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लोकतांत्रिक सरकार और लोकतांत्रिक विपक्ष ने तो शुरू से ही खुद को संयम बरतता हुआ दिखाते हुए अस्पष्ट प्रतिक्रियाएं देना शुरू कर दिया था. लेकिन वे सब भी दो पक्षों में बंटे नज़र आ रहे हैं. कोई कह रहा है-सब ठीक हो जाएगा तो कोई कह रहा है कि ठीक किया जा रहा है. कुछ लोगों का कहना है कि कुछ भी नहीं किया जा पा रहा है. कुछ तो यह भी दावा करते दिखे कि सब ठीक हो गया है. मसलन बार काउंसिल के सदस्य और अटॉर्नी जरनल तो बार-बार ये कह रहे हैं कि सब ठीक हो गया. लेकिन वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि क्या गलत हो रहा था जो ठीक हो गया है और ठीक करने के लिए किया क्या गया है. वैसे गौर से देखें तो अब तक तो यही खुलकर और साफ तौर पर सामने नहीं आ पाया कि क्या-क्या ठीक नहीं चल रहा है. बहुत संभव है कि खुलकर नहीं कहने की प्रवृत्ति इसलिए हो क्योंकि मसला न्यायपालिका का है. फिर भी सुरक्षित सोच-विचार की गुंजाइश निकाली भी जा सकती है.
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मसला न्यायपालिका का है. न्यायपालिका में भी सर्वोच्च संस्था यानी सुप्रीम कोर्ट के कामकाज पर ऐतराज का है. जानकार लोगों ने चार जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस से ऐतराजों की सूची बनाकर लोकतांत्रिक देश की जनता के सामने पेश की है हालांकि उससे भी साफ-साफ पता नहीं चलता कि गड़बड़ कहां हो रही है. किसी भी गड़बड़ी को गड़बडी साबित तभी किया जा सकता है कि जब पहले से तय हो कि सही क्या है. इस लिहाज से देखें तो लगता है कि सुप्रीम कोर्ट में महत्वपूर्ण फैसला करने वाले कॉलेजियम और महत्वपूर्ण पीठों की नियुक्ति के लिए जो व्यवस्था थी, उसके पालन न किए जाने पर ऐतराज है. रोस्टर और मेमोरंडम ऑफ प्रोसीजर जैसे जटिल मुददे ऐतराजों में शामिल थे. अब लोकमंच पर सवाल यह है कि न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था के पास अपने कामकाज के लिए कोई संहिताबद्ध और निरापद व्यवस्था है या नहीं है. गौरतलब है कि वैधानिक लोकतंत्र में सबसे जरूरी चीज़ विधान या नियम कायदे ही होते हैं. वरना किसी व्यक्ति या संस्था के संप्रभु हो जाने की आशंका बन जाती है जिसे हमारा वैधानिक लोकतंत्र कतई स्वीकार नहीं करता. खुद कोई मुख्य न्यायाधीश भी नहीं मानता कि वह 'सोवरेन'' यानी संप्रभु है. दोहराने की जरूरत नहीं कि हमारा लोकतंत्र, वैधानिक लोकतंत्र है और उसमें विधान ही संप्रभु है. इस लिहाज़ से देखें तो न्यायपालिका के बारे में गैर अदालती मुकदमा यही बनता है कि न्यायाधीश संप्रभु है या नहीं. इसकी दलील यह बनती है कि खुद सुप्रीम कोर्ट के कई जजों को इस बात पर ऐतराज है कि महत्वपूर्ण मुकदमों को सुनवाई के लिए जिन जजों के पास भेजा जाता है उसका फैसला लिए जाने में पूर्वाग्रह के साथ काम होता दिखता है. लिहाज़ा अब यह देखा जाना है कि न्यायपालिका में ऐसा हो रहा है या नहीं?
