पाकिस्तान के मीडिया को मैं हमेशा से बहुत इज्ज़त की निगाह से देखता रहा हूं. इसके पीछे कई कारण हैं. अव्वल तो ये कि जिस मुल्क़ के इतिहास के आधे से ज़्यादा वक्त तक सेना ने शासन किया हो, वहां मीडिया की भूमिका बड़ी चुनौती भरी होती है. और फिर जिस देश की ज़मीन आतंकवाद का अड्डा हो वहां काम करने वाले पत्रकारों की जान हमेशा दांव पर लगी होती है. इतना ही नहीं, जहां पत्रकारों के पीछे ख़ुफिया एजेंसियां पड़ी रहती हों वहां अपना काम ईमानदारी और निष्पक्षता से करना टेढी खीर है. मुशर्रफ़ के आपातकाल के दौरान पाकिस्तानी मीडिया को पाकिस्तान में रह कर नज़दीक से देखने का मौक़ा मिला. पाकिस्तानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेशन एक्ट और प्रेस एंड पब्लिकेशन ऑर्डिनेंस लगा कर कई चैनल और अखबार के दफ्तर बंद कर दिए गए थे और कई बड़े एंकर्स और एडिटर को प्रतिबंधित कर दिया गया था. लेकिन वहां के पत्रकार और वकील मिल कर सड़कों पर उतरे और सैनिक सत्ता से लोहा लेते रहे. ख़ैर मुशर्रफ को जाना पड़ा. वकला और अदलिया के साथ साथ मीडिया ने अपना वजूद दिखाया. चुनी हुई सरकार लाने में अपनी भूमिका निभाई.
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लेकिन हर तरह की चुनौतियों से जूझ कर भी अपने आपको बचाकर रखने वाले पाकिस्तानी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा आज अपनी अपनी रीढ़ खोता नज़र आ रहा है. जब आतंकवाद की बात आती है तो वह भी अपनी सरकार और सेना की तरह अच्छा और बुरा आतंकवाद जैसे जुमलों में पड़ गया है. जो आतंकवादी पाकिस्तान पर वार करे वो बुरा आतंकवादी और जो पड़ोसी देश पर हमले करे वो अच्छा आतंकवादी. पाकिस्तान के मीडिया ने भी यही फार्मूला पकड़ लिया है. जिन पाकिस्तानी बुद्धजीवियों पर ये ज़िम्मेदारी थी कि वे अपनी सरकार और सेना के इस दोहरे मापदंड के खिलाफ़ लिखे और बोले उन्होंने उनके सामने हथियार डाल दिए हैं.
पाकिस्तानी मीडिया भारत और पाकिस्तान के आवाम के बीच पीपल टू पीपल कॉन्टैक्ट का बड़ा हिमायती रहा है, लेकिन वो भी अब भारत पर हो रहे आतंकी हमले और यहां फैलाई जा रही आतंकी हिंसा का हिमायती हो गया है. वह अपनी सेना और आईएसआई की तरफ से ऐसा दबाव महसूस कर रहा है कि अपने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के बयान की तरह ही बुरहान वानी को शहीद करार दे रहा है. उस बुरहान वानी को जो हाथों में हथियार लहराते और मरने-मारने की बात करने वाले अपने वीडियो को सोशल मीडिया पर वायरल कर कश्मीर में आईएस की तरह कैलीफेट की बात करता था. जिस पाकिस्तान में रोज़ लोग अपनी ही ज़मीन पर पनपे आतंकवाद का शिकार हो रहे हों वहां का मीडिया इस हद तक असंवेदनशील हो गया है.
यही वजह है कि मैंने पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों से ख़ुद को दूर कर लिया था. लेकिन दो दिन पहले एक दोस्त की गुज़ारिश पर एक शो में शिरकत करना स्वीकार लिया. मुद्दा मौजूदा तनाव के माहौल में मीडिया की भूमिका को लेकर बताया गया. सोचा कि आपस में सकारात्मक मुहाबिसा कर शायद कुछ ऐसा निचोड़ निकले जिससे जंग जैसी भाषा में बात करने वालों को दरकिनार किया जा सके. लेकिन मेरी उम्मीद ग़लत निकली. ज़्यादातर चैनलों पर डिस्कशन की बजाए एंकर और पैनलिस्ट एलिगेशन की फेहरिस्त लेकर बैठे होते हैं. एक बार फिर वही हुआ. पैनल में शामिल पत्रकारों से लेकर रक्षा विशेषज्ञों तक हर किसी के पास भारत के ख़िलाफ एलिगेशन की अपनी लिस्ट थी. आप कहेंगे कि ऐसा तो कई भारतीय टीवी चैनलों में भी होता है, होता है, लेकिन ग़ौर से देखेंगे तो एक बड़ा अंतर नज़र आता है. वो बड़ा अंतर ये है कि जो यहां राष्ट्रवाद के नाम पर हो रहा है, वो वहां आतंकवाद के नाम पर हो रहा है.
