20 मई 2014 को जीतन राम मांझी बिहार राज्य के मुख्यमंत्री बने और आज ठीक नौ महीने बाद 20 फरवरी को उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ गया। इस नौ महीने के लघु काल में जीतन राम मांझी अपने बयानों, अपने फैसलों और अपने व्यवहार से रोज़ चर्चाओं में रहे।
अपने आपको महादलित का चेहरा बताने वाले मांझी ने अपने कार्यकाल में कई विवादित और लोकलुभावन फैसले लिए जिसने बिहार के राजनैतिक गणित को गड़बड़ा कर ज़रूर रख दिया है। इन फैसलों से मांझी ने 15 प्रतिशत दलितों के साथ-साथ ऊंची जाती के वोट बैंक में भी सेंध मारने की कोशिश की है। आईए नज़र डालते हैं उनके उन फैसलों पर जिन्होंने नीतीश कुमार जैसे शातिर राजनीतिज्ञ को भी रबरस्टांप मांझी के साथ दो-दो हाथ करने के लिए मज़बूर कर दिया था...
1. अपने दामाद देवेन्द्र कुमार को अपना निजी सहायक बनाया।
2. नीतीश के पसंदीदा नौकरशाहों का तबादला किया और अपनी ही मंडली बनाई।
3. अपने ही संरक्षक नीतीश कुमार के दो करीबी विश्वासपात्र मंत्री लल्लन सिंह और पीके शाही की बर्खास्तगी की सिफारिश कर दी।
4. दलित ठेकेदारों को ठेके में वरीयता देने के लिए पीडब्ल्यूडी कोड 163 के मानदंडो में बदलाव किया।
5. वर्दी, साइकिल, नि:शुल्क पाठ्य पुस्तक का पात्र बनाने के लिए दलित छात्रों और सामान्य छात्रों की अनिवार्य उपस्थिति कम कर दी।
6. ऊंची जाती के वोट बैंक को लुभाने के लिए मांझी ने आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़ी जाती के आरक्षण के लिए एक तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति की स्थापना की घोषणा की।
अपने आपको नीतीश कुमार का लक्ष्मण कहने वाले जीतन राम मांझी को आज भले ही उनके राम ने त्याग दिया हो परन्तु राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इस घटना के बाद मांझी को अपनी मुसहर जाती (जिनकी जनसंख्या 30 लाख के करीब है) और अन्य दलित जातियों से सहानभूति मिल सकती है और वह नई पार्टी बनाकर बीजेपी से गठजोड़ कर सकते हैं, जिससे लालू-नीतीश के गठबंधन को नुकसान तो पहुंच ही सकता है। आने वाले विधानसभा चुनाव में अगर वह बीजेपी के साथ मोल भाव की स्थिति में आ जाते हैं तो यह उनकी उपलब्धि ही मानी जाएगी।