क्या 1964 तक ज़िंदा थे नेताजी?

क्या 1964 तक ज़िंदा थे नेताजी?

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

मूर्ति, स्कूल कॉलेज, डाक टिकट, योजनाएं, एयरपोर्ट और गली मोहल्ले के रास्ते, इनके नाम से पता चलता है कि किस महापुरुष का सम्मान हुआ है और किसका नहीं। एक कानून भी बने कि अगर महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय या पर्यटन मंत्री महेश शर्मानुसार राष्ट्रवादी मुसलामान पूर्व राष्ट्रपति कलाम के नाम पर बनी सड़क या गली कभी टूटी हुई पाई गई या गंदी पाई गई तो उस इलाके के सभी अफसरों पार्षदों और विधायकों को सात साल की जेल हो जाए। तो हज़रात वक्त आ गया है कि एक राष्ट्रव्यापी सर्वे इसी बात पर हो जाए कि किसकी कितनी मूर्ति लगी है। जिसकी ज़्यादा मिले उसे सम्मानित होने का सर्टिफिकेट दे दिया जाए।
 
इन महापुरुषों की जयंती पर ट्वीट कर देना, मूर्ति लगाने का ऐलान कर देना, यही सम्मान है। इसी की लड़ाई है। बाकी ट्वीट करने के बाद, माला पहनाने के बाद सम्मान करने वाले के ज़हन में कितने गांधी हैं, कितने लोहिया हैं और कितने पटेल हैं या कितने श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं, कितने दीनदलाय उपाध्याय हैं, आप तो जानते ही हैं। मैं बस इस बहस में अपना जुगाड़ खोज रहा हूं कि इसी बहाने कौन महापुरुष है इसे घोषित करने के लिए एक राष्ट्रीय महापुरुष आयोग बने और चेयरमैन मुझे ही बनाया जाए।
 
किसी मुल्क को इतिहास और उसके नायकों को नहीं भूलना चाहिए। लेकिन एक आम आदमी का सम्मान भी क्या मूर्ति या नामों से होता होगा या फिर नौकरी, बेहतर स्कूल, अस्पताल, जीने की सुविधा से होता है। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान की राजनीति फैन्सी ड्रेस पार्टी में बदलती जा रही है। कहीं से कोई गांधी बना चला आ रहा है तो कोई लोहिया तो कोई नेहरू और बोस। उम्मीद है फैन्सी ड्रेस के लिए आप अपने बच्चों को आंबेडकर और ज्योतिबाफूले भी बनाते होंगे, लक्ष्मीबाई बनाने के साथ सावित्रीबाई भी बनाते होंगे।
 
गांधी जी की तरह एक जंतर देता हूं आपको। नज़र घुमा कर देखिये कि इतिहास का गौरव गान आपके अलावा कौन कर रहा है। कहीं वो आपके जैसा तो नहीं है। खाता पीता गाता और घूमते रहने वाला मध्यम वर्ग। क्या आपने रेल लाइन की पटरियों के किनारे मच्छरों से बदन को कटवा रहे लोगों को भी नायकों का गुनगान करते देखा है। बजबजाती नालियों के साथ जीने वाले लोग भी क्या उसी तरह से नायकों की याद में करवटें बदलते होंगे जैसे हमारी मध्यमवर्गीय राजनीति। अजीब ढोंग है। जो मध्यमवर्ग विषय के रूप में इतिहास से इतनी नफरत करता है वही नेताओं के साथ इतिहास का गुनगान करता है। खैर आपके प्रिय मुल्क में आज कहीं किसी किसान ने आत्महत्या तो की ही होगी, उसने किस इतिहास और नायक को याद किया होगा। राजनीति को फालतू बनाने में आप लोगों का यह सहयोग भी इतिहास याद रखेगा।
 
यह मुझे कहना था कभी न कभी सो आज कह दिया लेकिन अगर कोई बात रहस्य की तरह हो जाए तो वर्तमान का दायित्व तो बनता ही है कि उससे पर्दा हटाए। सरदार पटेल जिस तरह से चुनावी राजनीति में काम आते रहे हैं उस तरह से नेताजी कभी काम नहीं आए। लेकिन अब लगता है कि मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर जनमत बनाने में उनकी अहम भूमिका तय हो चुकी है। नेता जी हम सबके हीरो रहे हैं। नेता जी सुभाष चंद्र बोस भारत की आज़ादी की लड़ाई की उस विविधता के मिसाल हैं जहां सब गांधी नहीं थे, सब नेहरू नहीं थे, सब सरदार पटेल नहीं थे। ये उस दौर की खासियत थी कि
 
कोई भगत सिंह था, कोई चंद्रशेखर आज़ाद तो कोई खुदी राम बोस तो कोई लोकमान्य तो कोई डाक्टर आंबेडकर। नायकों की ऐसी विविधता आपको सिर्फ दुनिया के इसी हिस्से में मिलेगी। सब एक दूसरे के साथ थे और सब एक दूसरे से स्वतंत्र। आज की राजनीति सबको सबसे भिड़ा रही है।
 