भारत में राष्ट्रवाद और उसकी अतिशयोक्ति को लेकर सवाल और जवाब बहस का एक अलग विषय हो सकता है. वह सही है या ग़लत उसके अलग-अलग पहलुओं पर बोला और लिखा जा रहा है. लेकिन पाकिस्तानी मीडिया का एक बड़ा तबका भारत के विरुद्ध उनकी ज़मीन से चलाए जा रहे आतंकवाद को ही अपना राष्ट्रवाद मान बैठा है, इसलिए अपनी सेना और सरकार की तरह वह भी बुरहान वानी को लोकप्रिय नेता और शहीद बताने में जुटा है. कश्मीर की हिंसा हो या फिर उरी का हमला, इन मुद्दों को लेकर वह बहस नहीं चाहता. वह चाहता है कि वे आतंकवाद के समर्थन में जो कुछ कहें, भारतीय पैनलिस्ट उससे सहमति जताएं. सहमति जताएं तो ठीक नहीं तो वह भारतीय पत्रकार भारतीय सरकार या किसी भारतीय एजेंसी या दल के दबाव में काम कर रहा है.
पाकिस्तान मीडिया और उसके कुछ मूर्धन्य पत्रकार भारतीय मीडिया में छपने वाली उन रिपोर्टों और विश्लेषणों पर गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं जो उनको लगता है कि उनके काम का है. जिसके ज़रिए वे ये शक का बीज बो सकें कि देखो ये भारत की अंदरूनी करतूत है. पाकिस्तान से भेजे जाने वाले आतंकवादियों और असलहों की इसमें कोई भूमिका नहीं. ऐसी कोशिश करते समय वे ये भूल जाते हैं कि भारतीय लोकतंत्र की मज़बूती है कि यहां आज भी पत्रकार सरकार, सेना और सत्ता की तरफ से दिए गए ब्योरों के विरोधाभाषों पर लिखने बोलने को स्वतंत्र हैं. इतनी ताक़त और क़ूवत रखते हैं कि कहीं अगर संदेह की कोई गुंजाइश है तो उसे दर्शकों और पाठकों के सामने रखा जाए. सेना और सरकार से सवाल पूछा जाए, उनकी आलोचना की जाए. उनको नए तथ्यों के साथ सामने आने और तस्वीर को साफ करने कहा जाए. लेकिन पाकिस्तान के कुछ क़ाबिल पत्रकार इसे पाकिस्तान के पक्ष में लिखी गई रिपोर्ट समझने की भूल कर रहे हैं.
दरअसल पाकिस्तान का दामन आतंकवाद के दाग से इतना गहरा रंग चुका है कि उसे साफ करने के लिए अपने पास कोई रास्ता न देख पाकिस्तानी मीडिया का एक तबका पत्रकारिता की गुरिल्ला लड़ाई पर उतर आया है. वह पीक एंड चूज़ कर रहा है. वह सलेक्टिवली किसी को महिमामंडन कर और किसी पर दोषारोपण का खेल खेल रहा है. वह कुछ रिपोर्ट्स को उदाहरण के तौर पर पेश कर बाक़ी भारतीय पत्रकारों और पत्रकारिता को अपनी कसौटी पर कसने की कोशिश करता है. आप उनकी मंशा पर सवाल उठाएं तो वो आपकी पत्रकारिता को ख़ारिज कर देगा, पक्षपाती होने का सर्टिफिकेट पकड़ा देता है, अपने स्टूडियो में अपने माइक की आवाज़ ऊंची कर चीखता है. ज़हनियत और सलीका सब भूल जाता है. फिर सोशल मीडिया पर उसे अपनी जीत के तौर पर पेश करता है, गोया कश्मीर जीत लिया हो. ये पाकिस्तानी मीडिया का ट्रैप जर्नलिज़्म है, सेल्फ ग्लोरीफिकेशन से भरा.
