जासूसी पर लगाया दिमाग़, अर्थव्यवस्था पर लगा लेते

पेगासस जासूसी कांड विपक्ष और सरकार की राजनीतिक लड़ाई का मुद्दा नहीं है. गोदी मीडिया के ज़रिए आज कल हर गंभीर मुद्दे को जनता के बीच इस तरह खिचड़ी बनाकर पेश किया जा रहा है कि मूल सवाल खो जाता है. बजट के समय भी उसी तरह की रिपोर्टिंग होती जिस तरह चुनाव के समय होती है.

पेगासस जासूसी कांड विपक्ष और सरकार की राजनीतिक लड़ाई का मुद्दा नहीं है. हिन्दी के अख़बार इस ख़बर की डिटेल को गायब कर ऐसी नारेबाज़ी से लीपापोती कर रहे हैं ताकि आप पेगासस के नाम पर ख़बर भी पढ़ लें और कुछ पता भी न चले और आपको लगे कि यह कोई रुटीन लड़ाई है. गोदी मीडिया के ज़रिए आज कल हर गंभीर मुद्दे को जनता के बीच इस तरह खिचड़ी बनाकर पेश किया जा रहा है कि मूल सवाल खो जाता है. अखबारों और गोदी मीडिया के ज़रिए पेगासस के ख़तरों को आम जनता के बीच नहीं पहुंचने दिया जा रहा है.

ब्लॉगर, मानवाधिकार कार्यकर्ता अहमद मंसूर के साथ जो हुआ, आपमें से किसी के साथ हो सकता है. संयुक्त अरब अमीरात के इस ब्लागर के फोन से डेटा लेकर उनके बैंक खाते से 1,40,000 डॉलर उड़ा लिए गए. लोकेशन पता कर गुंडों से पिटवा दिया गया और अब मंसूर दस साल के लिए जेल में हैं. इसी तरह 2018 में वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार जमाल खश्शोगी का लोकेशन जान लिया गया और तुर्की में साउदी अरब दूतावास के भीतर उनकी हत्या करा दी गई. 2011 में मैक्सिको ने अपने देश के पत्रकारों और विरोधी नेताओं को इसी पेगासस के इस्तमाल से टारगेट किया. एक जानकारी और आपको इसके खतरे को समझने में मदद कर सकती है. भारत में भीमा कोरेगाव मामले में बंद किए गए दिवंगत स्टैन स्वामी, रोना विल्सन, आनंद तेलतुंबडे को भनक तक नहीं थी कि उनके कंप्यूटर में संदिग्ध दस्तावेज प्लांट कर दिए गए, उनके ईमेल से कोई भी जवाब दे रहा है जिसके आधार पर उन्हें भारत के खिलाफ साज़िश के आरोप में जेल में बंद कर दिया गया. वाशिंगटन पोस्ट ने इस बारे में कई बार विस्तृत रिपोर्ट की है और टोरंटो यूनिवर्सिटी की सिटिज़न लैब ने इसकी पुष्टि भी की है. इसी लैब ने दुनिया के कई फोन में जासूसी साफ्टवेयर के इस्तमाल की जांच की है और बताया है कि इस तरह का खतरा केवल दो चार को नहीं बल्कि लाखों लोगों को भी हो सकता है.

पेगासस से लाखों लोगों को खतरा है. इसके खरीदने का आधार गुप्त रखा जाता है इसलिए और भी खतरनाक है. इसलिए जो खरीदता है वह अपने मुल्क के स्वाभिमान को गिरवी रखता है. बेचने वाला देश जानता है कि आतंक के नाम पर खरीद कर इसका इस्तेलाम जनता की जासूसी में कर रहा है. इज़रायल चाहे तो इस जानकारी के आधार पर ख़रीदार देश को ब्लैकमेल भी कर सकता है. यही कारण है कि पेगासस की खबर गोदी मिडिया में इस तरह पेश की जा रही है कि जनता का ध्यान मूल सवाल पर न जाए. यह भरम फैलाया गया कि न्यूयार्क टाइम्स ने भारत की छवि खराब करने के लिए यह ख़बर छापी है. जबकि न्यूयार्क टाइम्स की खबर से अगर किसी की छवि खराब होती है तो सबसे अधिक अमरीका की होती है.

