आज की राजनीति में बयानों की मर्यादा तार-तार

लोकतंत्र के गिरते हुए स्तर के प्रति हमारी सहनशीलता बढ़ती जा रही है. नेता खुलकर सांप्रदियाक बयान दे रहे हैं या ऐसा कुछ कह रहे हैं जिससे साफ नज़र आता है कि एक संप्रदाय के प्रति नफ़रत फैलाने के लिए दिया गया है.

आज की राजनीति में बयानों की मर्यादा तार-तार

आप इस बात की शिकायत नहीं कर सकते हैं कि भारत में भाषण कम होते हैं. काम भले कुछ कम हो जाता हो लेकिन भाषण कभी कम नहीं होता. अब तो इसका संबंध चुनाव से भी नहीं रहा. और हो यह रहा है कि बोलते-बोलते नेता अपना सब्र खो रहे हैं. इनकी आलोचनाओं का कोई मतलब नहीं रह गया है. क्योंकि उसके बाद कुछ ऐसा बयान आ जाता है कि आप फर्क करना भूल जाते हैं कि ज़्यादा शर्म पहले आई थी या अब आनी चाहिए. लोकतंत्र के गिरते हुए स्तर के प्रति हमारी सहनशीलता बढ़ती जा रही है. नेता खुलकर सांप्रदियाक बयान दे रहे हैं या ऐसा कुछ कह रहे हैं जिससे साफ नज़र आता है कि एक संप्रदाय के प्रति नफ़रत फैलाने के लिए दिया गया है. ऐसा क्यों हो रहा है यह तो सब थोड़ा बहुत जानते समझते हैं मगर इससे नौजवानों से लेकर समाज के अन्य हिस्सों में क्या असर पड़ता होगा, हमें वोट के आगे जाकर सोचना चाहिए. मैं बात कर रहा हूं कर्नाटक से बीजेपी सांसद और मोदी सरकार के मंत्री अनंत कुमार हेगड़े के बयान की.

इस तरह के बयान फिल्मों में मोहल्ले के दादा टाइप के किरदार दिया करते थे मगर अब फिल्मों में भी इस तरह के सीन कम हो गए हैं. देश में संविधान है, कानून है, पुलिस है, कोर्ट है. इसके बाद भी एक केंदीय मंत्री यह कहते हैं कि हिन्दू लड़की को छूने वाले हाथ का वजूद खत्म कर देना चाहिए. यानी वे भीड़ को या अपने समर्थकों को कह रहे हैं कि कानून की ज़रूरत नहीं है. इस बयान से एक और मतलब निकल सकता है कि कोई हिन्दू लड़की के अलावा किसी और की लड़की को छू सकता है. मेरी लड़की और उसकी लड़की के इस बंटवारे को समझना चाहिए. एक सांसद और मंत्री को यह कहना चाहिए कि हमने ऐसी व्यवस्था बना दी है कि वह किसी के साथ भेदभाव नहीं करती है मगर वो तो यह कह रहे हैं कि व्यवस्था को छोड़ो, हिन्दू लड़की को छूने वाले हाथ का वजूद खत्म कर दिया जाएगा. यह बयान सीधा सीधा सांप्रदायिक बयान है. और स्त्रियों के विरुद्ध भी है. भारत की लड़कियों का अपमान भी है.

अनंत हेगड़े पहले भी इस तरह के बयान देते रहे हैं. वे यहीं नहीं रुके बल्कि कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष दिनेश गुण्डु राव की पत्नी को भी घसीट लिया. इससे साफ है कि अनंत कुमार हेगड़े के दिमाग़ में क्या चल रहा है. हेगड़े ने ट्विट किया है कि 'मैं दिनेश गुण्डु राव से पूछना चाहता हूं कि उन्होंने क्या हासिल किया? मैं उन्हें एक ऐसे शख्स के तौर पर जानता हूं जो एक मुस्लिम महिला के पीछे भागते रहे हैं.

यह पर्सनल अटैक था क्योंकि गुण्डु राव की पत्नी मुस्लिम हैं. किसी भी प्रकार के ऐसे सांप्रदायिक बयानों से सावधान रहें. यह सीधे-सीधे नफ़रत फैलाने के मकसद से दिया गया है. अनंत कुमार हेगड़े एक तरह से आज के युवाओं की निजी राय तय करना चाहते हैं कि वे किससे शादी करें, किससे प्यार करें. गुण्डु राव की पत्नी मुस्लिम हैं और दोनों पचीस साल से शादी शुदा हैं. क्या आपको लगता है कि एक मंत्री का ऐसा कहना उचित है. गुण्डु राव की पत्नी तबु राव ने एक पोस्ट लिखर अनंत कुमार हेगड़े के ट्वीट की आलोचना की है.