ये बात उतनी गंभीर नहीं जितना इसके पीछे का मक़सद. मक़सद पाकिस्तान की ज़मीन पर जड़ जमाए बैठे आतंकी रहनुमाओं का चेहरा बचाना. वहां की सत्ता जिसे नॉन स्टेट एक्टर्स कह कर अपनी ज़िम्मेदारी से भागती है उसे संत साबित करने का मक़सद. आतंकवाद को शह देने वाले स्टेट एक्टर्स को एक्सपोज़ करने की बजाए उनका हाथ अपने सिर पर रखवाने और बनाए रखने का मक़सद. सेना के संरक्षण में आतंकवाद को फैलाने का मक़सद. ये ख़तरनाक है. हालांकि उस शो में मेरी आवाज़ बंद कर दी गई, लेकिन मैंने भी ज़ोर ज़ोर से कहा, आप बुद्धिजीवी लोग हैं, आपकी सरकार और सेना ने आंख बंद कर ली है तो आपका काम उनकी आंखों को खोलना है. जो सांप आप भारत पर छोड़ रहे हो, वही सांप आपको भी काट रहा है. किसी भी सांप को दूध मत पिलाओ. सबकी वंशावली एक ही है. जिस तरह पाकिस्तान में होने वाले आतंकी हमलों से दर्द होता है, भारतीयों पर होने वाले आतंकी हमलों पर भी वैसा ही दर्द महसूस करो. लिखो और बोलो. अपना आज़ाद वजूद दिखाओ, ऐसा नहीं करोगे तो अंजाम भुगतना होगा. बेशक कूटनीतिक लिहाज़ से दुनिया में अलग-थलग नहीं पड़ो, क्योंकि आतंकवाद के साथ भी कई साझीदारों के हित जुड़े होते हैं, लेकिन मानवता की दुनिया में अलग-थलग जरूर पड़ जाओगे. बहुत हद तक पड़ भी चुके हो. लेकिन जिस तरह से जब कोई आतंकवादी आत्मघाती बेल्ट बांध लेता है तो उसे मरने मारने के अलावा कुछ नज़र नहीं आता, वैसे ही पाकिस्तानी मीडिया के एक तबके ने आत्मघाती बेल्ट बांध लिया है। वह हर दिन अपने स्टुडियोज़ में फट रहा है.
जब पेशावर में स्कूल में बच्चे मारे गए तो पूरा हिन्दुस्तान रोता है. हर चैनल हर अखबार हर पत्रकार रोता है. जब भी वहां धमाके में आम शहरियों की जान जाती है, हम सब रोते हैं. लेकिन पाकिस्तानी मीडिया का एक हिस्सा हिन्दुस्तानियों की मौत को हाफिज़ सईद और मसूद अज़हर जैसे आतंकवादी मंसूबों की जीत समझता है. वह उसकी मज़म्मत नहीं करता. इसे कश्मीर की तहरीक़े आज़ादी का नाम देता है. महात्मा गांधी की हत्या का सवाल उठाकर पाकिस्तान की जमीन से चलाए जा रहे इस्लामिक आतंकवाद को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करता है. बुरहान वानी की तुलना भगत सिंह से करता है. उस भगत सिंह की जिन्होंने लाहौर जेल में आज़ादी की ख़ातिर फांसी के फंदे को खुशी-खुशी चूम लिया था, जिनके फेंके बम का मक़सद किसी की जान लेना नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की जंगे आज़ादी की तरफ अंग्रेजों का ध्यान खींचना था. लेकिन अपने आतंकी आकाओं के दबाव में जो अपना विवेक खो दे, पाकिस्तानी मीडिया के ऐसे मीरों के हाथों मुल्क़ का मुस्तकबिल सुरक्षित नहीं. हां, कुछ हैं जिनसे उम्मीदें बरक़रार हैं.
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This Article is From Sep 25, 2016
#युद्धकेविरुद्ध : आतंकवाद ही पाकिस्तानी मीडिया का राष्ट्रवाद है...!
Umashankar Singh
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 26, 2016 13:16 pm IST
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Published On सितंबर 25, 2016 18:28 pm IST
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Last Updated On सितंबर 26, 2016 13:16 pm IST
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