28 जनवरी के दिन न्यूयार्क टाइम्स में छपी यह हेडलाइन कहती है कि अमरीका की जांच एजेंसी FBI ने गुप्त रूप से इज़रायली साफ्टवेयर खरीदा भी और अमरीकी नागरिकों के फोन को हैक करने की संभावनाओं का परीक्षण भी किया. इसमें बताया गया कि कैसे न्यूजर्सी स्थित FBI की एक इमारत में इस साफ्टवेयर को लगाने इजरायल की कंपनी के इंजीनियर अमरीका आए थे. जून 2019 में पेगासस साफ्टवेयर खरीदा गया था लेकिन इसकी जानकारी कभी सार्वजनिक नहीं की गई. यही नहीं अमरीका की एजेंसियों ने फ़ैंटम नाम के एक और साफ्टवेयर खरीदने पर विचार किया था लेकिन नहीं खरीदा गया. न्यूयार्क टाइम्स ने सबसे पहले अमरीका की पोल खोली है कि पब्लिक में निंदा करने के बाद भी पेगासस बनाने वाली कंपनी से बातचीत हुई और इसके साफ्टवेयर को खरीदा गया. एक और प्रोपेगैंडा चल रहा है कि भारत में संसद सत्र के पहले यह खबर आई है तो भारत के खिलाफ है, क्या अमरीका में भी संसद का सत्र चल रहा है और अमरीका के खिलाफ प्रोपेगैंडा है? न्यूयार्क टाइम्स ने इस रिपोर्ट की पड़ताल में एक साल लगाए हैं. काफी लंबी रिपोर्ट है. 68 पैराग्राफ की इस रिपोर्ट में एक पैराग्राफ भारत पर है. यानी 1.5 प्रतिशत जगह भारत को लेकर है. भारत विरोध के नाम पर इस खबर से उठने वाले सवालों से पीछा छुड़ाया जा रहा है. अमरीकी प्रशासन ने तो नहीं कहा कि यह अमरीका विरोधी है.

इससे साफ हो जाना चाहिए कि यह ख़बर भारत के खिलाफ नहीं है. अमरीका के खिलाफ है. भारत सरकार का स्टैंड देखिए तो काफी कुछ समझ में आता है. संसद में तत्कालीन आईटी राज्य मंत्री कहते हैं कि आईटी मंत्रालय के पास जानकारी नहीं है कि पेगासस साफ्टवेयर खरीदा गया. संसद में ही रक्षा राज्य मंत्री जवाब देते हैं कि NSO ग्रुप की टेक्नालजी के साथ कोई लेन-देन नहीं की है. ज़ाहिर है रक्षा मंत्रालय ने जानकारी के आधार पर ही कहा होगा कि लेन-देन नहीं है तो फिर आईटी मंत्रालय को यह जानकारी कैसे नहीं हुई. यही नहीं भारत सरकार जांच से इंकार कर देती है. जबकि फ्रांस और जर्मनी इस मामले की जांच कराते हैं और जासूसी को सही पाते हैं. जर्मनी की पुलिस इसे स्वीकार कर लेती है. जर्मनी की सरकार भी स्वीकार कर लेती है. क्या भारत सरकार को ये चिंता नहीं है कि अगर उसने साफ्टवेयर नहीं खरीदा है तो फिर कौन इसके इस्तेमाल से महिला पत्रकारों से लेकर विपक्ष के नेताओं और उसके मंत्रियों के फोन की जासूसी कर रहा है? भारत का एक और स्टैंड देखिए. जांच से तो इंकार किया ही सुप्रीम कोर्ट में डिटेल में हलफनामा देने से इंकार कर दिया. क्यों? क्या सरकार को कोर्ट पर भरोसा नहीं है?

पेगासस का पर्दाफाश करने के लिए दुनिया के 17 समाचार संस्थानों और उनके 80 पत्रकारों ने मिलकर अपने अपने देश में पड़ताल की थी. यह प्रोजेक्ट किसी एक देश के खिलाफ नहीं था बल्कि लोकतंत्र को बचाने के पक्ष में था. पेगासस के ख़रीदार देशों में भारत के अलावा, मैक्सिको, पोलैंड, हंगरी, सऊदी अरब और अमरीका के भी नाम हैं. क्यों खरीदने वाला देश अपनी जनता के खिलाफ इसका इस्तेमाल कर रहे हैं.

पेगासस की बहस को ध्यान से देखिए. भारत सरकार NSO पर बैन नहीं लगा रही है, न अपनी तरफ से जांच करने आगे आई लेकिन इस बहस में देश की सुरक्षा को अपना ढाल बना रही है. तो कम से कम देश की सुरक्षा के नाम पर ही मान ले कि पेगासस खरीदा गया है.

