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This Article is From Nov 23, 2017

क्या नया है इस बार गुजरात में...

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 24, 2017 12:19 pm IST
    • Published On नवंबर 23, 2017 21:09 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2017 12:19 pm IST
गुजरात चुनाव में इस बार नई बात यह है कि हरचंद कोशिश के बाद भी हिंदू मुसलमान का माहौल नहीं बन पाया. दूसरी खास बात ये कि वहां के पूर्व मुख्यमंत्री इस समय देश के प्रधानमंत्री हैं. लेकिन वहां सत्तारूढ़ भाजपा इस बार भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भरोसे है. तीसरी बात कि दशकों से चली आ रही दो ध्रुवीय राजनीति की शक्ल अचानक बदल गई है. हार्दिक, अल्पेश जिग्नेश जैसे आंदोलनकारी इस चुनाव में सीधी भूमिका में दिख रहे हैं. एक और नई और बड़ी बात ये कि गुजरात जैसे कारोबारी राज्य में चुनाव के दिनों में ही किसान और मजदूरों की बेचैनी पहली बार दिख रही है. इन सारी बातों के बीच इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि मुख्य विपक्षी दल को दशकों बाद गुजरात में अपनी वापसी का मौका दिख रहा है. हालांकि वहां सघन चुनाव प्रचार के सिर्फ तीन हफ्ते बाकी हैं. लिहाज़ा अब तक के घटनाक्रम से जो नज़ारा बना है उसके बदलने के आसार कम ही लगते हैं.

धार्मिक भावनाओं का नहीं पनप पाना
इस बार ये कैसे हुआ? इसकी पड़ताल के लिए लंबा हिसाब लगाने की जरूरत पड़ेगी. लेकिन सामान्य पर्यवेक्षण से यही दिखता है कि गुजरात के वंचित सामाजिक वर्गों ने चुनाव प्रचार की काफी ज़मीन घेर ली है. इस बार भी भावना उन्मुखी राजनीति की जो थोड़ी बहुत गुंजाइश निकलती थी वह देश में पद्मावती कांड ने खत्म कर दी. पद्मावती कांड पर विवाद में वहां के मुख्यमंत्री ने जो हिस्सेदारी की है वह इतनी सी है कि राजस्थान और मध्‍य प्रदेश के मुख्‍यमंत्रियों की तरह उन्होंने भी फिल्म पर पाबंदी लगा दी. ये अलग बात है कि फिल्म अभी रिलीज ही नहीं हुई है. एक वर्ग विशेष की अस्मिता का यह मुद्दा ताबड़तोड़ आक्रामकता के बावजूद भावनात्मक रंग नहीं ला पा रहा है. निर्माताओं की तरफ से फिल्म रिलीज की तारीख टालने के बाद यह बचीखुची गुंजाइश भी खत्म हो गई कि गुजरात चुनाव में इसका कोई इस्तेमाल हो पाए. एक कोशिश हार्दिक का एच अल्पेश का ए और जिग्नेश का जे निकाल कर हज बनाने की हुई थी. उसके सामने रूपानी का आर, अमित शाह का ए और मोदी का एम लेकर राम बना कर प्रचार करने की कोशिश हुई. लेकिन इस बार गुजरात का माहौल इस क़दर बदला हुआ है कि इस पोस्टर को एक दिन से ज्यादा जगह नहीं मिल पाई.

