीम, रैदास- ये सारे चमकते हुए सूर्य दरअसल उस आसमान की देन थे जो समृद्धि और संपन्नता के बीच बसते नए शहरों से बना था. इसी दौर में गुरु नानक भी हुए और मीरा भी. डॉ रामविलास शर्मा ने लिखा है कि मध्य काल के तीन शिखर तुलसी, तानसेन और ताजमहल हैं. बीजेपी किस-किस को कहां-कहां से खारिज करेगी.
गु़लामी की निशानियों की जो बीजेपी की अवधारणा है, उसके हिसाब से तो अरबी, फ़ारसी और उर्दू तक ग़ुलामी की निशानियां ठहरती हैं. इस ढंग से देखें तो दिल्ली का नाम भी इसी ग़ुलामी की निशानी है. वह दहलीज़ शब्द से बनी है. क्या बीजेपी दिल्ली को भी इंद्रप्रस्थ या हस्तिनापुर जैसा कुछ बनाने की मांग करेगी? बीजेपी के तर्क को कुछ और पीछे ले जाएं तो और भी संकट दिखते हैं. यहीं अमीर ख़ुसरो मिलते हैं जिनकी परछाईं पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की स्मृति में सबसे बड़ी है. उनका बनाया सितार न होता तो क्या पंडित रविशंकर होते? उनका बनाया तबला न होता तो हमारे शास्त्रीय संगीत की थाप क्या होती? और उनके रचे गीत न होते तो पूरी भारतीय परंपरा आज क्या गा रही होती?
फिर बीजेपी तुलसीदास की भाषा का क्या करेगी? वे राम को एक ही पद में एक बार नहीं तीन-तीन बार गरीबनवाज़, गरीबनवाज़, गरीबनवाज़ बताते हैं. गरीबनवाज़ सूफ़ी परंपरा का शब्द है जिसे तुलसी ने राम के लिए इस्तेमाल किया है? बीजेपी की निगाह में राम इससे कुछ अपवित्र तो नहीं हो जाते? सवाल और भी हैं. कबीर से बीजेपी कैसे निपटेगी? वे तो हिंदुओं पर भी चाबुक फटकारते हैं और मुसलमानों पर भी. पहला अज़ान विवाद तो उन्हीं की देन माना जा सकता है जब उन्होंने पूछा कि क्या बहरा हुआ ख़ुदाय. और मंदिरों में हनुमान चालीसा बजती देख तो वे हंटर लेकर निकल पड़ते.
बहरहाल, बीजेपी की चिट्ठी पर लौटें. वह इतिहास बदलने निकली है, लेकिन दिल्ली की सड़कों के इतिहास से ठीक से वाकिफ़ नहीं. उसके नेताओं से ज़्यादा तो गूगल मैप बताता है.
दिल्ली में महाराणा प्रताप के नाम से एक सड़क मौजूद है. यह अलग बात है कि दिल्ली नगर निगम ने उसे पाट कर कभी नाले में बदल डाला है. वह राणा प्रताप मार्केट तक जाती है. अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' ने इस पर साल 2016 में एक दिलचस्प रिपोर्ट भी छापी थी. इसी तरह वाल्मीकि के नाम पर भी दिल्ली में सड़क है. यह ठीक है कि ये बहुत बड़ी सडकें नहीं हैं, दिल्ली के विराट भूगोल में कहीं खोई हुई सड़कें हैं, लेकिन उनका वजूद है.
दिलचस्प ये है कि बीजेपी सिर्फ़ सड़कों के नाम बदलने की मांग नहीं कर रही, उसकी वैचारिकी से जुड़े संगठन पूरी की पूरी विरासत हड़पने की कोशिश में हैं. ताजमहल से लेकर कुतुब मीनार तक को वे हिंदू राजाओं की देन साबित करना चाहते हैं. इसमें उसके तर्क हास्यास्पद भी होते जाते है और उसके बौद्धिक दिवालियेपन के प्रतीक भी बनते जाते हैं. अब फिर एक संगठन कुतुब मीनार पर दावा कर रहा है.
संकट और भी हैं. लाल किला दिल्ली का दिल है- शायद पूरे भारत का, जहां से आज़ादी की पहली लड़ाई की एक दुंदुभि बजी थी और जहां से आज़ादी के बाद भारत के प्रधानमंत्री हर साल राष्ट्र को संबोधित करते हैं. इसकी अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि गुरु तेगबहादुर के चार सौ वें प्रकाश वर्ष पर प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने संबोधन के लिए यही जगह चुनी. यही वह जगह है जहां आज़ाद हिंद फ़ौज के सेनापतियों पर अंग्रेज़ों ने मुक़दमा किया. बीजेपी इन सबका क्या करेगी? क्या आज़ादी की लड़ाई की विरासत पर भी वह सवाल खड़े करेगी?
नाम बदलना कोई अनहोनी बात नहीं है. नाम बदलने की राजनीति इस देश में पुरानी है. बंबई को मुंबई, कलकत्ता को कोलकाता, मद्रास को चेन्नई और बंगलौर को बेंगलुरु काफ़ी पहले किया जा चुका है. जगहों और सड़कों के नाम भी बदले गए हैं. कर्जन रोड कस्तूरबा गांधी मार्ग हो गया. कनॉट प्लेस को राजीव गांधी चौक का नाम दिया गया. यह सिलसिला अपने देश में ही नहीं, सारी दुनिया में रहा है. सेंट पीटर्सबर्ग को रूसी क्रांति के बाद लेनिनग्राद कर दिया गया और 1991 के बाद फिर सेंट पीटर्सबर्ग लौट आया.
लेकिन हर बदलाव का एक तर्क होता है- कुछ नाम अतीत की विरासत से जुड़ने के लिए बदले गए, कुछ नाम औपनिवेशिकता का बोझ उतारने के लिए. कुछ नाम बताते हैं कि आप एक समाज के रूप में बड़े हो रहे हैं और कुछ नामों को हटाने या जोड़ने का आग्रह बताता है कि आप न इतिहास की समझ रखते हैं और न वर्तमान की. बीजेपी का मौजूदा आग्रह यही बताता है. ख़तरा ये है कि मौजूदा निजाम उसकी बात मानता न दिखे.