सुरक्षा की दलील ही अगर सर्वोपरि है तब भारत सरकार बताए कि जब फरवरी 2019 में पुलवामा में आतंकी हमला हुआ और 40 से अधिक जवान मार दिए गए तब इस सॉफ्टवेयर ने क्या किया. पेगासस के ज़रिए किस आतंकी हमले को टाला गया है. पिछले साल घाटी में कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई और आज तक आतंकी मुठभेड़ की खबरों का सिलसिला जारी ही है. हम नहीं जानते कि पेगासस ने आतंक की लड़ाई को कितना मज़बूत किया है? न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा है कि 2017 में जब प्रधानमंत्री मोदी इजरायल के दौरे पर गए थे तब इसे गुप्त रूप से खरीदा गया था. हिन्दू अखबार ने भी उस साल की एक रिपोर्ट में बताया था कि उस साल अचानक सुरक्षा का बजट दस गुना बढ़ गया था. पिछले साल कांग्रेस ने सवाल भी किया था कि क्या दस गुना बजट पेगासस खरीदने के लिए हुआ था? 2017 में इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने एक जुमला कसा था. स्कावयर T स्कावयर औऱ इसका मतलब बताया था IT का मतलब इंडियन टैलेंट और इजरायली टेक्नालजी. क्या वो इशारा पेगासस के लिए था?

आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव और उनकी पत्नी का नाम भी पेगासस की जासूसी की सूची में है. इस बात से ही किसी सरकार को सतर्क हो जाना चाहिए था और अपनी तरफ से जांच करनी चाहिए जिस तरह से बाकी देशों ने की है. नवंबर 2021 मे जब अमरीकी राष्ट्रपति ने NSO को बैन किया तो उसका आधार यही बताया कि इसका इस्तमाल विदेशी सरकारों, पत्रकारों और विरोधियों को टारगेट करने के लिए किया जा रहा है. क्या भारत को अपने नागरिकों की चिन्ता नहीं है?

आई फोन बनाने वाली कंपनी एप्पल ने कहा है कि उसके उपभोक्ताओं के फोन पेगासस से हैक किए गए हैं. 2019 में व्हाट्सऐप ने कैलिफोर्निया की अदालत में पेगासस बनाने वाली कंपनी के खिलाफ मुकदमा किया था. फेसबुक के साथ GITHUB और लिंकडिन ने भी मुकदमा किया है. दिसंबर 2020 में माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, सिस्को जैसी कंपनियों ने भी NSO के खिलाफ मुकदमा किया है.

तमाम बड़ी टेक कंपनियां पेगासस जासूसी साफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी NSO के खिलाफ केस कर रही हैं और भारत सरकार को संदेह भी नहीं हो रहा है. अमरीकी टेक कंपनियां पेगासस के खिलाफ कोर्ट में हैं, लेकिन अमरीका ने नहीं कहा कि कोर्ट का फैसला आएगा तो जांच करेंगे और बैन करेंगे. नवंबर में जब अमरीका ने NSO को बैन किया तो यह खबर दुनिया भर में छपी. लेकिन एक महीने बाद दिसंबर में राज्यसभा औऱ लोकसभा में जो जवाब देती है उससे सरकार पर संदेह गहरा ही हो जाता है.

यह राज्यसभा में दिए गए जवाब का हिस्सा है कि सरकार को इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि अमरीका ने जासूसी साफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी NSO को कालीसूची में डाला है, जिसका इस्तमाल पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और दूतावास के कर्मचारियों के खिलाफ होता रहा है. सवाल था कि खबरों में ऐसा छपा था, क्या यह सही है. जब लोकसभा में शशि थरूर इसी तरह का सवाल करते हैं कि खबरों में छपा है कि आस्ट्रेलिया की सरकार ने ग्लोबल डिजिटल कंपनियों के खिलाफ कानून बनाए हैं क्या इसकी जानकारी है तो वही आईटी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर कहते हैं कि हां जानकारी है. दोनों जवाब के बीच मात्र 48 घंटे का अंतर है. वाशिंगटन में भारत का दूतावास है, दिल्ली में अमरीका का दूतावास है, भारत के मंत्री को जानकारी नहीं है कि अमरीका ने NSO पर बैन किया है लेकिन आस्ट्रेलिया में ऐसी खबरें छपी हैं इसकी जानकारी है. क्या सरकार को नहीं पता कि अमरीका ऐसी कंपनियों की सूची Commerce Department's Bureau of Industry and Security (BIS) की वेबसाइट पर सार्वजनिक करता है. जिससे कोई भी जान सकता है कि किस कंपनी को अमरीका ने बैन किया है.

