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This Article is From Apr 05, 2016

सब कुछ छोड़-छाड़कर पानी के इंतज़ाम में लगने का वक्त

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 05, 2016 15:59 pm IST
    • Published On अप्रैल 05, 2016 15:55 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 05, 2016 15:59 pm IST
जल सप्ताह का उद्घाटन भाषण देते समय वित्तमंत्री अरुण जेटली को बड़ी परेशानी हो रही होगी, क्योंकि यहां उन्हें देश में जल समस्या पर बोलना लाजिमी था, सो, स्वाभाविक रूप से उन्हें कहना पड़ा कि जल प्रबंधन की हालत ठीक नहीं। अपनी सरकार के बचाव में इसका कारण उन्होंने इतिहास में जाकर बताया। उन्होंने कहा कि जल संरक्षण का काम पिछली सरकारों के ज़माने में ढंग से नहीं हुआ था, इसलिए नदियां सूख रही हैं। आयोजन स्थल पर जो बैकड्रॉप, यानी बैनर लगा था, उसमें एक वादा और एक नारा लिखा था। वादा था, हर खेत को पानी, और नारा था 'सबका साथ, सबका विकास'। इस नारे और वादे के सिलसिले में उन्होंने बोला कि प्रधानमंत्री सिंचाई योजना का काम तेज़ किया जाएगा और सन 2017 तक काम तेज़ी से पूरा किया जाएगा। लेकिन उन्होंने यह फिर भी नहीं बताया कि इस काम के लिए कितने पैसों की ज़रूरत पड़ेगी।

इस साल पानी की किल्लत का अंदाज़ा नहीं है सरकार को...
जल सप्ताह हो या जल दिवस, ऐसे मौकों पर हम हमेशा वर्तमान स्थितियों का ज़िक्र ज़रूर करते थे। सरकारी आयोजनों तक में मौजूदा हालात देखने से मुंह नहीं चुराया जाता था, लेकिन इस बार देश में भयावह जल संकट का अंदाज़ा लगाने का काम पूरी तरह बंद करके रखा गया है। जल सप्ताह के उद्घाटन भाषण में वित्तमंत्री ने अपनी सरकार के बचाव में दूसरा ऐलान यह कर दिया कि जल प्रबंधन का काम राज्य सरकारों का है। अगर वाकई राज्य सरकारों का ही है तो केंद्र सरकार को प्रधानमंत्री सिंचाई योजना से उम्मीद बंधवाने से बचना चाहिए। फिर भी केंद्र सरकार देश को जल संकट के अंदेशे को लेकर आगाह करने के काम से नहीं बच सकती। इसके लिए केंद्र सरकार को जल सप्तााह के बाकी बचे पांच दिनों के भीतर जल संकट पर एक स्थितिपत्र ज़रूर जारी कर देना चाहिए।

सिंचाई तो दूर, पीने के पानी तक का टोटा...
वित्तमंत्री ने सिंचाई पर ज्यादा बोला। ठीक भी है, क्योंकि किसी भी वित्तमंत्री के लिहाज़ से सबसे बड़ा काम यही है। बजट में सबसे बड़ी रकम की दरकार इसी काम के लिए होती है। अभी पांच हफ्ते पहले ही इस साल का बजट पेश हुआ था। खेती-किसानी और अनाज-पानी के इंतज़ाम का हिसाब रखने वाले ज़रा गौर कर लें कि इस बजट में इन कामों को कितनी अहमियत दी गई। छह लाख से ज्यादा गांवों और 65 करोड़ से ज्यादा किसान आबादी के लिए  कितनी रकम का इंतज़ाम किया गया है, इसका हिसाब तक कोई नहीं लगा पाया। हो सकता है, किसी ने लगाया भी हो, लेकिन सरकारी स्तर पर किसी ने नहीं बताया। किसी ने नहीं बताया कि 19,90,000 करोड़ के सालाना बजट में खेती-किसानी और जल परियोजनाओं पर यह सरकार कितने फीसदी खर्चा करना चाह रही हैं। ज़ाहिर है, पानी के इंतज़ाम पर सरकार का ध्यान है ही नहीं।