आज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक साहसिक कदम उठाया है। ममता बनर्जी ने नेताजी के अंतिम दिनों से जुड़ी 64 फाइलों को सार्वजनिक कर दिया है। उनके अंतिम दिनों में क्या हुआ इसे लेकर रहस्य बना हुआ है। ममता की इस घोषणा के पीछे राजनीति हो सकती है लेकिन यह सवाल तो कब से ज़ोर मार रहा है कि नेताजी के साथ दरअसल हुआ क्या था।
 
कोलकाता के पुलिस म्यूज़ियम में ममता ने इन फाइलों की डीवीडी बनाकर जारी कर दी है। सोमवार से आम जनता भी इन फाइलों को पढ़ सकेगी। कहा जा रहा है कि इन फाइलों से पता चलता है कि नेताजी 1964 के साल तक ज़िंदा थे। 1960 के दशक की शुरुआत में अमेरिकी ख़ुफ़िया रिपोर्ट में इस बात का इशारा किया गया था कि नेताजी फरवरी 1964 में भारत आए होंगे। उनकी मौत के 19 साल के बाद। यही से सवाल उठा कि जब उनकी मौत 1945 में ताइवान में विमान दुर्घटना में हो गई थी तो 1964 में कैसे आ गए। 12,744 पन्नों की इस फाइल को पढ़ना दिलचस्प होगा। इसे लेकर नेहरू और कांग्रेस पर संदेह किया जाता रहा है कि उन्होंने जानबूझ कर इसे रहस्य बनाया।
 
ममता के इस कदम के बाद अब केंद्र सरकार पर भी दबाव है कि उसके पास जो नेताजी से संबंधित क्लासिफाइड फाइलें हैं उसे सार्वजनिक करे। विपक्ष में रहते हुए बीजेपी इसकी मांग करती रही है
 
24 जनवरी 2014 के टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट है कि कटक में बीजेपी अध्यक्ष के नाते राजनाथ सिंह ने कहा था कि अगर बीजेपी सत्ता में आई तो नेताजी की मौत से रहस्य के पर्दे को हटाएगी। राजनाथ सिंह नेताजी की 117 वीं जयंती में हिस्सा लेने गए थे। उन्होंने तब कहा था कि सत्य क्या है केंद्र सरकार को लोगों को बताना चाहिए। बीजेपी सत्ता में आ गई और राजनाथ सिंह गृहमंत्री बन गए जिनके मंत्रालय के पास ये फाइल होगी। राजनाथ सिंह के जूनियर मंत्री किरण रिजीजू ने कहा है कि हम दबा कर रखने के हक में नहीं है लेकिन हमें विदेश मंत्रालय से बात करनी होगी कि क्या ऐसा करने से हमारे संबंधों पर कोई असर पड़ सकता है या नहीं। नेता जी के परिवार के सदस्य चंद्र बोस ने कहा है कि प्रधानमंत्री को चीन और रूस को पत्र लिखना चाहिए। वहां से दस्तावेज़ मंगाने चाहिए।
 
18 अगस्त 1945 की जिस विमान दुर्घटना में मौत हुई थी, उसमें नेता जी की मौत हुई थी या नहीं, अगर हुई थी तो 1968 तक के अलग अलग पत्रों या दस्तावेज़ों में नेता जी के जीवित होने का ज़िक्र क्यों मिलता है। एक सवाल और है। इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि नेताजी के परिवार की बीस साल तक जासूसी कराई गई। ममता ने नाम तो नहीं लिया लेकिन इशारा नेहरू की तरफ था। कांग्रेस पार्टी ने अपने समय में दस्तावेज़ों को सार्वजनिक तो नहीं किया लेकिन ममता के कदम का स्वागत करते हुए कांग्रेस नेता पी सी चाको ने कहा कि
 
आज़ादी के बाद उस समय के प्रधानमंत्री नेहरू के लिए नेता जी की सुरक्षा बेहद महत्वपूर्ण मामला था। हो सकता है इस वजह से जासूसी कराई गई होगी। तथ्य आने दीजिए। कांग्रेस इसे अलग नज़रिये से देखती है। नेहरू और बोस के बीच रणनीतियों को लेकर मतभेद ज़रूर था मगर दोनों के संबंध बहुत बेहतर थे।
 
नेता तो नेहरू की भूमिका मान ली। अगर बीस साल जासूसी हुई तो नेहरू तो 17 साल तक ही प्रधानमंत्री थे। उनके बाद 1964 से 1966 तक शास्त्री जी थे। क्या शास्त्री जी के समय भी जासूसी हुई। क्या 1966 के बाद भी जासूसी जारी रही। 12,744 पन्नों के दस्तावेज़ अभी किसी ने नहीं पढ़े हैं। इसलिए बहस यह नहीं है कि उन फाइलों में क्या है, इस बात को लेकर है कि क्या अब केंद्र को भी अपनी फाइलें जारी कर देनी चाहिए।
 


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