केंद्रीय मंत्री हेगड़े ने ट्वीट किया है कि मैं दिनेश गुण्डु राव को सिर्फ इसलिए जानता हूं क्योंकि वह एक मुस्लिम लड़की के पीछे भागा था. हां मैं एक मुसलमान पैदा हुई हूं लेकिन मुझे पहले भारतीय होने पर गर्व है. भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर बना है जो हर व्यक्ति को विचार, अभिव्यक्ति, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता देता है. मैंने कभी किसी बीजेपी नेता के ख़िलाफ़ टिप्पणी नहीं की है. मैं ख़ुद को सस्ती राजनीति में प्यादे के रूप घसीटने की कोशिश का सख्त विरोध करती हूं. अगर उनमें साहस है तो मेरे पति को राजनीतिक तौर पर चुनौती दें न कि पत्नी की साड़ी के पीछे छिपकर पत्थर उछालें. एक मंत्री को शोभा नहीं देता कि वह इस तरह के मर्दवादी और भड़काऊ बयान दे.

क्या अब इस पर राजनीति होगी कि किसने किससे शादी की है. आपको केरल का प्रसंग आद होगा. हादिया ने जब मजहब बदलकर शादी की तो नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी तक का छापा पड़ गया. हाई कोर्ट ने हादिया की शादी को रद्द कर दिया था मगर वह सुप्रीम कोर्ट से जीत गई. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि धर्म बदलने का अधिकार भी मौलिक अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाई कोर्ट के फैसले की कड़ी आलोचना भी की थी. इस तरह के बयान क्यों आ रहे हैं जिनका मकसद एक समुदाय के प्रति नफरत को उकसाना है. संविधान में भाईचारे की बात कही गई है. हाल ही में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भी इसी तेवर का एक बयान दिया था. पश्चिम बंगाल की एक रैली में. हिन्दू, सिख, बौद्ध और ईसाई को डरने की ज़रूरत नहीं है. एक राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष अपने बयान में चार धर्मों को सुरक्षा का आश्वासन दे रहे हैं. एक को क्यों छोड़ रहे हैं वही बता सकते हैं मगर यह साफ है कि एक मज़हब के खिलाफ चार धर्मों का रक्षक बनकर वो कौन सी रेखा खींच रहे हैं. इन चार धर्मों के लोगों को भी सोचना चाहिए कि अगर उन्हें कुछ होगा तो कोर्ट पुलिस पर भरोसा करेंगे या अमित शाह पर. फिर अमित शाह को ही सुप्रीम कोर्ट घोषित कर दें कि वहीं हमारे रक्षक और मसीहा होंगे आज से. आप अमित शाह और अनंत हेगड़े के बयान को एक साथ सुनेंगे तो आपको समझ आ जाएगा कि मैं क्या कह रहा हूं.

क्या आपको दोनों के बयान में कोई अंतर लगा. आम तौर पर मैं बयानों को लेकर कार्यक्रम कभी कभार ही करता हूं हमारे नेता रोज़ ही आंय बांय सांय बकते रहते हैं मगर अमित शाह और अनंत हेगड़े के बयान आंय बायं सांय नहीं हैं. इनके असर में आपके घर का कोई नौजवान हिंसा कर सकता है. उसे लगेगा कि हिन्दू के नाम पर किसी पर हाथ उठा देना सही है. ऐसे में वह गंभीर किस्म के अपराध कर सकता है. आप अपने बच्चों को ऐसे बयानों से बचाइये. सांप्रदायिकता इंसान को मानव बम में बदल देती है. वह कब और किस बात पर फट पड़ेगा ये आपके नियंत्रण में नहीं है. मोदी सरकार के एक और मंत्री नितिन गडकरी के बयान पर गंभीरता से सोचना चाहिए. नितिन गडकरी जैसा मंत्री अगर नेता की पिटाई की बात करे तो उचित नहीं है. भले ही उस नेता ने जितने सपने दिखाए हों.

