सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर (फाइल फोटो)
प्राचीन भारत में कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर आधुनिक भारत के संविधान में सुगम तथा प्रभावी न्याय को सुशासन की कसौटी का मुख्य आधार माना गया है। न्यायिक व्यवस्था के पुनरावलोकन से ही मोदी सरकार की दो साल की उपलब्धियों का सही मूल्यांकन हो सकता है।
न्यायिक व्यवस्था की बदहाली पर CJI का भावुक आग्रह
मोदी सरकार ने जजों की नियुक्ति व्यवस्था में बदलाव के लिए एनजेएसी कानून बनाया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया। अड़ंगेबाजी लगाते हुए मोदी सरकार ने अभी तक एमओपी पर फैसला नहीं लिया, जिससे हाईकोर्टों में 443 जजों की कमी हो गई है। पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने भावुक होते हुए प्रधानमंत्री मोदी से आग्रह किया कि न्यायिक व्यवस्था को बदहाली से बचाने के लिए जजों की नियुक्ति पर सरकार को जल्द फैसला करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने इस विषय पर बंद कमरे में बैठकर समस्या के समाधान के लिए कहा। परंतु केंद्रीय न्यायमंत्री सदानंद गौड़ा ने बाद में साफ कह दिया कि विधि आयोग द्वारा 40,000 जजों की सिफारिश का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। हकीकत यह है कि ट्रिब्यूनल एवं हाईकोर्टों में स्वीकृत जजों की नियुक्ति ही, सरकार द्वारा समय पर नहीं की जा रही है।
उत्तराखंड के चीफ जस्टिस ने लगाई केंद्र सरकार को फटकार
देश में 3 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। राष्ट्रीय मुकदमा नीति के विरुद्ध सरकार द्वारा गलत मुकदमे दायर करने से अदालतों का बोझ ज्यादा बढ़ता है। अदालत में फैसले रद्द होने से सरकार की खिल्ली भी उड़ती है, जैसा कि जाट आरक्षण, कॉल ड्रॉप और उत्तराखंड के मामलों में हुआ। उत्तराखंड में मोदी सरकार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय को रद्द कर दिया। चीफ जस्टिस जोसफ ने कठोर टिप्पणी करते हुए कहा कि राष्ट्रपति और सरकार के निर्णय भी गलत हो सकते हैं।
अदालती मामलों में सरकार ने जनता के हितों का नहीं रखा ध्यान
पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने संसद से आधार का कानून नहीं पारित कराया जिसे दुरुस्त करने की बजाए मोदी सरकार ने प्राइवेसी के अधिकार पर ही सवालिया निशान लगा दिया। कॉल ड्रॉप मामले में सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख सरकार द्वारा तथ्यों का सही प्रस्तुतीकरण नहीं करने से टेलीकॉम कंपनियों की लूट जारी है जिससे 100 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं में खासा असंतोष है। भाजपा शासित हरियाणा तथा अन्य सरकारों द्वार सरकारी वकीलों की नियुक्ति में अनियमितताओं के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी के बावजूद केंद्र सरकार सुधारात्मक कदम उठाने में विफल रही। सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों के बावजूद सरकार द्वारा जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की मुक्ति के लिए गंभीर प्रयास नहीं करने से गरीब जनता में भी हताशा है।
रसूखदारों के विरुद्ध प्रभावी कानूनी कार्रवाई नहीं
वोडाफोन के खिलाफ 3200 करोड़ रूपए के मामले में मोदी सरकार की कैबिनेट ने सुप्रीम कोर्ट में अपील फाइल नहीं करने का निर्णय लेकर खतरनाक मिसाल बनाई। इस मामले में अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी की राय पर भी सवाल खड़े हुए जिन्हें भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने हटाने की मांग की है। जनता का पैसा नहीं लौटाने पर सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय कई वर्ष तक जेल में बंद रहे। विजय माल्या तो सरकार को ठेंगा दिखाकर विदेश भाग गए पर देश में मौजूद बाकी उद्योगपतियों के विरूद्ध 6 लाख करोड़ से अधिक सरकारी पैसे को हजम करने के खिलाफ सख्त कार्रवाई क्यों नहीं होती?
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पालन में सरकार द्वारा आनाकानी
क्रिकेट तथा बीसीसीआई को दुरुस्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति बनाई थी। बीसीसीआई प्रमुख की कुर्सी पर अब भाजपा नेता अनुराग ठाकुर काबिज हो गए हैं जिन्होंने लोढ़ा समिति की सिफारिशों को पूरी तरह से मानने से इनकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी खर्च से विज्ञापन का दुरुपयोग रोकने के लिए आदेश पारित किया था जिसका पालन कराने की बजाय मोदी सरकार ने राज्य सरकारों का साथ देकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश में परिवर्तन ही करा दिया। संसद द्वारा पारित आरटीआई कानून प्रशासन में पारदर्शिता तथा जवाबदेही के लिए जनता का प्रभावी हथियार है जिसके ऊपर अब सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार सिर्फ केंद्रीय सूचना आयोग के सम्मुख जनवरी 2015 तक 35 हजार से अधिक आरटीआई के मामले लंबित थे जो सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़ा करते हैं।
संसद को अपराधियों से मुक्त कराने के लिए नहीं हुआ फास्ट ट्रैक ट्रायल
चुनावों के दौरान और प्रधानमंत्री बनने पर मोदी ने घोषणा की थी कि सभी दागी सांसदों का फास्ट ट्रैक ट्रायल होगा जिससे एक वर्ष के भीतर संसद अपराधियों से मुक्त हो सके। इस संदर्भ में सरकार के अधूरे प्रयासों को सर्वोच्च न्यायालय की स्वीकृति नहीं मिल पाई। भाजपा अपने दागी सांसदों-विधायकों के शपथ-पत्र और सरकार (अभियोजन पक्ष) की स्वीकृति को यदि न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत करती तो फास्ट ट्रैक ट्रायल संभव हो सकता था, जो लोकतंत्र के शुद्धीकरण की दिशा में प्रभावी शुरुआत होती। इसकी बजाय पिछले दो सालों में अन्य दलों की तर्ज पर भाजपा द्वारा राज्यों के चुनाव में अपराधी उम्मीदवारों को खड़ा करने से प्रधानमंत्री मोदी के दावों पर सवाल खड़े होते हैं। मोदी सरकार के बचे हुए तीन सालों में क्या जनता दागी प्रतिनिधियों से मुक्त होने का सुख पाएगी जो उसका संवैधानिक हक भी है? इसके जवाब और क्रियान्वयन में ही मोदी सरकार का सही मूल्यांकन हो सकेगा।
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
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