गाया जाने वाला है आसमानी या सुल्तानी कारण का राग...
बारिश के आंकड़े हर हफ्ते जारी करने का इंतजाम हमने बहुत पहले से कर रखा था, और उसी हिसाब से जल प्रबंधन होता था, लेकिन गुजरा हुआ एक साल, यानी 2015, ऐसा रहा, जिसमें सब कुछ पता होते हुए भी जल संरक्षण की कोई संजीदा कोशिश होती नहीं दिखी। यहां तक कि पिछले मानसून के कमजोर होने का अनुमान जल विज्ञानियों और जल प्रबंधकों ने बता दिया था। मानसून के दिनों में अच्छी तरह से पता चल गया था कि मानसून हमें अतिरिक्त पानी देने वाला नहीं है। फौरन ही जल प्रबंधन के हुनर को काम में लगाकर देश के बांधों में पानी भरकर रख लेने का काम बेहतर ढंग से करने में एड़ी से चोटी का दम लगाया जा सकता था। पुराने तालाबों को ठीक करके उनमें पानी भरकर रखने का प्रबंध हो सकता था, लेकिन कुछ होता नहीं दिखा।

बुंदेलखंड में दो-चार छोटे बांधों में यह सर्तकता बरती गई, लेकिन किया यह गया कि किसानों के सिंचाई का पानी बंद करके गर्मियों में शहर-कस्बों में पीने के पानी का इंतज़ाम करके रख लिया गया। आज पता चल रहा है कि वह पानी भी गर्मी में काफी उड़ गया और बाकी प्यासी ज़मीन ने सोख लिया। यानी जैसा संकट दिख रहा है, उससे यही लग रहा है कि सरकारें अपने सुशासन की बातें उठने से पहले, यानी समस्या के सुल्तानी साबित होने से पहले ही इस जल संकट को आसमानी बताने के प्रचार में लगने वाली हैं।

अल नीनो और जलवायु परिवर्तन की बातें शुरू...
समुद्र में अनियमित रूप से गर्म जलधारा का इधर से उधर चलना और मानसून पर उसके असर पड़ने की प्राकृतिक घटना को हमने दो-तीन दशक पहले ही समझा है, और इसे अल नीनो कहते हैं। यह जानकारी हमें सिर्फ अनुमान करने में ही मदद करती है। इसे बदलने के लिए या इसका प्रबंधन करने के लिए हमारे पास अभी कोई सैद्धांतिक उपाय भी नहीं है। सो, पूर्वानुमान के अलावा इसका ज्यादा जिक्र किस काम का है। इसी तरह जलवायु परिवर्तन का एक कारण भूताप का बढ़ना है। भूताप बढ़ने का कारण हमारी विकास की गतिविधियां हैं, लेकिन जब हमें पता चल गया है कि एक देश के तौर पर सिर्फ हमारे करने भर से कुछ होना-जाना नहीं है तो इसे लेकर फिलहाल हमारा विलाप करना किस काम का है। हां, इतना ज़रूर है कि प्रबंधन में अपनी कोताही को प्रकृति के नाम डालकर बच लें।

सबसे पहले बुंदेलखंड के हालात डराएंगे हमें...
इस बार तेज धूप और लू का पूर्वानुमान लगा लिया गया है। खासकर बुंदेलखंड के तालाब-कुएं महीने भर पहले ही सूख चले थे। वहां की डेढ़ करोड़ से ज्यादा की किसान आबादी पिछले छह महीनों से कभी अतिवृष्टि, कभी ओलों और कभी बेमौमस बारिश से तबाह हो चुकी है, और अब पानी की कमी से बेहाल है। इसी हफ्ते दिल्ली के जंतर मंतर पर हजारों किसान अपनी हालत बयान करने आए थे। उनके नेताओं ने अपने सोच-विचार में यही पाया कि खेती-किसानी की बदहाली और सिंचाई के पानी के इंतजाम के लिए उन्हें यह भी नहीं सूझ रहा है कि क्या मांग करें। उन्होंने केंद्र सरकार के सामने बुंदेलखंड पर श्वेतपत्र जारी करने की मांग की है। इस जल सप्ताह में अगर केंद्र सरकार उनकी यह कागज़ी कार्यवाही की मांग ही मान ले तो कम से कम पता तो चले कि उनकी समस्या किस तरह की, और कितनी बड़ी है। इससे सरकार को वैज्ञानिक तरीके से समस्या के समाधान का उपाय भी सूझ सकता है। उपाय जब होगा, तब होगा, अभी तो देश के सामने सबसे बड़ा खतरा जल संकट से अभूतपूर्व हाहाकार मचने का है।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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