जिन बच्चों के हाथ में हमारा तिरंगा सुशोभित हो रहा था, बिक रहा था, वही बच्चे हैं जो अन्य दिनों में चौराहों पर भीख मांगते हैं. अमिताभ घोष और अमितावा कुमार की किताबों की नकली प्रति बेचते हैं. प्लास्टर आफ पेरिस, जिसका कोई हिन्दी नाम आज तक नहीं सुना, के बने देवी-देवताओं की मूर्तियां बेचते हैं. चीन से आए खिलौनों को ट्रे में सजाकर बेचते हैं और कार की सफाई के लिए कपड़े वगैरह भी. चीन का बहुत सारा सामान सबसे पहले इन्हीं बच्चों के हाथों भारत की सड़कों पर लांच होता है. भारत के राष्ट्रवाद का सबसे पवित्र और सर्वोत्तम प्रतीक घर-घर पहुंचने के लिए इन्हीं बच्चों पर निर्भर है, जो भारत भाग्य विधाता अर्थात सरकार की ज़ुबान में स्कूल या कालेज से ड्राप आउट हैं.
तिरंगा हम सबको भावुक कर देता है. आसमान में लहराता दिखता है तो लगता है कि हम भी ट्रैफिक जाम से निकलकर, अपनी तकलीफदेह जीवन यात्रा से ऊपर उठकर उसके साथ उड़ रहे हैं. सरकारों से लेकर आंदोलनकारियों तक सबको यह बात पता है. अन्ना आंदोलन के वक्त कई लोगों ने तिरंगा थामा था. दूसरी आजादी का नाम दिया गया. वह लोकपाल आज तक नहीं आया. लोग अपनी दूसरी आजादी भूल गए और वह कसमें भी जो उन दिनों तिरंगे के नीचे खा रहे थे. उस साल दिल्ली में खूब तिरंगा बिका था. आइसक्रीम और मूंगफली बेचने वाले तिरंगा बेचने लगे.
कई लोग तिरंगा लिए रामलीला और जंतर-मंतर चले जा रहे थे. मंच से जो लोग तिरंगा लहरा रहे थे वे आगे चलकर अलग-अलग रास्तों पर निकल गए. उन लोगों में से कुछ ने दो नए राजनीतिक दल का गठन किया. उनके अपने झंडे हो गए. कुछ ने पुराने दलों से हाथ मिला लिया. नतीजे में एक नई सरकार बनी, बहुत से विधायक बने, मुख्यमंत्री बने, केंद्रीय मंत्री बने, उप राज्यपाल बने, प्रवक्ता बने. एक का बिजनेस विशालकाय हो गया. यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि तिरंगा हाथ में थाम लेने से सबका मकसद एक नहीं हो जाता है. सब किसी काल्पनिक एकता के शिकार नहीं हो जाते हैं. उन्हें तब भी ध्यान रहता है कि अपनी पार्टी और अपने लिए क्या करना है. तब भी का मतलब जब उनके हाथ में तिरंगा होता है.
मेरी बात शुरू हुई थी मूलचंद फ्लाईओवर के उन ड्राप आउट बच्चों से तमाम सरकारी योजनाओं के बागी हैं. क्या यह बच्चे न होते तो हम सब दिल्ली के सदर बाजार या पूर्वी दिल्ली के सीलमपुर या जाफराबाद जाने का जोखिम उठाते? मैं आज उन इलाकों में गया था. एक किलोमीटर से भी कम का सफर डेढ़ घंटे में तय करके आया हूं. सड़कों के किनारे पतंग और तिरंगा की दुकानें देखकर आसमान के ख्यालों में खो गया. ऐसा लगा जैसे खुद अमिताभ बच्चन साहब ने आकर सर पर नवरत्न तेल मल दिया हो.
जाफराबाद की उन दुकानों के आगे की सड़क तंग हो गई है मगर तिरंगा बड़ा हो गया है. छोटे तिरंगे वाली दुकानें बहुत कम दिखीं. तिरंगे को इस तरह से रखा गया था कि दूर से ही लगे कि बड़ा वाला है. आकारों की प्रतियोगिता नजर आ रही थी. इस साल आकार को लेकर होड़ है. आकार ही ब्रांड है. दूर से झंडे को देखता रहा. उन्हीं के बीच एक कार दिखी जिस पर ब्राह्मण लिखा था. हम जात को भी राष्ट्र की तरह प्रदर्शित करते हैं. वैसे कारों पर राजपूत और गुर्जर भी लिखा होता है. उन्हीं कारों के डैश बोर्ड पर तिरंगा भी रखा होता है.
इस साल के शुरू में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विवाद के समय आदेश हुआ था कि वहां 207 फीट ऊंचा तिरंगा लहराया जाएगा. वहां पहले से ही प्रशासनिक भवन पर तिरंगा लहराता है मगर इतना बड़ा तिरंगा लहरा सकता है, यह किसी के जेहन में नहीं आया था. उसी दौरान यह भी आदेश हुआ था कि सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों मे तिरंगा लहराता हुआ नजर आना चाहिए. उम्मीद की जानी चाहिए कि विशालकाय तिरंगे के नीचे बैठे वाइस चांसलर सिर्फ और सिर्फ देशभक्ति की भावना से काम कर रहे होंगे. किसी के दबाव में किसी के भतीजे को भर्ती नहीं कर रहे होंगे और पाई-पाई का सही हिसाब रख रहे होंगे. सारे खाली पद भर गए होंगे और छात्र देशभक्ति से लबालब पढ़ने लिखने में मशरूफ हो गए होंगे.