पेगासस बनाने वाली NSO कंपनी ने जवाब दिया है कि हर देश एक दूसरे को फाइटर प्लेन से लेकर टैंक और ड्रोन बेचता है और खरीदता है. इसमें कुछ गलत नहीं है लेकिन खुफिया जानकारी जुटाने वाले उपकरणों की बिक्री गलत है. अजीब बात है. कंपनी के जवाब पर सवाल यह होना चाहिए कि जब कोई देश किसी से लड़ाकू विमान खरीदता है तो उसकी सार्वजनिक घोषणा होती है लेकिन पेगासस साफ्टवेयर गुपचुप तरीके से बेचा जाता है. उस विमान का इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं के घर पर बम गिराने में नहीं होता है लेकिन जब जासूसी साफ्टवेयर खरीदा जाता है तब इस सूचना को गुप्त रखा जाता है और आम जनता के खिलाफ इस्तमेमाल होता है. लड़ाकू विमान और पेगासस में अंतर यही है.

रफाल के कवरेज को याद कीजिए, जिस गोदी मीडिया ने रफाल के सौदे पर उठे सवालों को जनता तक पहुंचने नहीं दिया, वह गोदी मीडिया रफाल के आगमन को लेकर कई दिनों तक कवरेज करता है. सुप्रीम कोर्ट में सरकार बंद लिफाफे में जवाब देती है और मामले में क्लिन चिट मिलता है लेकिन फ्रांस में आज तक इसे लेकर जांच हो रही है और वहां इस सौदे में दलाली को लेकर खबरें आती रहती हैं. इसके बाद भी भारत की सरकार नई खबरों के आने पर संज्ञान नहीं लेती है. रफाल का सार्वजनिक प्रदर्शन होता है तो फिर पेगासस को लेकर सार्वजनिक घोषणा क्यों नहीं होती है? रही बात आतंक के खिलाफ इस्तमाल की तो कौन आतंकी है सरकार तय करती है. आपने देखा था कि कैसे किसानों को आतंकी बताया जाने लगा था.

थोड़ी बात बजट पर भी होनी चाहिए. चुनाव आता है तो मीडिया की खबरें जाति और धर्म के विश्लेषण से भर दी जाती हैं. हर साल यही होता है. आपको लगेगा कि आप चुनावी कवरेज पढ़ रहे हैं लेकिन इस दौरान मूल सवालों की पड़ताल बंद हो जाती है. इक्का दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो अखबार और टीवी का सारा स्पेस ऐसी बोगस बहसों से भरी रहती हैं कि जाटलैंड का सरताज कौन होगा. इससे मीडिया को एक सुविधा होती है वह उन सवालों को उठाने से बच जाता है जिससे किसी दल या सरकार का झूठ पकड़ा जाता है. एक समय स्मार्ट सिटी का कितना शोर था. यूपी के चुनाव में आप स्मार्ट सिटी को लेकर कम ही चर्चा सुनेंगे. दंगों को लेकर ज्यादा सुनेंगे.

हिन्दी और अंग्रेजी अखबारों में बीजेपी के हर नेता के बयान को मोटे अक्षरों में और काफी विस्तार से छापा जाता है. इन खबरों को पढ़ कर याद ही नहीं आएगा कि इस चुनाव में विपक्ष भी है. अमित शाह और योगी पश्चिम यूपी में दंगों की याद दिला रहे हैं. किस तरह से और क्या याद दिला रहे हैं इस पर कोई बात नहीं कर रहा है. कोई यह याद नहीं दिला रहा है कि पश्चिम यूपी के कई शहरों को स्मार्ट सिटी बनना था. स्थानीय स्तर पर मीडिया मेरठ, नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाज़ियाबाद को भी स्मार्ट सिटी लिखता है लेकिन केंद्र सरकार की स्मार्ट सिटी वेबसाइट पर इन ज़िलों के नाम स्मार्ट सिटी की सूची में नहीं हैं. पश्चिम यूपी के शहरों में केवल सहारनपुर, बरेली, मोरादाबाद, आगरा, और अलीगढ़ के नाम हैं. केंद्रीय शहरी मंत्रालय की वेबसाइट से पता चलता है कि सहारनपुर के लिए 24 प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी गई थी जिसमें से छह ही पूरे हुए हैं. 900 करोड़ में से 46 करोड़ का ही इस्तमाल हुआ है. अमित शाह को यह भी याद दिलाना चाहिए.

