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This Article is From Nov 24, 2015

बिहार में भी न बच सके और अब झाबुआ के किले पर भी परास्त हो गए

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 24, 2015 16:46 pm IST
    • Published On नवंबर 24, 2015 16:14 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2015 16:46 pm IST

झाबुआ का आदमी भले ही सहिष्णु-असहिष्णु नहीं समझता, लेकिन वह भूख, गरीबी और बदहाल जिंदगी को भली-भांति समझता (सहता) है। यह शब्द उसके लिए पहले दो शब्दों से कहीं ज्यादा भारी हैं। उसके लिए पार्टियों के मायने हाथ का पंजा और कमल का फूल के प्रतीकों की तरह ही है, लेकिन उसे पता है कि उसकी सरकार उससे कहीं दूर दिल्ली और भोपाल में बैठी है, और इतनी दूर से उसके पास न तो योजनाएं पहुंच पाती हैं और न ही वे मंत्रियों तक पहुंच पाते हैं।

इसीलिए बार-बार कभी इसे वोट देते हैं, कभी उसे वोट देते हैं। जिसे जिताते आए थे, उसे हरा देते हैं, नया जीतने वाला भी जब वैसा ही निकलता है तो फिर से पहले वाले को विजयी बना देते हैं। आज आश्चर्यजनक रूप से तीसरा मत यह निकलता है कि जिताए जाने लायक तो कोई भी नहीं है। जी हां स्वर्णिम मध्यप्रदेश के झाबुआ का आदमी ‘इनमें से कोई नहीं’ (नोटा) कहकर क्या एक नए मत का निर्माण नहीं करता।

आपको बता दें कि झाबुआ क्या है। जब हम झाबुआ कहते हैं तो पश्चिमी मध्यप्रदेश का एक बड़ा हिस्सा सामने आ जाता है। जब हम झाबुआ कहते हैं तो अलीराजपुर के लोग भी इस संदर्भ के साथ उसमें शामिल हो जाते हैं। जब हम झाबुआ कहते हैं तो घुटनों से ऊपर धोती पहनने वाले लोग, दिन की रोशनी में परिवार सहित ताड़ी और दारू पीकर मस्त रहने वाले लोग तो गुस्से में आज भी एक दूसरे को तीर मारकर घायल कर देने वाले लोग नजर आते हैं। अपनी परंपराओं-रीति रिवाजों के साथ रहने वाले लोग। खेतों में अब भी हल से खेती करने वाले लोग। अपनी बोलियों, गीतों को लोकधुनों में पिरोने वाले लोग। इन्हें कई बार हम अनपढ़ भी कहते हैं, पिछड़े कहते हैं, विकास से दूर कहते हैं, लेकिन इसी इलाके के लोग हमें बताते हैं कि समाज में स्त्रियों को कैसे बराबरी से रखा जा सकता है, यही इलाके देश में सबसे ज्यादा स्त्री-पुरुष अनुपात की बानगी बनकर सामने आते हैं।

यह एक शाश्वत द्वन्द्व है। द्वन्द्व यह है कि हम तथाकथित मुख्यधारा के लोग झाबुआ और देश के दूसरे झाबुआ सरीखे इलाकों का विकास कर उन्हें आगे लाना चाहते हैं। इसके लिए वोट पड़ते हैं, नेता बनते हैं, नेता मंत्री बनते हैं, मंत्री सरकारें चलाते हैं, नहीं बदलता तो लोगों का भाग्य। उनके हिस्से में अभी भी भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, बेरोजगारी है। झाबुआ सरीखे इलाके बीच के दुष्चक्र में फंसकर रह गए हैं। वह न तो अब उस परिवेश में हैं जो उन्हें सदियों से जिंदा रखे हुए था और न ही वे विकास के चक्र में आ पाए। इसलिए उनके सामने जो मौजूदा बीच का संकट है वह सबसे नया और सबसे गंभीर है। वोट उनके लिए गुस्सा जाहिर करने का एक मौका बनकर आता है, इसीलिए वे कभी इस पाले में कभी उस पाले में नजर आते हैं।

मौजूदा शिवराज सरकार के लिए झाबुआ चुनाव क्यों महत्वपूर्ण था? था ही। (पढ़ें- रतलाम लोकसभा सीट पर कांग्रेस काबिज, देवास सीट बीजेपी की झोली में  ) किसी भी ऐसी पार्टी के लिए उपचुनाव नाक का सवाल होता ही है, कहने की जरूरत नहीं। अबकी यह कुछ ज्यादा था. व्यापमं घोटाले से घिरी सरकार के लिए। पेटलावद ब्लास्ट के जख्मों को भरने के लिए।

आपको बता दें इसी इलाके में व्यापमं से जुड़ी एक छात्र नम्रता डामोर का घर है। इसी इलाके में उसे कवर करने गए एक टी वी पत्रकार की संदिग्ध मौत हो गयी। इसी इलाके में  पेटलावाद ब्लास्ट हुआ जिसमें तकरीबन 88 लोग मौके पर मारे गए। इसी इलाके में सिलिकोसिस जैसी गंभीर बीमारी से चार सौ से ज्यादा मौतें हो गयीं और राष्ट्रीय आयोगों की अनुशंसा के बावजूद पन्जी पैसे का मुआवजा नहीं मिला। इसी इलाके में कुपोषित बच्चों की निकली हड्डियों वाली दर्जनों फोटो आप एक ही दिन में खींच सकते हैं। इसी इलाके से हजारों लोग हर सीजन में पलायन करके रोजगार की छह में गुजरात चले जाते हैं। बावजूद इसके कि भाजपा के एक वरिष्ठ नेता यहां विकास को रोक देने की सीधी धमकी तक दे देते हैं। भले ही मुख्यमंत्री पेटलावाद में घर घर जाकर पीड़ितों का हाल जानने निकल पड़ते हैं, सड़कों पर बैठ जाते हैं लेकिन चुनाव के परिणाम तो कुछ और ही कह देते हैं। क्या खुद मुख्यमंत्री ने ऐड़ी चोटी का जोर नहीं लगाया। ठीक उसी तरह जैसा कि प्रधानमंत्री जी ने बिहार में लगाया। बिहार में भी न बच सके और अब झाबुआ के किले पर भी परास्त हो गए। तो क्या यह नया संकेत है। क्या कांग्रेस इसे समझेगी?

काश कि कांग्रेस इसे समझती। काश कि कोई भी पार्टी समझ पाती। काश कोई भी ...कोई भी ...कोई भी सरकार सहिष्णु- असहिष्णु से ऊपर लोगों के बुनियादी सवालों पर रोटी कपड़ा मकान रोजगार पर गंभीरता से काम कर पाती। काश कोई भी साहित्यकार-कलाकार कभी भूख से हुई मौत पर कोई बड़ा अवॉर्ड लौटाता? काश कोई भी 'अमीर खान' कभी भूख से लड़ते किसी 'गरीब खान' से मिल लेता।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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