पहले भी उत्साही नागरिकों का दल कनाट प्लेस से लेकर तमाम जगहों पर सबसे ऊंचा और सबसे बड़ा तिरंगा लहराने का कार्यक्रम करता रहा लेकिन जेएनयू विवाद के समय आकार और ऊंचाई को संस्थानिक रूप दे दिया गया. हाल ही में कांवड़ यात्रा में तिरंगे को जगह मिली है. क्यों किया गया इसका मुकम्मल जवाब अभी तक नहीं मिला है. वैसे तिरंगे के बगल में डीजे धुन पर नाचते-गाते भक्तों को देखकर थोड़ा उत्साह कम हो गया. कहीं ऐसा तो नहीं कि अब हर तीर्थ यात्रा या त्योहारों में तिरंगा जुड़ता चला जाएगा. कई जगहों से खबरें आईं कि विशालकाय तिरंगा लेकर कांवड़िया लौट रहे हैं. कांवड़ यात्रा में लोग बड़े आकार का तिरंगा लेकर चल रहे हैं. किसी को पूछना चाहिए था कि शिव भक्ति के लिए गए तो तिरंगा क्यों लेकर जा रहे हैं. जाने में मनाही नहीं है, लेकिन सवाल तो पूछा ही जा सकता है. शिव के लिए सब भक्त समान हैं. चाहे वे भारतीय भक्त हों या किसी अन्य देश की नागरिकता वाला भक्त हो. कम से कम मेरे भोले तो ऐसे नहीं है. वे भक्तों में राष्ट्र के आधार पर अंतर नहीं करते और यही तो शिव की सार्वभौम व्याख्या है. जो भी जैसा है, बस चले आए, शिव के लिए सब समान हैं. बहरहाल, क्या हम आश्वस्त हैं या हो सकते हैं कि तिरंगा के साथ लौटने वाले यह तमाम भक्त अपने गांव-घरों में देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत देखे जा रहे हैं.
हमारी समस्या है कि हम सवालों से जवाब की तरफ नहीं जाते. बयानों को जवाब समझने लगे हैं. हम सब तिरंगा के प्रति खास किस्म की भावुकता रखते हैं. हम अमरीकी लोगों की तरह नहीं है कि अपने राष्ट्र झंडे की कमीज सिलवा ली, पर्दा बनवा लिया या सोफा कवर सिलवा लिया. अमरीकी अपने राष्ट्रीय झंडे का उपभोग करते हैं. हम उपभोग नहीं करते हैं. तिरंगे और अशोक चक्र के साथ गेंद बनाकर कोई हमारी तरफ फेंक दे तो यकीनन हम सबके हाथ कांप जाएंगे. वैसे उन नेताओं की देशभक्ति नापनी हो तो आप उनके या उनकी पार्टी के घोटाले और काले कारनामों के अनगिनत किस्सों से नाप कर देखिएगा.
कुछ तो है कि तिरंगे के सम्मान के नाम पर उसके साथ असहज हो रहा है. मैं चाहता हूं कि आप सोचें कि क्या जो भी हो रहा है वह सामान्य है. तिरंगे के आकार को लेकर राजनीतिक दलों में होड़ सी है. एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री पंद्रह अगस्त के रोज बड़े आकार का तिरंगा लहराना चाहते हैं. उसका आकार चालीस फुट बटा साठ फुट का है. कीमत एक लाख रुपये है. तिरंगे को लेकर होड़ का ही नतीजा है कि राज्य की नजर में एक लाख की कीमत नहीं जबकि उसका निवासी या नागरिक बीस रुपये इंजेक्शन लगाने के नहीं दे पाता है और उसका बच्चा मर जाता है. झंडे के कारोबार से जुड़े लोग खुश हैं कि दस हजार से लेकर एक लाख तक का तिरंगा बन रहा है. लेकिन जो कारोबारी खुश है उसी का यह भी कहना है कि यह तो इंडस्ट्री बन गया है, सब दिखावा हो गया है, देशभक्ति नहीं है, बड़ा झंडा लगाएंगे तो काफी लोग आ जाएंगे.
छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त की तमाम स्मृतियों में यह बात भी खास है कि इन्हीं दो दिन हम सामूहिक रूप से तिरंगा लहराते हैं. हमारे लिए यह दो दिन तिरंगे के अपने त्योहार हैं. इन्हीं दो दिनों के लिए हम अपनी भावुकता और सामूहिकता को बचाकर रखते हैं जैसे हम ईद, दिवाली, होली और छठ के लिए बचा कर रखते हैं. इसलिए हमारी नागरिकता के विकास की जो कमियां हैं, संस्थाओं के दायित्व से मुकरने के जो सवाल हैं उन्हें आप तिरंगे से विस्थापित न करें. यह न सोचें कि सबको रोज तिरंगा दिखा देने से देशभक्ति आ जाएगी और देशभक्ति आ जाएगी तो हम गलत सोच रहे हैं. व्यवस्था में बदलाव उसे ठीक करने से आता है न कि उसकी छत पर तिरंगा लहराने से आता है.
ख्याल रहे कि तिरंगे का आकार बड़ा होते-होते कहीं यह नागरिकों के बीच अमीरी गरीबी का एक और प्रतीक न बन जाए. जाहिर है दस हजार से एक लाख का बड़ा झंडा वही खरीदेगा जो अमीर होगा. गरीब तो दो रुपये का झंडा ही अपने बच्चे को देगा. सबके हाथ में एक आकार का तिरंगा हो, मेरी राय में यही उचित है. कम से कम हम राष्ट्र के प्रति भावुकता के प्रदर्शन में तो बराबर रहें. वहां अंतर न करें तो बेहतर रहेगा. देशभक्ति का आकार नहीं होता है... जज़्बा होता है.
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