मैं एक ऐसे अदद स्कूल की तलाश में था जहां मेरे बच्चे धर्म तो समझें लेकिन पोंगा पंडित, कठमुल्ला या घनघोर पादरी न बन जाएं...उत्सव तो मने लेकिन उसके मर्म को समझने,समझाने वाले मिल जाएं..पाखंड कम हो, खुशी ज्यादा हो. बड़ी मुश्किल से ही सही, एक स्कूल मिल गया जो सच में अपनी प्रस्तावना में कहता है कि वह सही मायनों में सेक्यूलर है (सूडो सेक्यूलर नहीं है!).
बच्चे के स्कूल वाला सवाल तो खत्म हो गया लेकिन आज दिनभर ये खयाल आता रहा कि नए समाज को कौन से स्कूल में भेजें. मुंबई में दही हांडी थी. नेता और पार्टियां सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को तानाशाही बता रहे थे जिसमें 20 फीट की ऊंचाई हांडी के लिए तय कर दी गई थी...शुरू में मुझे भी लगा कि हां सही तो है यह...लेकिन एक पल ठहरकर सोचिए कि धार्मिक आजादी के लिए अचानक से आवाज उठाने वाले कौन हैं? शिवसेना ने सामना में अदालतों के रुख को तानाशाही बता दिया..उसका इतिहास उठाकर देखिए समझ आ जाएगा कि बोलने की आजादी पर उन्होंने कितने हमले किए हैं. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी नाफरमानी की बात कर रही है. कह रही है कि अदालतें अपने काम से काम रखें..लेकिन जब मुल्क में ही कामधंधा करने की आजादी का सवाल उठता है तो मजदूर पर कौन हाथ उठाता है, यह बताने की जरूरत नहीं है.
सवाल है कि हम दही हांडी में ऊंचाई के सवाल पर इतना क्यों छटपटा रहे हैं? 20-30 साल पहले कौन से गोविंदा वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाते थे? तब भी त्योहार मनता था? कुछ लोग कह रहे हैं कि यह खेल है और इसमें जोखिम होता है...बड़ा सवाल है कि जो शहर अपने बच्चों को खुले मैदान न दे सकें, नेताओं के हाथ में खुली जगह बेच दें, वह अचानक से खेल की बात करने लगा? और खेल की केटेगरी देनी ही थी तो कायदे तय होते, उसकी फुरसत किसने निकाली? यह सही है कि समाज तय करे कि त्यौहार कैसे मनाए, लेकिन यहां मामला रस्मो रिवाज का नहीं बचा है...सौदे का है. दही हंडी मंडलों को कौन इस्तेमाल करता है, यह मुंबई के नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता. जो नेता मुंबई के दही हंडी मंडलों को जोखिम भरा खेल बता रहे हैं...उनके बच्चे कभी इस खेल में नहीं आते..वे किसी पिरामिड में ऊपर नही चढ़ते. वे अक्सर स्टेज पर पापा के संग होते हैं...तालियां बजा रहे होते हैं या फिर पुरस्कार बांट रहे होते हैं...
मुझे मालूम है कि जब एक धर्म की आजादी पर कुछ सवाल उठाए जाते हैं तो तुरंत दूसरे धर्म के लाउड स्पीकर का मुद्दा जोड़ दिया जाता है..सड़क पर नमाज़ का सवाल आ जाता है. धर्म की ऐसी तमाम रस्म अदाएगी पर ठीक वैसे ही कानून बनने चाहिए जैसे अभी सुप्रीम कोर्ट बना रहा है. लेकिन तब तक इस बात की आजादी तो नहीं ही मिलनी चाहिए कि अस्पताल में ढोल नगाड़ों के संग भगवान लाए जाएं, दरगाह पर चादर चढ़ाने के लिए लोगों का हुजूम ट्रैफिक रोक दे, शोर की सारी सीमाएं तोड़ दे. या फिर बिना हेलमेट के शोभा यात्रा निकाली जाएं.
(अभिषेक शर्मा एनडीटीवी में रेसीडेंट एडिटर हैं)
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This Article is From Aug 25, 2016
धर्म की रस्म अदायगी और उसकी आजादी के सवाल
Abhishek Sharma
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 25, 2016 23:41 pm IST
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Published On अगस्त 25, 2016 23:41 pm IST
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Last Updated On अगस्त 25, 2016 23:41 pm IST
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