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जो तबका यह कहता है कि इन जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ठीक नहीं किया, उस तबके को भी जवाब चाहिए. जवाब बनाने के लिए भी दलील चाहिए. जो लोग चार जजों पर ऐतराज जता रहे हैं वे बस इतना ही कह रहे हैं कि कि प्रेस कॉन्फ्रेंस करना ठीक नहीं था यानी वे एक तरह से यह कह रहे हैं कि उन्हें किसी और मंच पर जाकर यह कहना था. वह मंच क्या हो सकता था यह बात गायब है. यहां गौरतलब यह है कि ये जज न्याय प्रक्रिया को अच्छी तरह से समझने वाले सबसे ज्यादा अनुभवी लोग हैं. उन्होंने सबसे पहले मुख्य न्यायाधीश को ही चिटठी लिखी थी यानी ऐतराज जताने वाले जजों से जो आज अपेक्षा की जा रही है, वह अपेक्षा ये जज पहले ही पूरी कर चुके थे. अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी उन्होंने यह बताया था और यह तर्क भी रखा था कि यह मसला लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़ा है सो अब लोकमंच ही उन्हें अपनी बात कहने के लिए सही जगह दिखती है. साथ ही उन्होंने यह राय भी रखी थी कि लोकतंत्र में जनता ही कुछ कर सकती है.
क्या मीडिया लोकमंच का रूप है
दुनिया के सबसे बड़े वैधानिक लोकतंत्र में सार्वजनिक मंच किसे कहें? सभ्य समाज में दसियों हजार मंच बने हुए हैं. जब न्यायिक सुधार का नारा बना था उसमें यही दिक्कत आई थी कि जनता से कैसे पूछा जाए कि वह न्याय व्यवस्था में क्या सुधार चाहती है. लोकविमर्श की व्यवस्था नहीं बनी होने के कारण ही वह व्यवस्था सोची या तलाशी नहीं जा सकी और आज तक न्यायिक सुधार का नारा सिरे नहीं चढ़ा. ऐसी हालत में किसी जरूरी मुददे को अगर सार्वजनिक मंच पर लाना हो तो मीडिया के अलावा विकल्प ही क्या है. फर्ज करें कि ये चारों जज अगर राष्ट्रपति के पास भी अपना ज्ञापन भेजते तो राष्ट्रपति के पास भी क्या इसके अलावा कोई विकल्प होता कि उस ज्ञापन को वे मुख्य न्यायाधीश को ही अग्रसारित कर देते. लेकिन यह ज्ञापननुमा चिट्ठी तो मुख्य न्यायाधीश को ये जज कई महीने पहले ही भेज चुके थे. यानी अगर इन जजों को यह मसला लोकतांत्रिक महत्व का लगा था तो मीडिया से बेहतर कोई लोकमंच वे सोच ही नहीं पाए होंगे. यहां यह दोहराने की भी जरूरत है कि मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा यूं ही नहीं दिया गया है.
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प्रेस कॉन्फ्रेंस ने आखिर क्या फर्क डाला?
इसमें तो कोई शक बचा ही नहीं है कि चार जजों का मकसद न्यायपालिका के अपने आंतरिक कामकाज के तरीके में सुधार करने की चाह के रूप में है. उनका एक और ऐलानिया मकसद यह कि भाविष्य में कोई यह न कह पाए कि उनके सामने गड़बड़ होती रही है और वे चुप रहे. लेकिन इन दो मकसद के अलावा इस प्रेस कॉन्फ्रेंस का एक मकसद और भी तलाशा जा सकता है कि गड़बड़ी ठीक करने का तरीका क्या हो. हो सकता है कि तरीके के तौर पर इन जजों ने यह सोचा हो कि अगर जन दबाव बना दिया जाए तो बात बन सकती है. जनता का दबाव बनाने के लिए लोकतंत्र के चौथे खंभे का सहारा लेने के अलावा और क्या विकल्प उनके पास हो सकता था. आज कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि जन दबाव बनाने के लिए इस प्रेस कॉन्फ्रेंस ने एक बड़ी भूमिका निभा दी है. अब जब बात निकली है तो कहीं न कहीं तक तो पहुंचेगी ही....
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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