बीते चार-पांच दिनों की दो तस्वीरें दो हिन्दुस्तान बताती हैं... एक तस्वीर वह है, जिसमें एक सूबे के सरदार प्रशासन की गोद में बैठे हंस रहे हैं और दूसरी वह तस्वीर, जिसमें एक लाचार आदिवासी अपनी बीवी की लाश कंधे पर उठाए पैदल घर चल पड़ा है... इन्हीं दिनों के बीच वर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट भी आई है, जो बताती है कि हिन्दुस्तान व्यक्तिगत संपत्ति के मामले में दुनिया का सातवां सबसे धनी देश बन गया है...
गोद में कौन है, किसके कंधे पर लाश है और किनकी तिजोरी में अपार धन भर गया है, आजाद हिन्दुस्तान के साठ-सत्तर सालों बाद जब हम इस विकास को देखते हैं तो समझ आता है कि कालीहांडी के आदिवासी के लिए तो ऐसी रिपोर्ट काले कागज़ से ज़्यादा क्या है...? या इस जैसी परिस्थिति में रह रहे लोगों के लिए क्या है...? हम छत्तीसगढ़ में देखते हैं कि बस्तर के आदिवासी की बैचेनी तो दुधारी तलवार से भी ज़्यादा बढ़ गई है... मध्य प्रदेश में सहरियाओं के, कोरकुओं के बच्चे तो अब भी मर रहे हैं... झारखंड के लोगों का भी यही हाल है, तो इस विकास की रोशनी, जो तमाम जीडीपी के आंकड़ों से लैस होकर हमें दिखाई देती है, वह दरअसल है कहां...? इस जीडीपी का संबंध कोठियों की मयारों तक ही सिमटा है, या फुटपाथ के आदमी से भी इसका वास्ता है...? यह जो दिल को झकझोर देने वाली कहानियां, तस्वीरें, हादसे, आपबीती, ख़बरें, हमारे कानों में आकर पड़ती हैं, तो यह 'सबका साथ, सबका विकास' वाली बात कहीं गले में अटक जाती है और उसे उगल देने को मन करता है...
मैं उस तस्वीर की ज़्यादा बात नहीं करूंगा, जिसमें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान होमगार्ड के जवानों की गोद में बैठकर एक नदी पार कर रहे हैं... उस तस्वीर का तमाम पोस्टमार्टम हो चुका है और उनकी सफाई भी आ चुकी है, लेकिन यह जो ओडिशा के कालाहांडी से मांझी की बीवी की लाश ढोती तस्वीर सामने आई है, वह किसी भी संवेदनशील हृदय को झकझोर देने वाली है... आखिर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' वाले समाज में एक लाश के साथ हमारा समाज इतना बर्बर व्यवहार करता है...? क्या हमारा राष्ट्रवाद ऐसे मामलों में इतना कमजोर हो जाता है कि वह एक व्यक्ति के कठिनतम पल में चार लोगों को भी खड़े नहीं कर पाता... सवाल यह भी है कि क्या ऐसे मांझियों को यह राष्ट्रवाद अपने में शामिल पाता भी है या नहीं...? आजादी के सात दशकों के अनुभवों के बाद यह समाज अब वैसी उम्मीद करता भी नहीं, व्यवस्था अब गोद में बैठती है... वैसे, इसका अंदाजा तो गांधी को आजादी के पांच महीने बाद ही हो गया था, जिसमें उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि उनकी बात अब न तो हिन्दुस्तान मानता है, न कांग्रेस मानती है, न हिन्दू मानते हैं न मुसलमान मानते हैं...
यह तो बस्तर भी नहीं था, जहां का आदिवासी दोधारी तलवार पर एक तरफ लाल झंडे वाली ताकतों और दूसरी ओर प्रशासन की बंदूकों के तले एक द्वंद्व में जीता है... मुझे याद आती है वह तस्वीर, जब एक ऐसा ही आदिवासी अपनी बीवी को लाश को ऐसे ही अकेले ढो रहा होता है, फर्क केवल इतना है कि उसके पास एक साइकिल है, जिसमें पाटिये पर उसने कैरियर से अपनी बीवी की लाश को बांधा हुआ था...
