वोटों की खातिर अब दिखती ही रहेगी 'ज़रूरी हो चुके' दलितों के प्रति 'कटिबद्धता'

वोटों की खातिर अब दिखती ही रहेगी 'ज़रूरी हो चुके' दलितों के प्रति 'कटिबद्धता'

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुंबई में एक रैली के दौरान (फाइल फोटो)

जनवरी में हैदराबाद में एक छात्र द्वारा आत्महत्या किए जाने और तमाम राजनीतिक दलों द्वारा उस घटना को दलितों के अपमान की संज्ञा देने के बाद से उपजे देशव्यापी असंतोष से एक बार फिर दलितों का चुनावी महत्व बड़ा मुद्दा बनकर उभर रहा है। जिस आक्रामकता के साथ कांग्रेस व आम आदमी पार्टी समेत कई दलों ने इस घटना पर हैदराबाद जाकर, और अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रियाएं दीं, उनसे तो यही संकेत दिए जाने की कोशिश हुई है कि भारतीय जनता पार्टी और विशेषतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विचारधारा दलित-विरोधी है।

लेकिन इस घटना के कुछ दिन बाद ही पीएम उत्तर प्रदेश की यात्रा पर आए और उन्होंने लखनऊ में डॉ भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय में दलितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने की कोशिश की, और लखनऊ में ही अंबेडकर महासभा में सुरक्षित डॉ अंबेडकर की अस्थियों को श्रद्धांजलि दी। दलितों से अपने को जोड़ने की मुहिम में उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी भी पीछे नहीं रही और वहीं मुख्य मंत्री अखिलेश यादव ने लखनऊ में एक दूसरी जगह डॉ अंबेडकर के लिए एक भव्य स्मारक बनाने की घोषणा की।

ज़ाहिर है, बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती को यह सब बिल्कुल पसंद नहीं आया और उन्होंने कुछ दिन बाद ही पीएम मोदी द्वारा मृत छात्र के प्रति सहानुभूति को नाटक करार दिया। फिर उन्होंने दलितों को आगाह करते हुए यहां तक कह डाला कि वर्तमान केंद्र सरकार यदि कांशीराम को भारतरत्न देने की घोषणा भी करे, तो उन्हें (दलितों को) भ्रमित नहीं होना चाहिए, और वास्तव में बसपा ही दलितों की सच्ची हमदर्द है।

पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह दलितों के एक बड़े वर्ग ने मुख्यतः उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य प्रदेशों में बीजेपी के पक्ष में अपना समर्थन दिया था, उससे बीजेपी व समाजवादी पार्टी को इस वर्ग की चुनावी शक्ति का अंदाज़ा तो हो ही गया है, और बसपा को भी यह डर सताने लगा है कि यदि दलित वर्ग का एक हिस्सा उससे छिटक गया तो मायावती के लिए अपने को दलितों का एकमात्र नेता सिद्ध कर पाना मुश्किल होगा।

जहां एक ओर बीजेपी ने तो दलितों को अपने साथ जोड़ने की कवायद शुरू कर दी है, वहीं सपा में एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि सपा का नेतृत्व कुछ भी कर ले, दलित कभी भी पार्टी का साथ नहीं देंगे। इसका एक संकेत आने वाले विधान परिषद चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों की सूची से मिलता है। इस सूची में 31 प्रत्याशियों में 16 यादव, चार मुस्लिम, पांच ठाकुर (क्षत्रिय), और एक-एक प्रत्याशी जैन, ब्राह्मण, पटेल, लोध, जाट और गुर्जर समुदाय से हैं। यही नहीं, इस सूची में तरजीह वर्तमान मंत्रियों और अन्य नेताओं के परिवारजनों को दी गई है। स्पष्ट है कि दलितों को नजरअंदाज किए जाने से होने वाले संभावित नुकसान का आकलन समाजवादी पार्टी में हो चुका है।

इसी के साथ समाजवादी पार्टी के यादव-मुस्लिम गठजोड़ की ताकत को सबसे नई चुनौती ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के असदुद्दीन ओवैसी की ओर से आती दिख रही है, जिन्होंने स्पष्ट तौर पर मुस्लिम और दलित समुदाय को एक करने का आह्वान किया है। ओवैसी को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रदेश में सभा किए जाने की अनुमति पिछले तीन वर्ष से नहीं मिली थी, लेकिन अंततः अनुमति मिलने के बाद उन्होंने गत गुरुवार को फैजाबाद के पास एक सभा में सीधे-सीधे मुस्लिम समुदाय से आगामी उपचुनाव में स्थानीय दलित प्रत्याशी को समर्थन देने की अपील की और उनसे समाजवादी पार्टी की सरकार को उखाड़ फेंकने की अपील भी की।

उत्तर प्रदेश में मायावती पांच बार मुख्यमंत्री पद पर रहीं, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर प्रदेश भर में दलित वर्ग के रहन-सहन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया। परन्तु इन जातियों के कम से कम साक्षर वर्ग में अपने चुनावी और सामाजिक-राजनीतिक महत्व की समझ ज़रूर आ गई है। इन्हें यदि अपना हित किसी भी अन्य पार्टी में दिखे तो इनका बहुजन समाज पार्टी के साथ जुड़े रहने का कोई कारण नहीं होगा।

दलित वर्ग के सामाजिक-राजनीतिक समीकरण के अनुसार इस समुदाय में जहां एक विशेष जाति का जुड़ाव उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ हमेशा रहा है, वहीं कुछ अन्य अनुसूचित जातियों में अधिकतर परंपरागत तौर पर बीजेपी के लिए लगाव देखा गया है। अन्य प्रदेशों, जैसे बिहार, में यह वर्ग लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल के बजाए जनता दल (यूनाइटेड) और कुछ सीमित तौर पर राम विलास पासवान के साथ है, वहीं महाराष्ट्र और तमिलनाडु में इनका जुड़ाव मजबूती से क्षेत्रीय दलों के साथ ही है।

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के अध्यक्ष और कांग्रेस नेता पीएल पूनिया की बढ़ती सक्रियता और आम आदमी पार्टी की पंजाब में बढ़ती पकड़ के आसार तो यही संकेत दे रहे हैं कि आने वाले दिनों में दलित हित और उनके प्रति प्रतिबद्धता दिखाने की होड़ और तेज़ होने वाली है।

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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