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This Article is From Mar 19, 2016

पानी की छीना-झपटी के दिन आने की आहट

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 06, 2016 13:31 pm IST
    • Published On मार्च 19, 2016 09:58 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 06, 2016 13:31 pm IST
पानी का मुद्दा पंजाब के चुनाव के लालच में सन गया है। सतलुज यमुना जोड़ नहर का मसला अभी पंजाब और हरियाणा तक सीमित दिख रहा है। जल्द ही यह फैलेगा। तब पता चलेगा कि इस मुकदमे में पंजाब और हरियाणा के अलावा उप्र, हिमाचल, राजस्थान और दिल्ली भी कितने उलझ गए। उत्तर भारत के ये छहों वे प्रदेश हैं जिनका यमुना के पानी पर कानूनी हक बैठता है। यमुना की मौजूदा हालत इस समय जग जाहिर है। पंजाब के चुनाव के चक्कर में सतलज यमुना जोड़ नहर के पिटारे को खोलने से यमुना के सनसनीखेज तथ्य बाहर आएंगे। खासतौर पर पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की मौजूदा प्रदेश सरकारों को समझ लेना चाहिए कि पानी के मामले में उनके अपने अपने इंतजाम की पोल खुल गई तो उन्हें मुंह छुपाने की जगह नहीं मिलेगी। फौरी इतंजाम न कर पाने की बदनामी उन्हें अलग से झेलनी पड़ेगी। सबसे ज्यादा शर्मिंदगी केंद्रीय जल आयोग को उठानी पड़ सकती है क्योंकि पानी के संकटों और विवादों से निपटने में उसी की भूमिका सबसे बड़ी मानी जाती है।

अब नहर से इतर बातें भी उठेंगी

मोटी सी बात है कि यमुना के सहारे ही हरियाणा की खेती किसानी टिकी है। यमुना के सहारे ही दिल्ली अपनी जान बचाए है। यमुना के एक तिहाई पानी से उप्र के बहुत बड़े इलाके में सिंचाई और पीने के पानी का इंतजाम होता है। पिछले तीस साल से यमुना के पानी के बंटवारे को लेकर गुणाभाग होता चला आ रहा है। केंद्र और राज्य सरकारों के राजनीतिक समीकरणों के सहारे अब तक तो काम चलता रहा लेकिन दो तीन साल से पानी को लेकर जैसा संकट बढ़ा है उसका समाधान हाल फिलहाल किसी के बूते में नहीं दिखता। अबूझ की हालत में सबको एक ही रास्ता नजर आता होगा कि आपस में लड़ लो।

आपस में लड़ेंगे भी कैसे

गर्मी के दिन सिर पर हैं। इस बार हरियाणा में पानी के लिए हाहाकार मचने के सारे कारण इकटठे हो गए हैं। अपनी भौगालिक स्थिति के कारण हरियाणा यमुना के अलावा और कहीं से पानी का इंतजाम कर नहीं सकता। इसीलिए हरियाणा को पानी के पुराने समझौतों को याद दिलाने की जरूरत पड़ने वाली है। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि पुराने समझौतों के तहत पानी लेने के इंतजाम करने पर ध्यान गया ही नहीं। खासतौर पर पिछले दो तीन साल में पानी के इंतजाम के लिए जो करना बहुत ही जरूरी था उसकी बजाए उद्योग धंधों और उद्योग धंधों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़े करने वाले काम करने की योजना बनाने में ही समय और धन खर्च होता रहा। अब पानी का संकट सर पर है। आग लगे पर हाल के हाल कुआं खोदा नहीं जा सकता। सो सरकारों के पास अपनी मुस्तैदी जताने के लिए आपस में लड़ता हुआ दिखाने के अलावा कोई और उपाय है नहीं। लेकिन आपस में लड़ें भी कैसे? दोनों ही प्रदेशों में भाजपा और उसके सहयोगी दल की सरकारें हैं। जाहिर है केंद्र सरकार खासतौर पर प्रधानमंत्री को पंच बनाकर मामले को टरकाने के अलावा कोई चारा नहीं दिखता।