बजट के समय भी उसी तरह की रिपोर्टिंग होती जिस तरह चुनाव के समय होती है. पहले के बजट में क्या कहा गया और अब के बजट में क्या कहा गया इसकी चर्चा गायब है. जैसे 2022 के इस साल में हर किसी को घर मिल जाना था और किसानों की आय दो गुनी हो जानी चाहिए थी लेकिन इसकी चर्चा ही नहीं है.

2022 के साल में मोदी सरकार के तीन बड़े टारगेट पूरे होने थे तीनों की बात ही नहीं हो रही है. किसानों की आय दो गुनी होनी थी. प्रधानमंत्री कुसुम योजना के तहत किसानों को सोलर पंप मिलना था और प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत छह करोड़ शहर और गांव में बनने थे.

हमारे सहयोगी अनुराग द्वारी ने मध्य प्रदेश से प्रधानमंत्री आवास योजना को लेकर कई रिपोर्ट फाइल की है. 13 दिसंबर की एक रिपोर्ट में अनुराग ने बताया है कि राज्य सरकार ने गांवों में बनने वाले घरों का लक्ष्य 25 प्रतिशत कम कर दिया है. कारण बजट की कमी बताया गया है. मध्यप्रदेश में प्रधानमंत्री आवास ग्रामीण के तहत कुल लक्ष्य 32,27,131 घरों का है, लेकिन अभी तक 19,37,812 यानी 60.05% घर ही बन सके हैं. शहरों में करीब 53 प्रतिशत ही घर बने हैं. यही ट्रेंड आपको दूसरी जगहों पर भी दिखेगा. बजट भाषण में अरुण जेटली ने गांवों में 4 करोड़ घर बनाने की बात कही थी लेकिन 20 नंवबर 2021 के PIB की रिलिज़ में बताया गया है कि इसका टारगेट 2 करोड़ 95 लाख घऱ बना कर देने का है और 29 जनवरी 2022 तक 1 करोड़ 70 लाख घर ही पूरे हुए हैं. यहां भी लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है. शहरों में भी दो करोड़ घर बनाए जाने थे लेकिन 4 जनवरी 2022 के PIB की रिलिज में बताया गया है कि अभी तक तक करीब 53 लाख घर ही पूरी तरह से बन कर सौंपे जा सके हैं.

पुराने बजट में की गई घोषणाओं और उनकी राशि को पढ़िए और फिर अगले दो तीन बजट में देखिए कि उतना पैसा दिया गया जितना कहा था तो काफी अंतर मिलेगा. ऐसा एक योजना को लेकर नहीं, कई योजनाओं में आपको दिखेगा. मिसाल के तौर पर 2016 के बजट में अरुण जेटली ने कहा कि Accelerated Irrigation Benefits Programme के तहत 80 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि को सिंचित करने के लिए अगले पांच साल में 86, 500 करोड़ ज़रूरत होगी लेकिन अभी तक 13,500 करोड़ ही खर्च हुए हैं. इसी तरह 2019 के बजट में ई व्हीकल को प्रोत्साहित करने के लिए FAME 2 योजना का एलान हुआ. इसके लिए तीन साल में दस हज़ार करोड़ खर्च होने थे. लेकिन पहले 22 महीने में यानी 31 जनवरी 2021 तक सरकार ने केवल 1575 करोड़ ही खर्च किया. स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है.

अब तो नमामि गंगे की बात ही नहीं होती जबकि 20000 करोड़ की यह योजना 2014 में ही लांच हुई थी. मां गंगा ने जिन्हें बुलाया था वह भी नमामि गंगे की बात न के बराबर ही करते हैं. सरकार का हाल यह है कि 2014 में क्लीन गंगा फंड बना था ताकि NRI और आम भारतीय इसमें चंदा दे कर पुण्य कमा सकें. इसमें कुल 240 करोड़ ही चंदा आया है और उसमें से भी मात्र 90 करोड़ ही खर्च हुआ है. जनवरी 2015 में क्लीन गंगा फंड के लिए ट्रस्ट बनाया गया जिसकी अध्यक्ष वित्त मंत्री हैं. नियम बना कि हर तीन महीने में इसकी एक बैठक अनिवार्य रूप से होगी लेकिन पांच साल में कुल तीन बैठक हुई है. यह जानकारी मार्च 2021 में आई संसद की स्थायी समिति में दर्ज है. 2018 के बजट में कहा गया है कि इसके तहत 187 प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दे दी गई है जिस पर कुल 16,713 करोड़ रुपये खर्च होंगे. संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि पांच साल में केवल 9,781 करोड़ ही खर्च हुए हैं. जबकि इसका बजट 20,000 करोड़ बताया गया.

