विपक्ष की तरफ से लगातार तीन दिन से उठ रही मांग के मद्देनज़र आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्यसभा में आए, लेकिन इसके बावजूद धर्मांतरण के मुद्दे पर बहस की शुरुआत नहीं हो सकी। वजह यह है कि विपक्ष सरकार से आश्वासन चाहता है कि बहस के अंत में जवाब प्रधानमंत्री की तरफ से आना चाहिए। विपक्ष इसके लिए संसदीय परंपरा का हवाला देकर ज़ोर डाल रहा है कि देश में जब भी कोई गंभीर मामला उठता है, प्रधानमंत्री संसद में उस पर अपनी बात रखते हैं। लेकिन दूसरी तरफ सरकार और राज्यसभा के चेयरमैन की तरफ से संसदीय नियमों का हवाला देकर कहा जा रहा है कि बहस के लिए किसी तरह की पूर्व शर्त नहीं रखी जा सकती। संसदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू ने साफ कर दिया कि बहस के अंत में गृहमंत्री जवाब देंगे, लेकिन विपक्ष को यह मंज़ूर नहीं।
तो समझने की कोशिश करते हैं कि बहस की मांग मान लिए जाने के बाद विपक्ष आख़िर बहस शुरू करने की बजाए प्रधानमंत्री से जवाब पर क्यों अड़ा है और प्रधानमंत्री की तरफ से इस तरह का भरोसा दिए जाने से क्यों बचा जा रहा है।
धर्मांतरण के मुद्दे पर योगी आदित्यनाथ जैसे बीजेपी सांसद के जो बयान आए हैं, विपक्ष को सरकार को घेरने का मौका मिल गया है। वह चाहता है कि प्रधानमंत्री इस पर बोलकर अपनी स्थिति साफ करें। दो स्थिति बनती हैं - या तो वह बोलेंगे या नहीं बोलेंगे। बोलेंगे तो धर्मांतरण के मुद्दे पर योगी आदित्यनाथ के बयान का बचाव नहीं कर सकते। उन्हें किसी न किसी तौर पर इस तरह के बयानों या कोशिशों के खिलाफ बोलना पड़ेगा।
कुछ उसी तर्ज पर जैसे उन्होंने अंदरूनी तौर पर अपनी पार्टी के सांसदों को भाषा और बयान पर संयम रखने की सलाह दी है। पार्टी फोरम के जरिये वह इस तरह की नसीहत तो दे सकते हैं, लेकिन सदन में ऐसा बोलेंगे तो पार्टी और संघ में गलत संदेश जाएगा। माना जा रहा है कि धर्मांतरण के कार्यक्रम चलाने के पीछे सीधे-सीधे संघ है, और उसी की शह पर कुछ सांसद खुले तौर पर इसे बोलने करने की हिम्मत कर रहे हैं।
पार्टी के भीतर सांसदों से चाहे जिस तरह से संवाद कर लें, लेकिन विपक्ष के दबाव में वह अपने किसी सांसद के खिलाफ जाते नहीं दिखना चाहेंगे। विपक्ष पूछ रहा है कि अगर वह धर्मांतरण पर सांसदों की बयानबाज़ी से नाख़ुश हैं तो कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे। अगर बोले तो इन सवालों का जवाब भी देना पड़ेगा। अगर नहीं देंगे तो विपक्ष और घेरने की कोशिश करेगा... और अगर योगी जैसे सांसद के बयान से किनारा करना पड़ा तो विपक्ष इसे अपनी जीत के तौर पर पेश करेगा। यानि 'आगे कुआं, पीछे खाई' की स्थिति है।
प्रधानमंत्री राज्यसभा में इस मुद्दे के तूल पकड़ने के बाद नहीं आ रहे थे। संसदीय कार्यमंत्री पहले भी बयान दे चुके हैं कि सरकार के पास सक्षम मंत्री हैं, जो बहस का जवाब देंगे। सरकार यह भी संदेश नहीं जाने देना चाहती थी कि वह प्रधानमंत्री के मौजूद रहने की विपक्ष की शर्त को नहीं मान रही और बहस से भाग रही है, इसलिए गुरुवार को प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में आकर इस मुद्दे पर अपनी तरफ से गंभीरता दिखाने की कोशिश की है। विपक्ष इतने से मानने को तैयार नहीं। वह पीएम से जवाब का आश्वासन चाहता है। ऐसा भरोसा लिए बगैर बहस करने से विपक्ष को कुछ हासिल नहीं होगा। उसे यह जताने का भरपूर मौका मिल रहा है कि पीएम धर्मांतरण जैसे गंभीर मुद्दे पर बोलने से बच रहे हैं।
धर्मांतरण का मुद्दा कानून-व्यवस्था से भी जुड़ा है, इसलिए सरकार जवाब गृहमंत्री की तरफ से दिए जाने की बात कर रही है। लेकिन संघ से नज़दीकी संबंध वाले राजनाथ सिंह क्या संघ के किसी कार्यक्रम के खिलाफ बोलेंगे...? बोलेंगे तो सोचिए कि संघ से उनके आगे के संबंधों की दशा-दिशा क्या होगी। और अगर धर्मांतरण की कोशिशों की मज़म्मत नहीं की तो गृहमंत्री के तौर पर उनकी स्थिति कैसी होगी। एक तीर से दो निशाने...
संसदीय कार्यमंत्री ने कहा कि विपक्ष संख्याबल के कारण इस तरह से अड़ा है। जवाब सीताराम येचुरी की तरफ से आया कि सत्तापक्ष भी तो संख्याबल की वजह से ही लोकसभा में अड़ता है। कुल मिलाकर राज्यसभा में पेंच फंसा हुआ है।
This Article is From Dec 18, 2014
उमाशंकर सिंह की कलम से : आखिर प्रधानमंत्री को बोलने में दिक्कत क्या है...?
Umashankar Singh, Vivek Rastogi
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Updated:दिसंबर 18, 2014 18:36 pm IST
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Published On दिसंबर 18, 2014 14:06 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 18, 2014 18:36 pm IST
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