अगर जनता गडकरी की बात को गंभीरता से ले तो देश में कानून और व्यवस्था का संकट पैदा हो सकता है. हमारे प्रतिनिधियों को सेना की सुरक्षा में रखना होगा. इसलिए जनता से भी अपील है कि वे गडकरी के बयान के दूसरे हिस्से को गंभीरता से न लें. किसी पर हाथ उठाना भी जुर्म है. पीटने की बात तो छोड़ दीजिए. कभी हिन्दू के नाम पर तो कभी पब्लिक के नाम पर पीटने और वजूद खत्म कर देने वाले इन बयानों में कोई खास अंतर नहीं है. दोनों में ही हिंसा की कल्पना है. नेता चाहते हैं कि मारने पीटने का काम आप करें, जेल आप जाएं, केस आप लड़ें और राज वो करें. हमें नहीं मालूम कि नितिन गडकरी की निगाह में सपने बेचने वाला नेता कौन है. उनकी पार्टी का है या दूसरी पार्टी का मगर गडकरी ने अभी तक खंडन किया है न सफाई दी है. कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि गडकरी ने प्रधानमंत्री मोदी की तरफ इशारा किया है. ऐसा होता तो प्रधानमंत्री अब तक उन्हें हटा चुके होते आखिर वे उस व्यक्ति को कैसे अपने मंत्रिमंडल में रख सकते हैं जो पीटने की बात करे या सपने दिखाने के लिए उनका मज़ाक उड़ाए. गडकरी ने अपनी तरफ से सफाई नहीं दी मगर बीजेपी के नेता सफाई देने का अभ्यास खूब कर रहे हैं. ऐसा लगता है कि इस बयान को बीजेपी के भीतर समझने का काफी प्रयास हुआ है.

एक बार फिर से कर्नाटक चलते हैं. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया भी आपा खो बैठे और महिला से अभदता कर बैठे. वीडियो में आप देख सकते हैं कि अपनी बात रखने के लिए महिला मेज़ पर ज़ोर से मारती है और गुस्से में सिद्धारमैया उठते हैं और उसके हाथ से माइक छीन लेते हैं_ माइक के साथ उसका दुपट्टा भी सरक जाता है. हर लिहाज़ से सिद्धारमैया ने अभद्रता की. मंत्री अनंत हेगड़े के बयान पर बीजेपी ने इस्तीफा नहीं मांगा मगर सिद्धारमैया की इस हरकत पर राहुल गांधी से पूछा है कि वह कब इस्तीफा मांगेंगे.

सिद्धारमैया ने जिस महिला के हाथ से माइक छीन ली उसका नाम जमीला है. जमीला ने कहा कि चुनाव के बाद यहां पहली बार विधायक आए हैं. सिद्धारमैया ने कहा कि क्या आपको विधायक नहीं मिलते हैं. इस पर महिला ने मेज़ पर हाथ मारकर कहा कि नहीं सर, विधायक नहीं मिलते हैं. बिल्कुल नहीं मिलते हैं. बस सिद्धरमैया को गुस्सा आ गया. माइक छीन लेते हैं. पहले कहते हैं कि तमीज़ से बात करो और माइक छीनते हुए कहा कि यहां से चली जाओ. चुपचाप बैठ जाओ. जमीला फिर से बोलने की कोशिश करती है तब सिद्धारमैया उठकर खड़े हो जाते हैं और धमकी भरे लहज़े में उसे बैठने के लिए कहते हैं, मुंह बन्द रखने की बात कहते हैं.

ज़रूर महिला ने मेज़ पर हाथ देकर मार दिया मगर एक नेता को समझना चाहिए कि जब उसके पास सभ्य तरीके से पेश आने की भाषा और सहनशीलता नहीं बची है तो हाशिये पर खड़ी जनता के पास क्या बचा होगा. फिर भी इस प्रतिक्रिया पर सिद्धारमैया उठ कर खड़े होते और आराम से उसे बात बता सकते थे. माइक छीनना और मुंह बन्द करने की बात करना, एक चुने हुए प्रतिनिधि के लिए शोभा नहीं देता है. सिद्धारमैया हर लिहाज से इस प्रसंग में एक ताकतवर शख्स हैं इसलिए उनका ऐसा करना महिला पर हमला करने के बराबर माना जाना चाहिए. हर लिहाज़ से यह अभद्रता है. बाद में जमीला ने बयान दिया जिसका इस संदर्भ में इतना ही मतलब है कि उसने सफाई दी लेकिन वहां जो होते हुए हम सबने देखा वो कहीं से उचित नहीं था.

नेताओं के बयान और हरकतों से आपको लगेगा कि देश में कुछ और मुद्दा है लेकिन जब आप लोगों के बीच जाएंगे तो पता चलेगा कि उनके लिए कुछ और मुद्दा है. वैसे भी मीडिया ने लोकतांत्रिक प्रदर्शनों में दिलचस्पी लेना बंद कर दिया है. उसके लिए धरना प्रदर्शन अब मायने नहीं रखते. जो लोग धरना प्रदर्शन में आते हैं वो चाहते हैं कि उनको मीडिया दिखाए पर उन्हें खुद से एक सवाल करना चाहिए. क्या जब मीडिया किसी और के धरना प्रदर्शन को दिखाता है तो वे देखते हैं, सोचते हैं, विचार करते हैं जानकारी जुटाते हैं कि जनता का दूसरा हिस्सा क्यों परेशान है.