पंजाब के चुनाव में कितने काम आएगी यह लड़ाई

पंजाब के चुनाव के दौरान फंसने वाले सबसे बड़े फच्चर को भांपते ही क्षेत्रवाद का एक भावनात्मक मुददा तैयार है। चुनावी पेशबंदी की इससे बढ़िया चाल और क्या हो सकती थी। हालांकि इसका अंदाजा अभी नहीं लग सकता कि पानी के मुददे को भावनात्मक बनाने बनाने से  पंजाब के चुनाव में वहां मौजूदा गठबंधन सरकार को क्या फायदा मिल पाएगा। क्योंकि जल प्रबंधन की अनदेखी करते करते वहां के कृषि क्षेत्र के हालात इतने बिगड़ गए हैं कि रातोंरात उन्हें सुधारा नहीं जा सकता। किसानों की भूजल पर निर्भरता इतनी बढ़ गई है कि भूजल भंडार इस साल चुकता हुआ नजर आने लगा है। आने वाले एक दो महीने में पंजाब में जैसे हाहाकार का अंदेशा है उसके लिए पंजाब को आर्थिक मदद का एलान करने का मौका जरूर बन जाएगा। ऐसा हुआ भी तो यह हिसाब लगाने वाला कोई नहीं होगा कि जलप्रबंधन की योजनाओं पर खर्चा कितना आता है। कुलमिलाकर केंद्र सरकार के पास कुछ करने के नाम पर छाटे मोटे ऐलान करने के अलावा और कुछ होगां नहीं। हां यह ऐलान पंजाब के चुनाव में एक औजार के तौर पर जरूर काम आ सकता है। लेकिन एक बड़ी समस्या यह होगी कि उसी दौरान उत्तर भारत के दूसरे प्रदेश भी पानी मांग रहे होंगे। यानी अकेले पंजाब के लिए एक मुश्त मदद का ऐलान न्यायपूर्ण साबित करने में अड़चन आएगी।

इस चक्कर में कहीं दिल्ली लफड़े में न फंस जाए

हरियाणा, पंजाब, और उप्र में पानी की जैसी किल्लत होने वाली है उससे ये प्रदेश कम से कम यह साल रोते पीटते निकाल भी सकते हैं। इन प्रदेशों के पास जल ग्रहण क्षेत्र के लिहाज से अपने दावे पेश करने के आधार उपलब्ध हैं। लेकिन इन प्रदेशों की कृपा पर जिंदा दिल्ली किस आधार पर दावा कर पाएगी? पानी के हक की लड़ाई में दो ही आधार होते हैं। एक कि आपका भौगोलिक आकार क्या है यानी आपकी जमीन पर गिरे पानी की मात्रा ही आपका हक तय करती है। इसे जलग्रहण क्षेत्र का आधार कहते हैं। दूसरा आधार यह होता है कि अगर आपकी जमीन से होकर कोई नदी गुजर रही हो तो उसके किनारे खड़े खड़े आप उसके पानी का इस्तेमाल कर सकते हैं। दोनों आधारों पर दिलली कुल जितना पानी इस्तेमाल कर सकती है उससे दस गुना पानी वह इस्तेमाल कर रही है। अगर अदालती बहस लंबी चल पाई तो पानी पर दिल्ली के ऐतिहासिक अधिकार की बातें उजागर होने लगेंगी। तब दिल्ली के पास मानवीयता के आधार पर दूसरे प्रदेशों से पानी के लिए याचना करने या पानी खरीदने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।

दिल्ली क्या कर पाएगी...

दिल्ली याचना करेगी भी तो किससे? हरियाणा, पंजाब, और उप्र तीनों ही प्रदेश इस साल पानी के लिए अभूतपूर्व विलाप करने वाले हैं। एक दो करोड़ गैलन प्रतिदिन यानी दस-बीस एमजीडी पानी के लिए इन प्रदेशों के बीच मारामारी हो रही होगी। अपनी अपनी न्यूनतम जरूरतो का हवाला दिया जा रहा होगा। वैसी हालत में हर रोज अस्सी करोड़ गैलन यानी 800 एमजीडी पानी पीने वाली दिल्ली की याचना टिक नहीं पाएगी। न ही कोई प्रदेश किसी भी कीमत पर दिल्ली को और ज्यादा पानी बेचने की हालत में होगा। सिर्फ एक सूरत बचती है कि दिल्ली यमुना की सहायक नदियों यानी हिमाचल के इलाके में अपने लिए रेणुका जैसे नए बांध बनवाने का इंतजाम कर ले। यानी बारिश के दिनों में हिमाचल में अपने लिए पानी जमा करवाने की योजना दिल्ली सोच सकती है। लेकिन इसके लिए हजारों करोड़ की रकम की जरूरत पड़ेगी। हिमाचल सरकार की उदारता की दरकार अलग से होगी। और फिर हजारों करोड़ की रकम दिल्ली को उधार कौन देगा। उसके पास एक ही विकल्प बचता है कि केंद्र पर दबाव बनाने का।

यहां बड़ी मुश्किल यह है कि केद्र सरकार की दिलचस्पी हजारों करोड़ की जल प्रबंधन योजनाओं में नहीं है। नए योजनाकार या नीतिकार माली नफे नुकसान का हिसाब ज्यादा लगा रहे हैं। देश में नई सरकार उद्योग धंधों की बातों में इतनी ज्यादा उलझी है कि उसे यह कहते देर नहीं लगेगी कि सिंचाई और पेयजल का काम राज्य सरकारें खुद ही देखें। यानी इस साल देश की राजधानी और दूसरे शहरों में टैंकरों को भर भर कर पानी लाने का इंतजाम होता हुआ दिखाई दे तो बिल्कुल भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उत्तर भारत के राज्यों में पानी की छीना झपटी के दिन आ गए समझिए।


- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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