मोदी फैक्टर कितना कारगर बचा
दिल्ली चले जाने के बाद नरेंद्र मोदी के लिए गुजरात में सिर्फ उतना ही करने की गुंजाइश बचती थी जितनी बाकी प्रदेशों में थी. फिर भी गुजरात चुनावों में उन्होंने अपने दौरे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उनका एक दौरा बुलेट ट्रेन वाला था. लेकिन समय के लिहाज से बुलेट ट्रेन बहुत दूर की बात थी सो हफ्ते दस दिन में बुलेट टेन गायब ही हो गई. उधर जीएसटी और नोटबंदी को अलग से गुजरात के लिए फायदेमंद साबित करने का कोई तर्क बनाना मुश्किल था. मुद्दों के सूनेपन में हुआ ये कि बात विकास के गुजरात मॉडल की समीक्षा की तरफ मुड़ गई. दरअसल, चुनावों में विकास के एजेंडे या नारों का तो इस्तेमाल हो सकता है लेकिन अपने किए विकास की समीक्षा दुनिया की कोई सरकार नहीं कर पा रही है. बहरहाल, इतना कहा तो कहा जा सकता है कि  गुजरात में इस बार कम से कम अबतक तो मोदी उतना रंग नहीं जमा पाए. अगले तीन हफ्तों में वे क्या करेंगे? इसका कोई अंदाजा तक नहीं लगा पा रहा है.

हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश की त्रिमूर्ति
हार्दिक पर हरचंद दबाव के बावजूद उन्हें कांग्रेस से दूर नहीं किया जा सका. अल्पेश और जिग्नेश के रुख पहले ही तय हो गए थे. इस त्रिमूर्ति ने गुजरात की चुनावी राजनीति एकदम बदल डाली. तीनों अपने अपने सामाजिक आंदोलनों के नेता हैं. इस तरह चुनावी माहौल को धर्म की बजाए सामजिक समूहों की तरफ मुड़ ही जाना था. इन तीनों सामाजिक नेताओं का सरोकार सामाजिक भावनाओं की बजाए अपने अपने समुदायों की आर्थिक चिंताओं को लेकर है. इस तरह से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गुजरात चुनाव वहां के अर्थशास्त्र पर केंद्रित होता जा रहा है. इसीबीच चुनाव के ऐन मौके पर किसानों की हालत उजागर होना शुरू हो गई. मसलन जिस तरह गुजरात के मूंगफली उत्पादक किसानों को समर्थन मूल्य से हजार डेढ़ हजार रुपये कम पर अपनी मूंगफली बेचने की बेचारगी सामने आई उससे गुजरात के बदले मिजाज का पता चलता है.

गुजरात में कांग्रेस
किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि कांग्रेस इतनी जल्दी देश में फिर से दिखने लगेगी. गुजरात में तो वह खुद भी नहीं सोच पा रही होगी कि 2017 चुनाव में वहां उसकी सरकार बनने की बातें होने लगेंगी. याद करने लायक बात है कि जो लोग किसी भी सरकार के खिलाफ जनता के स्वाभाविक असंतोष होने को अपरिहार्य मानकर चलते हैं वे भी कई कारणों से गुजरात के मामले में अपनी धारणाएं बदल दिया करते थे. लेकिन अचानक बदले माहौल ने कांग्रेस को मंच पर लाकर खड़ा कर दिया. उसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष के पदारोहण के लिए अगर यह समय ठीक माना जा रहा हो तो यह भी कह लेना चाहिए कि गुजरात में उनका अब तक का प्रचार प्रदर्शन स्वीकार किया जा रहा है.

ये कैसे हो सकता है कि गुजरात चुनाव का ज़िक्र हो और अगले लोकसभा चुनाव की बात न हो? गुजरात चुनाव अगले लोकसभा चुनाव के डेढ़ साल पहले हो रहे हैं. लिहाज़ा हो नहीं सकता कि गुजरात के नतीजों का विश्लेषण करते समय लोकसभा चुनाव का हिसाब न लगाया जाए. इस तरह से गुजरात वहीं तक सीमित नहीं है. बहुत संभव है कि इसीलिए केंद्र सरकार का लगभग हर मंत्री गुजरात में लगाया गया हो. यानी किसी को भी यह सुनने में ऐतराज नहीं होना चाहिए कि गुजरात के नतीजे केंद्र सरकार पर भी एक टिप्पणी होंगे.

(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...)

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