विज्ञापन
This Article is From Aug 29, 2017

बाबा राम रहीम केस : नई दंड नीति पर सोचने का वक़्त

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 29, 2017 13:03 pm IST
    • Published On अगस्त 29, 2017 13:03 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 29, 2017 13:03 pm IST
डेरा सच्‍चा सौदा प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम को सज़ा ने देश के माहौल में कितना फर्क़ डाला है? इस सवाल पर सोचना शुरू करें तो हमें अपनी दंड नीति की समीक्षा करनी पड़ेगी. एक अपराधशास्त्री की हैसियत से यहां सिर्फ उन बातों की चर्चा करना ठीक होगा जो विवादास्पद न हों. सोच-विचार कहां से शुरू हो तो यह बताना ठीक रहेगा कि अपने अपराधशास्त्रीय अध्ययन, प्रशिक्षण और शोध में दंड ही मेरा मुख्य विषय रहा है. तीन दशक पहले जहां इस विषय की पढ़ाई की थी वह सागर विश्वविद्यालय अब केंद्रीय विवि है. उस समय वह अपराधशास्त्र में उच्च शिक्षा देने वाला अकेला विवि था. आलेख के लेखक को दंड शास्त्र में पीएचडी के दौरान सात साल शोध करने का मौका मिला. वहीं अपराधशास्‍त्र और न्यायालिक विज्ञान की स्नातकोत्तर कक्षाओं में पढाने का मौका भी मिला. मेरा अनुभव है कि उस समय दंड शास्त्र का जो पाठ था, कमोबेश वही पाठ आज भी है. लेकिन वर्ष 1979 से आज की तारीख तक अपराध के रूप में जमीन-आसमान का फर्क आ गया. खासतौर पर 'वाइट कॉलर' यानी श्वेतपोश जगत में. लेकिन अपनी दंड नीति नहीं बदली या यूं कहें कि अपनी दंड नीति  की समीक्षा करने की फुर्सत हम नहीं निकाल पाए.

सज़ा देने के पांच  मकसद
सजा देने के पांच मकसद हैं. पहला रेट्रीब्यूशन यानी अपराधी से बदला लेना. दूसरा डेटरेंस यानी प्रतिरोध जिसका मकसद है कि ऐसा दंड देना कि वह व्यक्ति दोबारा अपराध न करे और उसे सजा मिलती देख दूसरे भी अपराध न करें. तीसरा एक्सपिएशन यानी प्रायश्चित जो कुछ नैतिक मनोवैज्ञानिक प्रकार का दंड है जो अपराधी खुद ही खुद को देता है. प्रायश्चित करवाने के लिए सरकार या राज व्यवस्था यही कर सकती है कि अपराधी को प्रायश्चित करने लायक स्थितियां बना कर दे. चौथा मकसद अपराधी का रिफॉर्मेशन यानी सुधार और पांचवा रिहैबिलिटेशन यानी उसका पुनर्वास. अपराधशास्त्र को पढ़ने-पढ़ाने में जब इन पांचों मकसद को देखते हैं तो शुरू के दो उपाय तो दंड जैसे लगते हैं और बाद के तीन अपराधी के उपचार जैसे लगते हैं. इसीलिए अपराधशास्त्र की भाषा में अपनी दंड नीति को हम दंडोपचार पद्धति कहते हैं. डेरा प्रकरण में सजा को इस दंड नीति के लिहाज़ से भी देख लेना चाहिए.

यह भी पढ़ें : डेरा प्रकरण का सीधा प्रसारण और कुछ नए पहलू

 प्रतिशोध की भावना बढ़ी है
समाज में प्रतिशोध की आकांक्षा कुछ ज्यादा बढ़ चली है. जनमानस को हिला देने वाले किसी अपराधी को तत्काल फांसी पर चढ़ाने की मांग आमबात हो गई है. ऐसा नहीं है कि कानून बनाने की और उसमें सुधार की सतत प्रक्रिया में इस मांग पर गौर किया न गया हो. विद्धानों, विशेषज्ञों, दार्शनिकों और सभ्य समाज के लोगों ने समय-समय पर इस पर खूब सोचा लेकिन जनआकांक्षा को सही नहीं माना गया. अपराध के प्रतिकार के लिए सार्वभौमिक रूप से मानवीय उपायों को ही अभी तक अपनाने पर हम कायम हैं.