हमारे सहयोगी हरिसिंह ने यह तस्वीर न भेजी होती तो पता ही नही चलता कि रामलीला मैदान में इतनी बड़ी संख्या में आशा, आंगनवाड़ी और मिड डे मील में काम करने वाली महिलाएं सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं. इन महिलाओं का कहना है कि उनसे रोज़ सात से आठ घंटे काम कराया जाता है और राज्य सरकारें तीन हज़ार रुपया ही वेतन के रूप में देती हैं. बिहार से आई एक मिड डे मील बांटने वाली महिला ने बताया कि उसे सिर्फ 1250 रुपये महीने के मिलते हैं. जबकि सरकार ने न्यूनतम वेतन 15000 रुपये तय किया है. फिर खुद सरकार इन्हें रोज़ के 40 से 100 रुपये भी नहीं देती है. बिहार की महिलाओं ने कहा कि 12 महीने काम करती हैं और वेतन 10 महीने का ही मिलता है. ऑल इंडिया यूनाइटेड ट्रेड यूनियन सेंटर ने इस प्रदर्शन का आयोजन किया था. कई महिलाएं दस दस साल से ये काम कर रही हैं मगर उन्हें सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है.

झारखंड लोक सेवा आयोग पर रिसर्च करने के लिए मैंने हार्वड और आक्सफोर्ड के प्रोफेसरों को चुनौती दी थी कि वे एक ही जहाज़ से रांची आएं और रिसर्च करें कि कैसे 2015 से एक परीक्षा आज तक पूरी नहीं हुई है. चार साल में परीक्षा पूरी न हो, परीक्षार्थी चार साल से इंतज़ार कर रहे हों, ऐसा कम होता है. चार साल में तो न जाने कितना अर्ध कुंभ आकर निकल जाता है. आप चाहें तो एक फिल्म भी बना सकते हैं जिसका नाम मैं रख देता हूं. एक रुकी हुई परीक्षा. तमाम रुकावटों के बाद आज झारखंड लोक सेवा आयोग की मेन्स की परीक्षा हुई लेकिन पता चला जो प्रश्न पत्र आया था वो 25 मई 2017 का छपा हुआ है. आप जानते हैं कि कई बार डेट निकला है और परीक्षा रद्द हुई है तो लगता है पुराना वाला प्रश्न पत्र छप गया है.

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इसी के विरोध में रांची में झारखंड लोक सेवा आयोग के बाहर 100 से अधिक छात्रों का समूह मानव श्रृंखला बनाकर विरोध कर रहा था. अपने एडमिट कार्ड के साथ. हमारे सहयोगी हरबंस ने बताया कि 25 मई 2017 की परीक्षा में लगभग 5100 उम्मीदवार शामिल होने वाले थे लेकिन कोर्ट वगैरह के फैसले के बाद जो रिजल्ट निकला उससे छात्रों की संख्या 34,664 हो गई. 28 जनवरी को परीक्षा होनी थी और छात्रों को पता चलता है 16 दिन पहले. हरंबस को सूत्रों ने बताया कि इतनी जल्दबाज़ी में 34000 से अधिक प्रश्न पत्र बनाना मुश्किल था तो इन लोगों ने पुराने प्रश्न पत्र का सील तोड़ कर फिर से छपाई कर ली. उसके बाद आज परीक्षा हुई. छात्र भी कहते हैं कि निबंध के खंड में सवाल पूछा गया था कि झारखंड के 16 वर्ष होने पर निबंध लिखें जबकि यह 19वां साल चल रहा है. ज़ाहिर है प्रश्न पत्र पुराना है. यही नहीं मेन्स की परीक्षा के जो फार्म भरे गए उसकी स्क्रूटनी में लगे 55 कर्मचारियों में से 18 ने परीक्षा दी है. यह भी सही नहीं है. परीक्षार्थियों को शक है कि इन लोगों को प्रश्न पत्र देख लिया होगा. अगर यह सही है तो कितना दुखद है कि दो साल पहले का छपा प्रश्न पत्र पूछा जा रहा है. अगस्त 2015 की परीक्षा का मेन्स तीन साल बाद जनवरी 2019 में हो रहा है. झारंखड के छात्रों का धीरज कमाल का है. हम एक इम्तहान ढंग से नहीं करा पाते, बातें बड़ी बड़ी करते हैं.