सरकारी कामकाज का आकलन कैसे करें? सरकार के पास तो इसके तरीके पहले से बने रखे होते हैं। लेकिन आम आदमी अपनी आमदनी और खर्च में तालमेल बैठाते समय ही हिसाब लगाता है कि उसकी अपनी सरकार क्या कर रही है। सरकार के सुशासन का आकलन करना चाहें तो महंगाई ही एक पैमाना है। खुदरा बाजार ही महसूस करने का इकलौता जरिया है। लिहाजा, आजकल थोक बाजार के भावों का प्रचार सामान्य लोगों को भ्रम में नहीं डाल पाता। नई सरकार ने महंगाई रोकने के अपने उपायों का प्रचार करने में एड़ी-चोटी का दम लगा दिया लेकिन कोई मानने को तैयार नहीं है कि महंगाई काबू में आ गई।
महंगाई ही थी राजनीतिक बदलाव का सबसे बड़ा मुद्दा
दो साल पहले के राजनीतिक माहौल में महंगाई का मुद्दा इतना बड़ा था कि विपक्ष के बड़े नेताओं तक ने गर्दन से लेकर पेट तक खाने-पीने की चीजों की रेट लिस्ट लगाकर प्रदर्शन किए थे। दाल, आलू, टमाटर, चीनी, दूध के दामों को लेकर महीनों महीनों प्रचार किया गया था। डीजल-पेट्रोल के दाम कम करने के लिए सरकार को रोज नए नए तरीके बताए जाते थे। महंगाई की दबिश में आई पुरानी सरकार ने डीजल-पेट्रोल में टैक्स कम करना तो क्या बल्कि सब्सिडी देकर लगातार कई महीने सस्ता डीजल-पेट्रोल बिकवाया था। उस दौरान सरकार को कटघरे में खड़ा करके कहा गया था कि अगर इस इस तरह के उपाय किए जाते तो महंगाई न बढ़ती।
दाल, टमाटर, डीजल और पेट्रोल की ये थी हालत
पुरानी सरकार के समय जब दाल खास तौर पर अरहर 70 रुपये किलो पहुंची थी तो महंगाई की चर्चा गली-गली में होने लगी थी। टमाटर जब 15 रुपये से बढ़कर 30 रुपये हो गए थे तो यह आरोप लगाया गया था कि सरकार मुनाफाखोरों पर लगाम नहीं लगा पा रही है। आलू-प्याज को लेकर तो इतने सारे सुझाव दिए गए थे कि मूल्य नियंत्रण कोष बनाकर, आयात के जरिए, सरकारी खरीद और राशन प्रणाली के जरिए महंगाई से निपटा जा सकता है। पेट्रोल के बारे में बड़े दिलचस्प आंकड़े दिए गए थे। जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल का भाव 147 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गया था तब यह साबित किया जाता था कि टैक्स घटाकर और रिफाइनरी के खर्च घटाकर पेट्रोल के दाम आसानी से 35 रुपये लीटर किए जा सकते हैं। सामान्य लोगों को ये सारी बातें सुनने में तर्कपूर्ण भी लगती थीं। चूंकि ये बातें आम आदमी के सीधे फायदे की थीं, सो जानकारों की तरफ से उसका ज्यादा प्रतिवाद भी नहीं हुआ था। यहां तक कि खुद मुद्दई यानी सरकार तक ज्यादा नहीं बोल पाई थी।
..आज क्या हुआ
बहरहाल महंगाई का नारा लगाकर ही सरकार बदली गई थी। नई सरकार ने आते ही सबसे पहले महंगाई को काबू करने का प्रचार शुरू किया था। लेकिन कभी सबसे ज्यादा चर्चित रही अरहर की दाल 70 से घटकर 35 रुपये होने के बजाए 180 रुपये प्रति किलो यानी महंगी से भी ढाई गुनी महंगी हो गई। कहने को किया तो सब कुछ गया। मसलन आयात का खूब प्रचार हुआ। जमाखोरी रोकने के लिए छोटे व्यापारियों पर छापेमारी और व्यापारियों पर कड़ाई की बातें कहीं गईं। उत्पादन और मांग का हिसाब-किताब भी देखा गया। उसके हिसाब से विदेशों से दाल खरीदने का प्रचार किया गया। लेकिन अरहर के दाम नीचे नहीं उतरे, बल्कि चढ़ते ही चले गए। कहीं-कहीं प्रतीकात्मक सरकारी बिक्री के रेट 120 रुपये बताए भी गए लेकिन सामान्य अनुभव यह है कि खुले बाजार में अरहर 170 से नीचे उतरी ही नहीं।
उधर देश की रसोइयों की सबसे जरूरी चीज टमाटर तीस रुपये से घटने की बजाए और महंगा होकर 70 और कई जगह 90 रुपये पहुंच गया। पेट्रोल आज लगभग उसी भाव पर आ गया जो दो साल पहले की महंगाई के समय था। जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम इस समय तीन साल पहले की तुलना में एक तिहाई हैं। आलू-टमाटर यानी ज्यादातर जरूरी चीजों की इस समय यही हालत है।