प्रतिरोध की मात्रा कैसे तय हो
अपराध को दोबारा राकने के उपाय के तौर पर हमारे पास प्रतिरोध का उपकरण है. प्रतिरोध की मात्रा यानी अपराधी को कितना दंड दें कि वह दोबारा अपराध न करे यह तय नहीं हो पाता. इसलिए आमतौर पर जनता में जल्द ही एक बात निकाल कर आ जाती है कि अपराधी को फांसी पर चढ़ा दो.

लेकिन इतिहास से सबक मिलता है कि फांसी से काम बना नहीं. जब फ्रांस में जेबकतरों से परेशान हुए थे तो सरेआम फांसी का नियम बना लिया था लेकिन फांसी देखने के लिए जो भीड़ जमा होती थी उसमें भी जेबें कटती थीं. पता चला कि फांसी भी प्रतिरोध के लिए उतना कारगर नहीं. वैसे अपराधशास्त्र में जब प्रतिरोध को विस्तार से पढ़ाते हैं तो इसे दो प्रकारों में बांट लेते हैं. एक वैयक्तिक प्रतिरोध यानी उस अपराधी को दोबारा अपराध करने से रोकना. दूसरा सामान्य प्रतिरोध यानी उस सजा़ को देख सुनकर दूसरे लोग भी डरें. ये जो पहला रूप है यानी अपराधी को दोबारा अपराध करने से रोकना सो यह भी कारगर नहीं दिखा. अध्ययन बताते हैं कि एक बार जो जेल गया उस पर ऐसा कलंक लगा कि वह दोबारा कलंकित होने से नहीं डरता. अंग्रेज़ी में इसे स्टिग्मा कहते हैं जिसके बारे में सामान्य अनुभव यह निकला कि जो व्यक्ति अपराध नहीं कर रहा है वह किसी सजा़ के डर के मारे नहीं बल्कि इस स्टिग्मा या कलंक के डर से अपराध नहीं कर रहा है. अलबत्ता ये बात सिर्फ आम आदमी पर या समाज के निचले तबके पर ही लागू होती है. उच्च आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक हैसियत बाले लोगों में अपराध के ज़रिए अपना रुतबा बढ़ाकर अपनी हैसियत और बढ़ाना एक नई प्रवृत्ति है. प्रस्ताव है कि इस शोध परिकल्पना पर शोध अध्ययन हों.

यह भी पढ़ें : कौन संभालेगा डेरा का अरबों का साम्राज्य

प्रायश्चित यह भाव या बोध आए कैसे
दंड के उददेश्यों में प्रायश्चित भी एक प्रकार है. यह सुनकर अजीब सा लगता जरूर है लेकिन जब हमने अपराधी को अपराधी की बजाए रोगी मानकर चलना  स्वीकार किया तो प्रायश्चित को यह गारंटी माना गया कि वह दोबारा अपराध नहीं करेगा. पर समस्या यह है कि प्रायश्चित का यह भाव या बोध आए कैसे. अभी हम मानते हैं कि अपराधी ने माफी मांग ली तो प्रायश्चित हो गया. खैर ये कुछ आध्यात्मिक प्रकार का उपाय है इसलिए विवादास्पद है. कहते हैं कि डेरा बाबा ने सजा़ की मात्रा तय करने वाली बहस के दौरान माफी मांगी. अनुमान लगाया जा सकता है कि यह माफी अपने वकील की सलाह पर मांगी होगी. यानी सजा़ की मात्रा कम करने के लिए होगी. सो अभी से इसे प्रायश्चित की श्रेणी में रखना वाजिब नहीं.