यह तो कालाहांडी का इलाका है, जो एक लंबे अकाल से निकल अपने समाज की रचना कर रहा है, जहां मुखबिरी के शक में किसी की हत्या करने की धमकी नहीं दी जाती और न ही किसी को किसी की मदद के लिए रोका जाता है... उसके बावजूद यदि संवेदनशीलता का यह दायरा इतना सीमित होता जाता है तो इस पर समाज को सोचना चाहिए... इस समाज को तो सोचना चाहिए, क्योंकि वह दिल्ली-मुंबई का समाज नहीं हो गया है, जहां दुर्घटना के शिकार एक व्यक्ति की संपत्तियों को तो अपनी जेब के हवाले कर दिया जाता हो, लेकिन उसे सड़क पर ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता हो...
यह समाज सोशल मीडिया की जादुई दुनिया से प्रभावित समाज भी नहीं है, जहां मानवीय मूल्य आभास में तो ऐसे दिखाई देते हैं कि इससे बेहतर समाज कोई और है ही नहीं, पर उसका साबका जब वास्तविक दुनिया से होता है, तो पता चलता है कि इससे अधिक खोखलापन कहीं ओर है ही नहीं... लेकिन कड़वा सच भी यही है कि उम्मीद तो अब समाज से ही हैं, समाज की अपनी ताकत और अपने तौर-तरीकों से ही है...
इसमें एक बहस मीडिया की भी आकर जुड़ जाती है... ऐसे झकझोर देने वाले तमाम वीडियो, फोटो पर सवालिया निशान उसको लेने वाले पर खड़े कर दिए जाते हैं... पिछले दिनों जब छत्तीसगढ़ में सीएम हाउस के ठीक सामने एक बेरोजगार ने आत्मदाह किया था, तब भी यह बहस सामने आई थी... यह सही है कि ऐसे वक्त पर एक मीडियाकर्मी का भी अपना द्वंद्व होता है... वह क्या करे या उसे क्या करना चाहिए, ऐसे कठिन पलों में वह अपने विवेक से निर्णय ले पाता है... पर यह सवाल तो खुद ऐसे वापस उछलकर आता है कि वह खुद भी क्या कर रहा है...?
ऐसे वक्त में, जब हर हाथ में मोबाइल फोन, कैमरे, और सोशल मीडिया एकाउंट के साथ 'एवरी पर्सन इज सिटीजन जर्नलिस्ट' जैसी अवधारणाएं फल-फूल रही हैं, तब वह खुद भी तो इसी भूमिका में आ खड़ा हुआ है... उसका दिल क्यों नहीं पसीजता... यह माध्यम केवल अपनी ताकत, अपनी क्षमताओं के बढ़ने का प्रदर्शन मात्र है तो ऐसी हजारों सूचनाएं, ऐसी हजारों तस्वीरें, ऐसे हजारों विचार किसी काम के नहीं, क्योंकि उनका समाज के समीचीन विकास का कोई इरादा नहीं है... इनका सुफल तभी है, जब वह सबसे पहले लाचार, बेबस लाश ढोते मनुष्यों की बात करे... फुटपाथ पर पड़े हिन्दुस्तान की बात करे... और केवल बात नहीं करे, उससे आगे भी कुछ काम करे... चेहरा देखकर काम न करे... जेब देखकर संवेदना न दिखाए...
लेकिन दिक्कत यही है कि ऐसे मुश्किल हालात में भी हम कागजों, रिपोर्टों में तरक्की कर रहे हैं, विज्ञापनों में 'शाइनिंग इंडिया' से लेकर 'सबका साथ, सबका भरपूर विकास' हो रहा है. हमारे पास दिखाने को बहुत कुछ है, और छिपाने को भी बहुत कुछ...! जिस दिन हम छिपाने की कोशिश सबसे कम करना शुरू कर देंगे, समझिएगा कि अब सब कुछ ठीक होने लगा है. इस मुश्किल समाज में यह पंक्तियां ही याद आती हैं...
कोठियों से मुल्क की मयार को मत आंकिए...
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है...!
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.
इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.
This Article is From Aug 26, 2016
कोठियों से मुल्क का मयार मत आंकिए, असली हिन्दुस्तान फुटपाथ पर आबाद है...
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
-
Updated:अगस्त 26, 2016 13:02 pm IST
-
Published On अगस्त 26, 2016 13:02 pm IST
-
Last Updated On अगस्त 26, 2016 13:02 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
कालाहांडी का दाना माझी, शिवराज सिंह चौहान, लाचार आदिवासी, Dana Majhi Of Kala Handi, Shivraj Singh Chauhan, Troubled Adivasi