तीस लाख टन दालें विदेश से खरीदने के करार के मायने
बिल्कुल ताजी और सनसनीखेज खबर है कि भारत के व्यापारियों ने इस साल अभी से 30 लाख टन दालें विदेशों से खरीदने के करार कर लिए हैं। अनाज संध की तरफ से कहा यह गया है कि दालों के दाम पर अंकुश लगाने के लिए व्यापारियों ने यह काम किया है। हो सकता है कि ऐसा ही हो। लेकिन दालों के आयात का प्रचार करके किसानों के पास यह संदेश भिजवा दिया गया है कि भारत के बाजार में विदेश से लाखों टन दालें मंगाई जा रहीं हैं। क्या इससे यह अनुमान नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारत का किसान यह सोच कर चलेगा कि अगली फसल तक दाल के भाव आज के भाव से बहुत नीचे रहने वाले है। और क्या उस पर यह दबाव नहीं पड़ेगा कि दालों के उत्पादन पर ज्यादा जोर लगाना उतना फायदेमंद नहीं होगा। दालें एक उदाहरण भर हैं। बाकी चीजों पर भी यह बात लागू होती है। यहां तक कि हाल ही में तमाम क्षेत्रों में विदेशी निवेश को पूरी छूट देने का आगा पीछा क्या इसी लिहाज से सोचकर नहीं रखा जाना चाहिए।
मोजांबिक से दाल खरीदने की सरकारी कोशिशें भी शुरू
यह भी खास बात है कि 21 जून को सरकार का एक उच्चस्तरीय शिष्टमंडल दाल आयात की संभावना देखने के लिए मोजांबिक रवाना हुआ है। अब चूंकि अनाज व्यापारियों ने विदेशों से सिर्फ 30 लाख टन दाल खरीदने के करार किए हैं जबकि कमी 70 लाख टन की है। सो इस अंतर को पाटने के लिए सरकार को भी अपनी कोशिशें दिखाना है। मगर इससे व्यापारियों पर क्या असर पड़ेगा, इसे भी देखा ही जा रहा होगा। लेकिन ये तय है कि भारत के दाल उत्पादक किसानों को चारों तरफ से यही सूचनाएं मिल रही हैं कि निकट भविष्य में दालों के उत्पादन को वे बहुत मुनाफे की खेती मानकर न चलें।
वैसे भी सिंचाई के इंतजाम में बढ़ोतरी न होने के कारण किसानों के सामने सूखे की समस्या साल दर साल बढ़ना शुरू हो गई है और वर्षा आधारित खेती हमेशा से ही जोखिम भरा काम होता है। बहरहाल नये दौर का खुला बाजार यह देख रहा है कि देश में भोजन-पानी का टोटा पड़ा हुआ है और महंगाई रोकने की ज्यों-ज्यों दवा दी जा रही हैं महंगाई उससे भी तेज रफ्तार से बढ़ती जा रही है।
हाल फिलहाल बाढ़ का अंदेशा और महंगाई
इस समय प्रचार इस बात का है कि बारिश अच्छी होने वाली है। खूब उत्पादन होगा। बाजार अनाज से भरे होंगे यानी मांग और आपूर्ति के नियम के लिहाज से दाम नीचे आ जाएंगे। लेकिन यहां पेच यह है कि इस बार बारिश सामान्य नहीं बल्कि सामान्य से नौ फीसदी ज्यादा होने का अनुमान है। ऊपर से मानसून के आने में दस दिन की देरी यह बता रही है कि समुद्र से उड़कर आसमान में जमा पानी अब प्रति दिन के औसत के लिहाज से कम समय में ज्यादा गिरेगा। इससे यह अंदेशा होना स्वाभाविक है कि अनाज, सब्जियां, दूध और दूसरा रोजमर्रा का सामान बाजार तक पहुंचाने में तेज बारिश हाल फिलहाल बड़ी अड़चन पैदा करने वाली है। यानी महंगाई पर काबू के लिए बरसात के दिनों में निर्विध्न आपूर्ति की तैयारी कहीं दिखाई नहीं दे रही है..।
(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं)
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This Article is From Jun 22, 2016
बढ़ती महंगाई : मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की
Sudhir Jain
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Updated:जून 22, 2016 16:34 pm IST
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Published On जून 22, 2016 16:34 pm IST
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Last Updated On जून 22, 2016 16:34 pm IST
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