अपराधी को रोगी मानकर सुधार
ये वो मकसद है जो बड़े काम का है. गांधीजी जोर देते थे कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं. इसी से यह उपाय उपजता है कि अपराधी को रोगी मानकर उसका उपचार किया जाए. जेल में कैदियों के सुधार के लिए हम कोई कारगर कार्यक्रम भले न बना पाए हों लेकिन विश्व में तरह-तरह से सज़ायाफ्ता कैदियों के सुधार के लिए कार्यक्रम सोचे जा रहे हैं. 80 के दशक में मेरे पीएचडी गाइड प्रो. तिवारी ने जेल की सजा पूरी करने के बाद पूर्व कैदियों के अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला था कि हमारी दंड व्यवस्था में अपराधियों के सुधार का विभव लगभग शून्य है. यहां अगर डेरा बाबा की सज़ा में देखें तो यही बड़ा मुश्किल होगा कि उन्हें जेल में ऐसा कौन सा काम दिया जाएगा जो सुधार के बाद उनके काम आए.

पुनर्वास को ध्‍यान में रखकर बनते हैं जेल के कार्यक्रम
आमतौर पर ऐसा लगता है कि जिसे सज़ा हो गई वह जेल चला गया और समाज निश्चिंत हो गया. लेकिन भारतीय न्याय व्यवस्था में तो उम्र कैद की सजा़ भी दस-बारह साल में पूरी हो जाती है. जाहिर है कि अगर सज़ायाफ्ता कैदी को वापस समाज में लाना ही है तो उसके पुनर्वास के बारे में सोचना पड़ता है. इसीलिए जेल के कार्यक्रम पुनर्वास को ध्यान में रखकर भी बनते हैं. लेकिन अब तक का अनुभव है कि हमारी जेलें इस मकसद को भी हासिल नहीं कर पा रही हैं. अजीब बात है कि जेल की सजा काट कर लौटने वाला पूर्व कैदी आमतौर पर अपने उस समाज में वापस नहीं लौटता, जहां से वह गया था. अगर डेरा बाबा के मामले को देखें तो उन्हें मिली सजा़ जेल प्रशासन की तरफ से मिलने वाली छोटी-छोटी माफियों को मिलाकर यानी अच्छे व्यवहार वगैरह के नाम पर सजा़ के दिनों में कटौती के बाद सजा़ आठ-नौ साल साल में पूरी हो सकती है. इतने थोड़े से वक्त के बाद उन्हें फिर समाज में पुनर्वासित करना ही पड़ेगा. वैसे वे जिस आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक साम्राज्य से गए हैं वह उनका खुद का एक अलग प्रकार का संसार था. सो अनुमान यही लगता है कि वे अपने संसार में  ही लौटेंगे. हां, तब तक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां कितनी बदल चुकी होंगी, इसका अभी से अंदाजा लगाना मुश्किल है.

वीडियो : समर्थकों का बाबा पार से उठने लगा भरोसा

..यानी दंड नीति की खोज करनी पड़ेगी
उन्हें सज़ा का एलान हुए अभी चंद घंटे ही हुए हैं. लेकिन जिस सनसनीखेज तरीके से यह मामला चला उससे लगता यही हैं कि कई हफ्तों तक यह मामला जिंदा बना रहेगा. इसी ज्वलंत समय में दंड नीति पर विचार की बात उठ जाए तो उठ जाए वरना ऐसे मुद्दों पर चर्चा की फुर्सत आजकल बिल्कुल भी नहीं मिलती. एक बात और कि इस सोच-विचार में वैश्विक ज्ञान से काम नहीं चलेगा. हमारे देश के धार्मिक क्षेत्र में सनसनीखेजपन  बिल्कुल अलग है. वैसे भी श्वेतपोश अपराध के मामले में अपने ही देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में शोध अध्ययनों का टोटा है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com