जब पैसा ही पूरा खर्च नहीं हुआ तो ज़ाहिर है प्रोजेक्ट आधे अधूरे ही रह गए. लेकिन सरकार इसे सफ़ल मानती है. ज़मीन पर इन प्रोजेक्ट की क्या हालत है, संसाधनों की कमी के कारण हम सारा कुछ नहीं दिखा पा रहे हैं लेकिन दूसरी जगहों पर ही कम ही छपा दिखता है और यूपी जाने वाले किसी भी पत्रकार ने इस प्रोजेक्ट को लेकर शायद ही कोई विस्तृत रिपोर्ट की है.

2022 में किसानों की आय दो गुनी होनी है मगर कहीं कोई जश्न नहीं दिख रहा है. चुनाव है तो शायद प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का पैसा बढ़ा दिया जाए लेकिन इसी के भरोसे तो किसानों की आय दोगुनी नहीं होनी थी. इतना सारा समय बीत जाने के बाद अब अशोक गुलाटी अंग्रेज़ी में लिख रहे हैं कि अगर किसानों की आय बढ़ानी है तो खेती पर रिसर्च का बजट तीन गुना बढ़ाना होगा. मतलब इतना बेसिक काम भी नहीं हुआ है.

25 दिसंबर 2019 को अटल भू जल योजना लांच हुई और कहा गया कि 20-21 से 24-25 के बीच 6000 करोड़ रुपये खर्च होंगे जिस में आधे पैसे वर्ल्ड बैंक से लिए गए हैं. देश के 78 ज़िलों के हज़ारों ग्राम पंचायतों में गिरते भू जल के स्तर में सुधार होने वाला है. मार्च 2021 में संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट बताती है कि इसके लिए 2020 के बजट में मात्र 200 करोड़ का प्रावधान किया गया वह भी घट कर 125 करोड़ हो गया और खर्च हुआ मात्र 37 करोड़ जबकि हर साल 1200 करोड़ खर्च होना था.

एक और योजना है जिसकी हेडलाइन काफी बड़ी छपी थी. किसानों को सोलर पंप देने के लिए 2019 में प्रधानमंत्री कुसुम योजना का एलान हुआ. इसके तहत 34000 करोड़ की घोषणा हुई थी लेकिन बजट से पता चलता है कि 1500 करोड़ भी नहीं दिया गया. जितना मिलना था उसके 4 प्रतिशत से भी कम. इस योजना का लक्ष्य भी 2022 में पूरा होना था. 17 लाख 50 हज़ार स्टैंड अलोन सोलर पंप लगाए जाने थे लेकिन लगे 75,098 ही. दिसम्बर 2021 में सरकार ने बताया है कि 2018 के बजट में सरकार ने कहा कि आलू प्याज टमाटर जल्दी नष्ट हो जाता है. इसके संरक्षण के लिए सरकार ने आपरेशन फ्लड की तरह आपरेशन ग्रीन योजना लांच की. बाद में इसमें 22 आइटम और जोड़ दिए गए. 2021 में संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि इस योजना के तहत 18 जनवरी 21 तक 10 प्रोजेक्ट को मंज़ूरी दी गई इसमें से पांच कैंसिल हो गए और पांच लागू किए जा रहे हैं. 2019-20 में इसके लिए 200 करोड़ का प्रावधान किया गया लेकिन खर्च हुआ 2 करोड़. 99 प्रतिशत पैसा खर्च ही नहीं हो सका. ये हाल है उन हेडलाइनों का जो बजट के बाद आपको फर्जी उम्मीदों से लबालब कर देती हैं.

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इस तरह से बजट को देखेंगे तो समझ आ जाएगा कि क्यों हर वक्त प्रोपेगैंडा पर मेहनत की जा रही है. 1 फरवरी को जब बजट में एलान होगा, मोटी मोटी हेडलाइन छपेगी तो प्राइम टाइम के इस एपिसोड को याद रखिएगा कि इस तरह का एलान पहले भी हुआ है लेकिन काम वैसा नहीं हो सका. पैसा भी उतना नहीं दिया गया.